जगन्नाथपुरी पहुंचते ही भाग्योदय होता है प्रारंभ, पास ही विमला देवी शक्तिपीठ

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स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं। शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।

श्रीजगन्नाथपुरी के अलावा शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र और पुरुषोत्तमक्षेत्र भी कहा गया

जगन्नाथ का आशय है ब्रह्मांड का भगवान। जगन्नाथपुरी मंदिर ओडिशा के पुरी में स्थित है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ, बालभद्र और सुभद्रा की पूजा की जाती है। देवताओं की यह मूर्तियां लकड़ी से बनी हैं। हर बारह साल के बाद इन लकड़ी की मूर्तियों को पवित्र पेड़ों की लकड़ी के साथ समारोहपूर्वक बदला जाता है। पूर्वी भारत के उड़ीसा राज्य में बंगाल की खाड़ी के किनारे बसी महान् तीर्थस्थली जगन्नाथपुरी किसी समय प्राचीन कलिंग की राजधानी रह चुकी है। धर्मशास्त्रों में इसे श्रीजगन्नाथपुरी के अलावा शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र और पुरुषोत्तमक्षेत्र भी कहा गया है। भारत के चार धामों में यह भी एक धाम है।

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कलियुग का धाम है श्रीजगन्नाथपुरी

ऐसी मान्यता है कि यह कलियुग का धाम है। शंकराचार्य द्वारा देश के चारों दिशाओं में स्थापित मठों में से एक मठ पुरी में भी है, जो कि ‘ गोवर्धन पीठ ‘ के नाम से प्रसिद्ध है। पुरी में एकादशी – व्रत में किसी ने श्रीवल्लभाचार्य महाप्रभु की निष्ठा – परीक्षा ली। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लिए – लिए ही द्वादशी शुरू होने तक जगन्नाथजी का स्तवन करके महाप्रसाद तथा एकादशी को समुचित मान दिया। सिक्खों के प्रथम गुरु नानकदेवजी यहां पधारे थे, जिनका पवित्र स्थान ‘ नानक मठ ‘ जगन्नाथ मंदिर के सामने है। भक्त एवं कवि सूर, तुलसी और मीरा ने भी श्रीजगन्नाथ के दर्शन किए थे। चैतन्य महाप्रभु यहां लंबे समय तक रहकर भक्ति – साधना करते रहे। जगन्नाथ रथ यात्रा और छुआछूत निवारण की भावना के कारण भी इस नगर का विशेष महत्त्व है। चैतन्य ने जगन्नाथ का महाभोग लेते वक्त यहां जाति का विचार नहीं किया था ।

जगन्नाथपुरी पहुंचते ही भाग्योदय होना प्रारंभ हो जाता है

मानव का पुरी पहुंचते ही भाग्योदय होना प्रारंभ हो जाता है। मंदिर स्थित कल्पवृक्ष मानव इच्छाओं की पूर्ति करता है। त्रिमूर्ति प्रभु के दर्शन से असीम आनंद प्राप्त होता है और उनका आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे हर कार्य सिद्ध होता है।

धार्मिक पृष्ठभूमि

इसे कलियुग का पावनधाम माना जाता है। प्रचलित कथ के अनुसार, सतयुग में पुरी में एक वन था जहां नीलांचल नाम का पर्वत स्थित था। इस पर्वतशिखर पर सबक इच्छा पूर्ण करने वाला कल्पद्रुम वृक्ष खड़ा था पर्वत के पश्चिम की ओर एक पवित्र जलस्रोत था, जिसक नाम रोहिणी था। इसके निकट नीलमणि धारण किए हुए विष्णु भगवान की एक सुंदर मूर्ति थी, जिसे ‘ नीलमाधव कहा जाता था। इस आश्चर्यजनक प्रतिमा की चर्चा अवंती में तत्कालीन राजा इंद्रद्युम्न ने सुनी। वह विष्णु का अनन् भक्त था। वह उस विग्रह के दर्शन हेतु आतुर हो गया और प्रयत्न करने पर उसे उस स्थान का ज्ञान हो गया, परंतु इससे पहले वह उस विग्रह तक पहुंचे कि देवता उसे लेकर अपने लोक में चले गए। उस स्थल पर पहुंचने पर एक आकाशवाणी हुई कि तुम्हें जगन्नाथजी के दर्शन दारु ब्रह्मरूप में ही होंगे। इंद्रद्युम्न परिवार सहित नीलांचल के पास ही बस गए। एक दिन समुद्र में एक बहुत बड़ा काष्ठ का टुकड़ा बहकर आया, जिसे राजा ने निकालकर जगन्नाथ की मूर्ति बनवाने का निश्चय किया। उसी समय बढ़ई के रूप में विश्वकर्माजी स्वयं उपस्थित हुए और उन्होंने मूर्ति बनाना स्वीकार लिया, परंतु एक शर्त रखी कि जिस स्थल पर ये मूर्ति बनाएंगे, उसे तब तक ना खोला जाए, जब तक वे मूर्ति पूर्ण होने की सूचना स्वयं न दें राजा ने इसे स्वीकार कर लिया और विश्वकर्मा उस काष्ठ को लेकर गुंडीचा मंदिर के स्थान के एक भवन में बंद हो गए। कई दिन व्यतीत हो जाने पर महारानी को चिंता हुई तो उन्होंने महाराज से कहा – शायद बढ़ई को कुछ हो गया है, वर्ना इतने दिनों तक कोई भूखा – प्यासा किस प्रकार भीतर बंद रह सकता है। महाराज ने बात मान कर द्वार खुलवा दिया, पर अंदर वृद्ध बढ़ई नहीं था और केवल ( श्रीकृष्ण ) जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा को अधूरी बनी मूर्तियां ही पड़ी हुई मिली। महाराज को इसका बहुत दुख हुआ। उस समय पुन : आकाशवाणी हुई कि हे राजन! हमारी इसी रूप में रंगरोगन करके प्रतिष्ठा करें। चूंकि मूर्ति का निर्माण गुंडीचा में हुआ था, अत : उस स्थान को जनकपुर या ब्रह्मलोक कहा जाता है।

दर्शन तीर्थ का दर्शनीय विवरण

बारहवीं सदी में कलिंग के राजा चौड़गंग द्वारा बनवाया गया 65 मीटर ऊंचा श्री जगन्नाथ मंदिर यहां का प्रमुख और सर्वाधिक विशाल मंदिर है। इस मंदिर के मुख्य भाग को विमान या श्रीमंदिर कहते हैं, जिसमें रलवेदी पर भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम की महादारु लकड़ी से निर्मित दिव्य मूर्तियां हैं। मंदिर में प्रतिदिन पूजा और आरती के समय भक्तिपूर्ण संगीतमय कार्यक्रम होता है, जिसमें मृदंग और अनेक प्रकार के वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है। अहाते में स्थित एक छोटे से मंदिर में श्रीविश्वनाथलिंग है, जिसकी पूजा काशी स्थित बाबा विश्वनाथ की पूजा के समान फलदायी मानी जाती है। मंदिर के समीप ही एक विशाल कल्पवृक्ष के नीचे भगवान विष्णु के बाल स्वरूप की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर के दो बड़े – बड़े सुंदर परकोटे हैं और मुख्य मंदिर के तीन भाग हैं, सबसे ऊंचे शिखर के नीचे तीनों मूर्तियां विराजमान हैं। इस मंदिर के चार द्वार हैं। पूर्व का सिंहद्वार, पश्चिम का व्याघ्रद्वार, उत्तर का हस्तिद्वार और दक्षिण का अश्वद्वार। मंदिर के एक भाग में बहुत बड़ी भोगशाला है और दूसरे भाग में एक प्रांगण है, जहां यात्री स्वयं हांडियों में चावल पकाते हैं। मंदिर के अंदर व बाहर की  शिल्पकला देखने योग्य है। मंदिर के सामने एक उच्च करुणस्तंभ स्थापित है। मंदिर के अंदर यदि भीड़ न हो तो तीर्थयात्री स्वयं मूर्तियों के पास जाकर उनके शरीर छूकर आशीर्वाद ग्रहण कर सकते हैं। मंदिर के चारों ओर की दीवारें, जिसे मेघनाथ प्राचौर कहते हैं, लंबाई 660 फोट और ऊंचाई 20 फीट है। मंदिर कलिंग स्थापत्य व शिल्पकला का बेजोड़ उदाहरण है।

मंदिर प्रांगण के अन्य मंदिर

  1. रत्नवेदी : निज मंदिर में एक ऊंची वेदी है, जिस पर श्री जगन्नाथ, सुभद्रा व बलराम की मुख्य मूर्तियां हैं। इस रत्नवेदी के एक ओर एक बड़ा सुदर्शन चक्र स्थित है। यहाँ नीलमाधव, लक्ष्मी तथा सरस्वती की छोटी मूर्तियां भी विराजमान हैं। श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलरामजी जी की मुर्तिया अपूर्ण है। और केवल शरीर का ऊपरी भाग ही निर्मित है।
  2. विमला देवी शक्तिपीठ मंदिर : निज मंदिर के सामने एक मुक्ति मंडप है और उसके पीछे की ओर एक रोहिणी कुंड है और उसी के समीप ही विमला देवी का मंदिर है। इसे ५२ शक्तिपीठो में गिना गया है। यहाँ सती की योनि गिरी थी।
  3. अन्य मंदिर : मंदिर के प्रांगण में इतने छोटे – बड़े मंदिर हैं कि उनका वर्णन संभव नहीं है। गाइड यात्रियों को सभी का नाम बता कर दर्शन करा देता है।
  4. वटवृक्ष या कल्पवृक्ष : मंदिर के पास ही एक बड़ा वटवृक्ष है, जिसे कल्पवृक्ष को संज्ञा दी गई है। इससे आप अपनी मन्नत मान कर कलेवा इस पर बांध देते हैं। पुजारी पूजा करा कर आपसे एक फल न खाने का वचन लेते हैं यह पूजा विधि है और इसी के करने से आपकी मान्यता पूर्ण होती है।

पूजा विधि और रथयात्रा

श्रद्धालु भक्त मंदिर के भीतर और बाहर से पूरी परिक्रमा करते हैं और भगवान जगन्नाथ तथा सुभद्रा व बलराम की मूर्ति के आगे नतमस्तक होते हैं। पुरी में 400 ब्राह्मण रसोइए, 50 से अधिक प्रकार के चावलों का भात, सब्जी तथा मिठाइयां तैयार करते हैं। ये सर्वप्रथम जगन्नाथ को चढ़ाए जाते हैं। उसके बाद भक्तों में बांटे जाते हैं, जिनकी संख्या रथयात्रा के दिन लाखों में पहुंच जाती है। मंदिर में तीन प्रकार के भोग का निर्माण होता है। जगन्नाथभोग सादा भात होता है, बलरामभोग में खीर आदि और सुभद्राभोग में नाना प्रकार के पकवान होते हैं। इन भोगों को हांडी में भरकर अलग – अलग दामों में मंदिर से ही विक्री होती है। रथयात्रा के दिन तीनों मूर्तियां मंदिर से रथ में रखी जाती हैं। उसके बाद वे लगभग दो किलोमीटर दूर इंद्रधुम्न की रानी गुंडीचा के महल तक लाखों मनुष्यों के जुलूस में ले जाई जाती हैं और जगन्नाथजी की मौसी के मंदिर में रखी जाती हैं। दस दिन पश्चात् वहां से वापस आने की यात्रा में भी उसी प्रकार धूमधाम से जुलूस आता है। इस यात्रा को ‘ उलटा रथ ‘ कहते हैं। रथयात्रा के दिन अनेक भक्त उपवास रखते हैं। अनेक भक्त रथ के रस्सों को खींचने का प्रयास करते हैं, इस प्रक्रिया में कई बार भगदड़ भी मचती थी, परंतु अब इसकी व्यवस्था उड़ीसा सरकार ने अपने हाथ में ले ली है, जिसके कारण अब भगदड़ और दुर्घटनाएं नहीं होती। जगन्नाथजी के मंदिर में प्रात : काल सात बजे मंगला के दर्शन होते हैं, ग्यारह बजे राजभोग के दर्शन होते हैं। दो बजे छत्रभोग, चार बजे मध्याह्नभोग, सायंकाल सात बजे आरती, रात को दस बजे संध्याभोग तथा 11 बजे चंदनलेप, रात को दो बजे शृंगार। इसके बाद तीन बजे रात को शयन का दर्शन होता है। गुंडीचा मंदिर के पास इंद्रद्युम्न कुंड है। इसके अतिरिक्त लोकनाथ मंदिर, हनुमान मंदिर और गौरांग तीर्थ आदि हैं।

विशेष उत्सव

चंदन यात्रा : वैशाख शुक्ल तृतीया से ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी तक 21 दिन को चंदन यात्रा होती है। इस समय मदनमोहन, राम, कृष्ण, लक्ष्मी सरस्वती आदि के उत्सव विग्रह चंदन तालाब पर ले जाए जाते हैं। वहां इनका स्नान व नौका विहार होता है।

रुक्मिणी – हरण लीला : यह उत्सव मंदिर में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को होता है।

स्नान यात्रा : ज्येष्ठ पूर्णिमा को जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलरामजी के विग्रह स्नानमंडप में लाए जाते हैं। 108 घड़ों से उन्हें स्नान कराया जाता है।

गणेश श्रृंगार : स्नान – यात्रा में स्नान के बाद तीनों विग्रहों को गणेशवेश में श्रृंगार कराया जाता है। यह किंवदंती है कि जगन्नाथजी ने एक गणेशभक्त को गणेश के रूप में दर्शन दिए।

रथयात्रा : आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होता है।

सेवकों का उत्सव : श्रावण अमावस्या को होता है। मंदिर में प्रायः सभी पर्वो और महोत्सवों पर कोई- न – कोई उत्सव होते रहते हैं।

स्नान के पवित्र स्थान : श्रीजगन्नाथपुरी में स्नान करने के कई पवित्र स्थल है।  जिनमे नहाकर तीर्थ यात्री अपने को धन्य मानते हैं ।

चक्रतीर्थ : चक्रतीर्थ नामक स्नान – स्थल समुद्रतट पर है। यह स्थान स्टेशन से लगभग डेढ़ – दो किलोमीटर अब दूर पड़ता है। जो भी तीर्थयात्री यहां आते है, इनमें से किसी भी सरोवर में स्नान अवश्य करते है।

महोदधि : जगन्नाथ मंदिर से समुद्र की ओर  सीधा मार्ग जाता है। स्नान के स्थान से पहले स्वर्गद्वार बना हुवा है। यह स्नान – स्थल मंदिर  से लगभग 2 किलामाटर दूर पड़ता है।

रोहिणी कुंड : रोहिणी कुंड जगन्नाथ मंदिर के पास ही है। इस कुंड में सुदर्शन चक्र की छाया पड़ती है ऐसा कहा जाता है।

इंद्रद्युम्न सरोवर : यह पवित्र सरोवर जगन्नाथ मंदिर से लगभग चार किलोमीटर दूर गुंडीचा मंदिर के पास स्थित है । यहाँ जगन्नाथजी की मौसी का मंदिर है।

मार्कंडेय तथा चंदनताल : ये दोनों स्नान – स्थल पास – पास ही हैं। ये दोनों कुंड जगन्नाथ मंदिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर पड़ते हैं।

श्वेतगंगा सरोवर : महोदधि ( स्वर्ग – द्वार ) के रास्ते में यह सरोवर पड़ता है। यह समुद्र का ही एक भाग है।

श्री लोकनाथ सरोवरः श्री लोकनाथ मंदिर के पास ही यह पवित्र सरोवर स्थित है। यह स्थान जगन्नाथ मंदिर से लगभग 3-4 किलोमीटर दूर स्थित है।

मनोरम सागरतट : पुरी का समुद्रतट भी अति सुहावना और आकर्षक है। बंगाल के खाड़ी की नीली लहरें सुनहरी रेत पर मचलती हुई मनमोहक दृश्य पेश करती हैं। यहां समुद्रतट पर सूर्यास्त का नजारा बड़ा ही मनोमुग्धकारी लगता है।

जगन्नाथपुरी के आस – पास अन्य दर्शनीय स्थल

उडीसा प्रदेश के इस भूभाग पर अनेक दर्शनीयस्थल एवं तीर्थ हैं। हालांकि जगन्नाथपुरी के जितना माहात्म्य का नहीं है, लेकिन फिर भी यहां पर आए यात्रियों को इन स्थलों को भी यात्रा करनी चाहिए। जगन्नाथपुरा की यात्रा साक्षीगोपाल को साक्षी माने बिना अधरी मानी जाती है और भुवनेश्वर, कोणार्क आदि के मंदिर न केवल देवस्थान हैं, बल्कि स्थापत्य कला के भी आदर्श नमूने हैं।

साक्षीगोपाल : श्री जगन्नाथपुरी से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर साक्षीगोपाल का मंदिर स्थित है। साक्षीगोपाल नामक रेलवे स्टेशन से यह मंदिर करीब एक किलोमीटर दूर पड़ता है। ठहरने के लिए मंदिर के निकट धर्मशाला भी है। पुरी की यात्रा पर आने वाले दर्शनार्थी यहां भी अवश्य जाते हैं, बल्कि कहा तो यह जाता है कि पुरी की तीर्थयात्रा साक्षीगोपाल के दर्शन करने पर ही पूर्ण मानी जाती है।

कोणार्क : जगन्नाथपुरी से 33 किलोमीटर उत्तर पूर्व समुद्रतट पर चंद्रभागा नदी के किनारे स्थित एक सूर्यमंदिर है। इस मंदिर की कल्पना सूर्य के रथ के रूप में की गई है। रथ में बारह जोड़ी विशाल पहिए लगे हैं और उसे सात शक्तिशाली घोड़े तेजी से खींच रहे हैं। यह विशाल मंदिर मूलतः चौकोर दीवार से घिरा था। मंदिर का मुख पूर्व में उदीयमान सूर्य की ओर है और इसके तीन प्रधान अंग – देउल ( गर्भगृह ), जगमोहन ( मंडप ) और नाट्यमंडप एक ही अक्ष पर हैं। सबसे पहले नाट्यमंडप में प्रवेश किया जाता है। यह नाना अलंकरणों और मूर्तियों से विभूषित ऊंची जगती पर है। चारों दिशाओं में स्तंभ हैं। पूर्व दिशा में सोपानमार्ग के दोनों ओर गजशार्दूलों की भयावह और शक्तिशाली मूर्तियां बनी हैं। नाट्यमंडप का शिखर नष्ट हो गया है। कोणार्क में नाट्यमंडप के समानाक्ष होकर भी भोगमंदिर पृथक् है। यह दक्षिण पूर्व में है। नाट्यमंडप से उतरकर जगमोहन में आते हैं। पहले यहां एक एकाश्म अरुणस्तंभ था, जो अब जगन्नाथपुरी के मंदिर के सामने लगा है। जगमोहन और देउल एक ही जगती पर खड़े हैं। नीचे गजघर बना है, जिसमें विभिन्न मुद्राओं में हाथियों के दृश्य अंकित हैं। गजघर के ऊपर जगती अनेक मूर्तियों से अलंकृत है।

कोणार्क यात्रा मार्ग : भुवनेश्वर तक यह स्थल स्थल – मार्ग से जुड़ा है, पुरी से कोणार्क 81 किलोमीटर है और बसों तथा निजी वाहन द्वारा सरलता से पहुंच सकते हैं । भुवनेश्वर से इसकी दूरी 66 किलोमीटर है।

कोणार्क में ठहरने का स्थान : कोणार्क में ठहरने हेतु अतिथि शालाएं, होटल आदि उपलब्ध हैं। खान- पान को उचित व्यवस्था है। रात्रि में मंदिर के चारों ओर से प्रकाश किया जाता है तथा मंदिर में रात्रि की छटा निराली होती है।

भुवनेश्वर : “मंदिरों का शहर” ओडिशा के भुवनेश्वर शहर को दिया गया एक और नाम है जो न केवल देश से बल्कि दुनिया भर से बहुत सारे पर्यटकों को आकर्षित करता है। भुवनेश्वर नाम संस्कृत नाम त्रिभुवनेश्वर से लिया गया है जिसका तीन लोकों के भगवान, भगवान शिव से है। इस वजह से इस जगह के आसपास के कई मंदिर भगवान शिव के प्रति श्रद्धा रखते हैं।

यात्रा मार्ग वायु मार्ग : वायु मार्ग से भुवनेश्वर तक पहुंचा जा सकता है। भुवनेश्वर एयरपोर्ट कोलकाता, दिल्ली, हैदराबाद, चेन्नई, मुंबई, विशाखापट्टनम से जुड़ा है। उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से पुरी 56 किलोमीटर की दूरी पर है। नई दिल्ली व देश के विभिन्न महानगरों, नगरों से दूरी पुरी के लिए सीधी रेल सेवा उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त देश के प्रमुख नगरों से सड़क मार्ग द्वारा पुरी पहुंचा जा सकता है।

विशेष : तीर्थ यात्री कांट्रेक्ट बसों से एक दिन में पुरी तथा भुवनेश्वर व कोणार्क आदि समस्त तीर्थों के दर्शन कर सकते हैं। ये बसें व टैक्सियां प्रातः पुरी से रवाना होकर शाम तक दर्शन करा कर पुरी वापस पहुंचा देती हैं। मार्ग में खान – पान की सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं।

पुरी में ठहरने के स्थान

यात्रियों के ठहरने की अच्छी सुविधाएं हैं ; जैसे -मठ, धर्मशालाएं , अतिथि गृह, होटल व यात्री निवास आदि। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि पर्यटन पर सुविधाओं से युक्त पुरी एक अत्यंत मनोरम दर्शनीय से स्थल है ।

रथयात्रा की गाथा भी कम दिलचस्प नहीं

रथयात्रा तथा यात्रा की तैयारियों की गाथा भी कम दिलचस्प नहीं है । बैसाख में शुक्ल तृतीया यानी मई में रथ का विधिवत् तरीके से निर्माण शुरू होता है । भगवान जगन्नाथ , बलभद्र और सुभद्रा के लिए अलग – अलग रथ बनाए जाते हैं । रथों का आकार – प्रकार सदियों से तय है । उनमें किसी प्रकार के बदलाव का सवाल ही नहीं रहता, जिनमें सबसे बड़ा रथ भगवान जगन्नाथ का होता है । इसमें सोलह पहिए होते हैं तथा इसकी ऊंचाई भी सबसे अधिक साढ़े तेरह मीटर होती है । इस रथ में कुल 832 लकड़ी के टुकड़ों का इस्तेमाल होता है तथा लंबाई – चौड़ाई 10.52 मीटर X 10.52 मीटर होती है । जगन्नाथ रथ का आवरण लाल और पीला होता है । जगनाथ – रथ की तरह बलभद्र के रथ में चौदह पहिए, तो सुभद्रा के रथ में बारह पहिए होते हैं। बलभद्र के रथ की ऊंचाई 13.2 मीटर, उसका आवरण लाल और नीला होता है। सुभद्रा के रथ की ऊंचाई 12.9 मीटर, उसका आवरण लाल और काला होता है । निर्माण के बाद ज्येष्ठ , यानी मई – जून के महीने में पूर्णिमा के दिन स्नान – यात्रा के साथ रथयात्रा के समारोहों की विधिवत् शुरुआत होती है। इस दिन तीनों मूर्तियों को मंदिर से निकालकर बाहर नहलाने के लिए लाया जाता है। लोगों के हुजूम में जयकारों के बीच मूर्तियों को एक सौ आठ घड़ों के पानी से स्नान कराया जाता है । नतीजतन इन्हे सर्दी – जुकाम हो जाता है, ऐसी मान्यता है। परिणामस्वरूप इनका इलाज किया जाता है। तकरीबन बलभद्र और सुभद्रा स्वस्थ हो जाते हैं । पंद्रह दिन तक इन मूर्तियों की एक मरीज की भांति देखभाल की जाती है। इसके बाद श्रीजगन्नाथ, अगले दिन ये तीनों अपने – अपने रथ में सवार होकर निकल पड़ते हैं। रथ की रवानगी से पहले कुछ और दिलचस्प रस्में होती हैं, जैसे कि धर्म – कर्म में गरीब और अमीर के भेदभाव को पाटने के लिए पुरी का राजा सोने के झाडू से रास्ते को साफ करता है। श्रीजगनाथ शुरू में चलने में आनाकानी करते हैं, इसलिए उनके मान – मनुहार के लिए जयकारों के साथ गीत गाए जाते हैं। इन रस्म अदायगियों के बाद रथ यात्रा के बाद रथयात्रा का शुभारंभ होता है। उत्सव के माहौल में हजारों की संख्या में श्रद्धालु रथों को वायु खींचते हैं और सूर्यास्त तक ये तीनों रथ तीन किलोमीटर दूर स्थित बाग – बगीचों वाले घर गुंडीचा चेनई बाड़ी पहुंच जाते हैं। जगनाथजी सहित तीनों मूर्तियों को मौसी के मंदिर में रखा जाता है। दस दिन पश्चात् वहाँ से वापस आने की यात्रा में भी उसी प्रकार धूमधाम से जुलूस आता है। इन नौ दिनो है के दर्शन को आड अडपदर्शन कहते हैं। इनका अत्यधिक महात्मय है। इस यात्रा को उलटा रथ ‘ कहते है| रथयात्रा के दिन अनेक भक्त उपवास रखते हैं। अगले दिन श्रीजगन्नाथ , बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियों को मूल स्थान पर स्थापित करने से पहले उन्हें रथ पर ही सुनहरे वस्त्रों एवं स्वर्ण आभूषण से सजाया जाता है। और इसी के साथ तान सप्ताह तक चलने वाला यह धार्मिक उत्सव समाप्त हो जाता है।

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