कर्मों का महत्व सदा से ही सनातन संस्कृति में रहा है, किसी अन्य या परिस्थिति को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं बनाया जा सकता है, कर्म प्रधानता सदैव से सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। धार्मिक ग्रंथों में कर्मो की प्रधानता का वर्णन मिलता है। कुछ ऐसा ही प्रसंग द्बापर युग की गाथा से भी जुड़ा है, जब महाभारत युद्ध के दौरान कर्ण ने श्री कृष्ण के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए पूछा कि मेरी मां ने मुझे जन्म होने के साथ ही लोकलाज के भय से त्याग दिया था, मेरा क्या अपराध था? इसमें तो मेरा कोई दोष नहीं था। कालान्तर में द्रोेणाचार्य ने भी मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया और शिक्षा देने से यह कहते मना कर दिया कि मैं क्षत्रीय नहीं हूं, क्या यह मेरा दोष था? भगवान परशुराम जी ने मुझे शिक्षा तो दी लेकिन श्राप भी दे दिया कि आपदकाल में जब मुझे इस विद्या की सबसे ज्यादा जरूरत होगी, तब मैं इसे भूल जाऊंगा। कारण यह था कि वे मुझे क्षत्रीय नहीं समझते थ्ों, क्या यह मेरा दोष था?
अज्ञान व भूलवश एक गाय मेरे तीर के मार्ग में आई और उसकी मृत्यु हो गई, तब भी मुझे गौवध का श्राप मिला। यहां तक कि द्रोपदी के स्वयंवर में मुझे अपमान का सामना करना पड़ा, द्रोपदी ने मुझे अपमानित किया। मेरा दोष मात्र इतना था कि मुझे राजधराने का कुलीन व्यक्ति नहीं माना गया।
मुझे जन्म देने वाली मेरी मां कुंती ने भी मुझे पुत्र के रूप में स्वीकार नहीं किया और अन्य पुत्रों से इस सच को छिपाया। मां ने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए इस सच को अंतत: स्वीकार किया। दुर्योधन से मुझे जो कुछ सम्मान प्राप्त हुआ वह भी दया स्वरूप ही प्राप्त हुआ है। ऐसे में दुर्योधन के प्रति निष्ठा रखता हूं, तो क्या गलत है? उसने मेरे मान की रक्षा की और मेरे अस्तित्व को बचाया।
भगवान श्री कृष्ण ने कर्ण की पूरी बात ध्यान से सुनी और बोले कि कर्ण मेरा जन्म जेल में हुआ था, पैदा होने के साथ ही मृत्यु मेरा इंतजार कर रही थी। जिस कारागृह में मेरा जन्म हुआ, वहां मुझे जन्म के साथ ही माता-पिता से अलग होना पड़ा। मेरा क्या कसूर था? तुम्हार बाल्यकाल तो रथों की धमक और घोड़ों की हिनहिनाहट में बीता है और तीर कमान तो तुम बाल्यकाल से ही देख रहे हो। लेकिन मैंने तो बचपन में गायों को चराया और गोबर उठाया है। बाल्यकाल में ही मेरे ऊपर न जाने कितने ही प्राणघातक हमले हुए, जब कि मैं यह भी नहीं जानता था कि यह हमले क्यों हो रहे हैं? मेरे पास न कोई सेना थी, न शिक्षा थी, न कोई गुरुकुल था, न कोई महल था, मेरा सगा मामा मुझे अपना सबसे प्रबल शत्रु समझता था।
जब तुम सभी अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नहीं थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला, तब मुझे ज्ञान की प्राप्ति हुई। तुम्हें तो अपनी पसंद की कन्या से विवाह का अवसर मिला, लेकिन मुझे तो वह भी नहीं मिल सका, वह मुझे नहीं मिल सकी, जो मेरी आत्मा में बसती थी।
मुझे बहुत से विवाह राजनीतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने असुरों से छुड़ाया था। जरासंघ के नाराज होने से मुझे मेरे परिवार को यमुना से दूर समुद्र किनारे बसाना पड़ा। ऐसे में दुनिया में मुझे कायर तक कहा।
भगवान ने आगे कहा कि यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज युधिष्ठिर के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला। तब भी मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझा है। इसलिए हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनोतियों के बिना नहीं हो सकता है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नहीं होता है। कुछ कमियां यदि दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं।
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज से स्वयं निश्चित करते हैं। इस बात का कोई फर्क नही पड़ता है कि कितनी बार हमारे साथ अन्याय हुआ हैं? इस बात से भी कोई फर्क नही पड़ता है कि कितनी बार हमारा अपमान होता है? इस बात से भी कोई फर्क नही पड़ता है कि कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन हुआ है? फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उसका सामना कैसे करते हैं?