आम जन की वेदना कैसे समझेगी सरकार

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आम आदमी का दर्द क्या है, यह आम आदमी के स्थान पर स्वयं रखकर हमारे राजनेता विचार करेंगे, तभी वे आदमी के दर्द को सही अर्थो में महसूस कर पाएंगे। जब वे आम व्यक्ति के दर्द को समझेंगे, तभी हमारे राजनेता ऐसी नीतियां बना पाएंगे, जिसका सीधा फायदा आदमी को मिलना संभव होगा। यहां हम जाति, धर्म और व्यक्ति विशेष हटकर आम आदमी के दर्द की बात कर रहे है, इसे जातीयता और धर्म के चश्मे से देखने पर हम उस दृष्टि को नहीं हासिल कर सकेंगे, जो कि सही अर्थों में जन कल्याणकारी होगी, मेरी बात आशय यह भी नही लगाया जाए कि धर्म के चश्मे से देखने की जरूरत नहीं है, निश्चत तौर पर इसकी भी जरूरत है, क्योंकि राष्ट्र और राष्ट्रीयता को बचाने के लिए कालखंड को धर्म के चश्मे से देखा जाना जरूरी है, लेकिन अगर आम आदमी के दर्द की बात करें तो योजनाओं को बनाते समय यह जाति और धर्म के चश्मे को किनारे रख दिया जाए। एक समान्य व्यक्ति की रोजमर्रा की जरूरतें हैं, जिसके लिए वह जीवन भर जद्दोंजहद करता रहता है, कुछ हासिल कर पाता है तो कुछ हासिल न कर पाने के मलाल के साथ जीवन जीता है।

आज मैं एक स्थान पर बैठा था,वहां एक सामान्य व्यक्ति फोन पर अपने परिजनों से बात कर रहा था, फोन पर उसने अपने बेटी से कहा कि मैने एक किलो आटा घर पर रख दिया है, इत्तीफाक से वह व्यक्ति ब्राह्मण परिवार से है, जब वह यह बात अपनी बेटी से बोल था तो मैने उसके बातों और उसके भावों में छिपी हुई उस वेदना को महसूस किया जो कि आदमी के दर्द को बयां करने के लिए काफी थी। फोने पर वार्ता के दौरान उसकी बेटी ने छोटी सी फरमाईश अपने पिता से की लेकिन आर्थिक स्थिति अनुकूल न होने के कारण वह पिता अपनी बेटी की वह छोटी से मांग को पूरा करने में असमर्थ है, इसलिए वह अपनी बेटी को बातों से बहलाने की कोशिश करता है, बेटी मान जाती है या मन मसोस कर चुप हो जाती है, यह बात उस व्यक्ति के लिए मायने रखती है, लेकिन सरकार या व्यवस्था का इससे कोई सरोकार नहीं रहता है, बस ऐसे आम आदमी की बेबसी को सरकार को जिस दिन समझने लग जाएगी और उसके अनुरूप नीतियां बनाने लग जाएगी, उस दिन सही अर्थों में रामराज्य की नीव पड़ेगी। आम आदमी की वेदना को समझने के लिए एक और किस्से का मैं जिक्र करता हूं, जो कि आम आदमी की बेबसी को दर्शाता है। मैं एक छोटा-मोटा अखबार नवीस हूं, मेरे साथ एक सहकर्मी कार्य करते थे। उनकी भी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, जैसे-तैसे अभावों के बीच घर की गुजर-बसर हो रही थी, बड़ा बेटा कम्पटीशन की तैयारी कर है और छोटा बेटा ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर में है।

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एक दिन जब वह सहकर्मी कार्यालय में मेरे साथ काम कर रहे थे, तो इसी बीच उनकी पत्नी का फोन आया तो जिस पर वह सज्जन अचानक चौंक गए। मोबाइल उठाया और मेरे पास उठकर कार्यालय के बाहर चले गए। लेकिन जाते-जाते उन्होंने अपनी पत्नी से इतना कहते हुए मैंने सुना कि बेटे से बात कराओ। चूंकि बेटे का उस दिन जन्म दिन था तो वह अपने सार्थियों को छोटी- मोटी पार्टी देना चाहता था, लेकिन पिता की हालात ऐसी थी, वह कर्ज में डूबे हुए थे, लिहाजा उन्होंने पैसे देने पर असमर्थता जताई तो बेटा उखड़ गया। वह मन मसोस कर रह गया। यह घटना चूंकि मेरे सामने घटी, इसलिए मेरे जहन में बस गई और एक आदमी के दर्द का मुझे एहसास कराने वाली रही। वैसे मैंने जीवन में ऐसे तमाम किस्से देखे-सुने और स्वयं अनुभव किए हैं, जो कि मुझे अंत:करण तक झकझोर देते हैं और अपनी और दुनिया भर में रचे-बसे दर्द और वेदना की अनुभूति कराते रहे है, लेकिन हालिया अनुभवों ने मुझे इसे अभिव्यक्त करने के लिए बाध्य कर दिया।

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