जगत के पालनहार भगवान श्री विष्णु का मानसिक पूजन देता है अतुल्य पुण्य, पर भौतिक पूजा भी अनिवार्य

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Vishnu

त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश। ब्रह्मा सृष्टि के सृजनकर्ता, विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता और महेश यानी शिव सृष्टि के संहारकर्ता। ये त्रिदेव एक हैं, इनमें भेद नहीं हैं। भेद दृष्टि से इन्हें देखना पाप माना गया है। राम चरित मानस में तो इस बात का उल्लेख भी है कि शिव से प्रीति रखने वाला और राम से द्रोह रखने वाला नरकगामी होता है, इसी प्रकार राम से प्रीति रखने वाला और शिव से द्रोह रखने वाला भी नरकगामी होता है। कहने का आशय मात्र इतना है कि त्रिदेवों को भेद दृष्टि से देखना ही पाप है।

त्रिदेव भिन्न प्रतीत होते हुए भी एक हैं। मात्र यह जानना कल्याणकारी है। आज हम आपको भगवान विष्णु की पूजा के बारे में बताने जा रहे हैं। वह भी उनकी मानसिक पूजा के संदर्भ में आज आपको बतायेंगे। जिसे श्रद्धाभाव से करके जीव अपना कल्याण कर सकता है। यहां हम आपको एक बात और स्पष्ट कर दें कि नि: संदेश मानसिक पूजा से अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है, लेकिन भौतिक पूजा के साथ ही मानसिक पूजा करना परम कल्याणकारी होता है। अगर आपकी सामथ्र्य है और फिर भी आप भौतिक पूजा नहीं करते हैं और मात्र मानसिक पूजा को ही सम्पूर्ण माने-जाने तो इसे शास्त्रों में दोषपूर्ण माना गया है। सनातन धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। पुराणानुसार विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हैं। कामदेव विष्णु जी के पुत्र थे। विष्णु का निवास क्षीर सागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।

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सशंखचक्रं सकिरीटकुण्डलं,  सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।

सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं, नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ॥

‘ भगवान् विष्णु शंख और चक्र तथा गदा – पद्य धारण किये हुए हैं , उनके मस्तकपर सुन्दर किरीट – मुकुट और कानों में कुण्डल हैं , वे पीताम्बर पहने हुए हैं, नेत्र कमलदल के सदृश कोमल, विशाल और खिले हुए हैं, वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि, रत्नोंका चन्द्रहार और श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है; ऐसे चतुर्भुज भगवान् विष्णु को मैं मस्तक से नमस्कार करता हूँ। ‘

महान् बाल तपस्वी परम भक्त श्रीध्रुव जी महाराज ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करते थे और भगवान् श्री विष्णु के चतुर्भुज स्वरूपका ध्यान किया करते थे । ध्यान के समय प्रथम ‘ नारायण ‘ नामकी ध्वनि करके भगवान क आवाहन करना चाहिये। ‘ नारायण ‘ भगवान् विष्णुका नाम है । नारायण शब्द में चार अक्षर हैं – ना- रा-य- ण और भगवान् विष्णुके चार भुजाएँ हैं , चार ही आयुध हैं – शंख , चक्र , गदा , पद्म। ऐसे भगवान् विष्णुका ध्यान करना चाहिये । भगवान का स्वरूप बहुत ही अद्भुत और सुन्दर है । भगवान का ध्यान पहले बाहर आकाश में करे, मानो भगवान् आकाशमें प्रकट हो गये हैं और आकाश में स्थित होकर हमलोगों के ऊपर अपने दिव्य गुणों की ऐसी वर्षा कर रहे हैं कि हम अनुपम आनन्द का अनुभव करते हुए आनन्दमुग्ध हो रहे हैं । जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा आकाश में स्थित होकर अमृतकी वर्षा करता है, वैसे ही आकाश में स्थित होकर भगवान् अपने गुणों की वर्षा कर रहे हैं। क्षमा, शान्ति, समता, ज्ञान, वैराग्य, दया, प्रेम और आनन्द की मानो अजस्र वर्षा हो रही है और हमलोग उसमें सर्वथा मग्न हो रहे हैं। इसके पश्चात ऐसा देखे कि भगवान् आकाश में हमसे कुछ ही दूर पर स्थित हैं। उनका आकार करीब 5.5 फुट लम्बा और करीब 1.25-1.5 सामनेसे चौड़ा है ।

भगवान के श्रीअंगका वर्ण आकाशके सदृश नील है ; लेकिन उस नीलिमाके साथ ही भगवान में अत्यन्त उज्ज्वल दिव्य प्रकाश है । अतः नीलिमा के साथ उस प्रकाश की उज्ज्वलताका सम्मिश्रण होने से एक विलक्षण वर्ण की ज्योति बन गयी है। इस प्रकारका भगवान का चमकता हुआ नीलोज्ज्वल सुन्दर वर्ण है। भगवान का शरीर दिव्य भगवत्स्वरूप ही है। हमलोगों के शरीर की धातु पार्थिव है, भगवान  का श्रीविग्रह तैजस धातु का और चिन्मय ( चेतन ) है । सूर्य लाल रंग का है, किंतु प्रकाश विशेष होने से और समीप आने से वह श्वेतोज्ज्वल रंग का दिखता है, इसी प्रकार भगवान का स्वरूप नीलवर्ण का होने पर भी महान् प्रकाश होने से और समीप आने से वह ज्योतिर्मय श्वेतवर्ण – सा दिखता है। सूर्य के तेज में बड़ी भारी गरमी रहती है । परंतु भगवान्के तेजोमय स्वरूपमें दिव्य और सुहावनी शीतलता है । वह अपार शान्तिमय है । भगवान के चरण युगल बहुत ही सुन्दर और सुकोमल हैं । भगवान के चरण तलोंमें गुलाबी रंगकी झलक है एवं सुन्दर – सुन्दर रेखाएँ हैं – ध्वजा, पताका, वज्र, अंकुश, यव, चक्र, शंख तथा ऊर्ध्वरेखा आदि आदि। भगवान् आकाश में नीचे उतर आये हैं । उनके श्रीचरण जमीनको छू नहीं रहे हैं। देवता भी आकाश में स्थित होते हैं , जमीन को नहीं छूते, फिर ये तो देवों के भी परम देव हैं। भगवान के सुन्दर सुमृदुल चरणकमल बहुत ही चिकने हैं । उनकी अँगुलियाँ विशेष शोभायुक्त हैं। उनके चरणनखोंकी दिव्य ज्योति चमक रही है । भगवान् पीताम्बर पहने हुए हैं और जैसे उनके चरण चमकीले, सुन्दर और सुकोमल हैं, ऐसे ही उनकी पिंडलियाँ और दोनों घुटने तथा ऊरु ( जंघे ) भी हैं। भगवान् का कटिदेश बहुत पतला है , उसमें रत्नोज्ज्वल करधनी शोभित है, नाभि गम्भीर है, उदरपर त्रिवली – तीन रेखाएँ हैं । विशाल वक्षःस्थल है, गले में अनेकों प्रकार की सुन्दर मालाएं पहने हैं। सुन्दर दिव्य वनपुष्पों की एक माला घुटनों तक लटक रही है, दूसरी नाभि तक है । मोतियों की माला , स्वर्ण की माला , चन्द्रहार , कौस्तुभमणि और रत्नजटित कंठा पहने हैं । विशाल चार भुजाएँ हैं , चारों भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं और बहुत ही सुन्दर हैं , ऊपरमें मोटी और नीचे से पतली हैं, पुष्ट हैं तथा चिकनी और चमकीली हैं। इनमें दो भुजाएँ नीचे की ओर लम्बी पसरी हुई हैं। नीचेकी भुजाओं में गदा और पद्म हैं तथा ऊपरकी दोनों भुजाओंमें शंख और चक्र हैं । हस्तांगुलियोंमें रत्नजटित अंगूठियाँ हैं। चारों हाथोंमें कड़े पहने हुए हैं और ऊपर बाजूबंद सुशोभित हैं । कंधे पुष्ट हैं । भगवान् यज्ञोपवीत धारण किये और गुलनार दुपट्टा ओढ़े हुए हैं। ग्रीवा अत्यन्त सुन्दर शंख के सदृश है, ठोडी बहुत ही मनोहर है, अधर और ओष्ठ लाल मणिके सदृश चमक रहे हैं। दाँतोंकी पंक्ति मानो परमोज्ज्वल मोतियों की पंक्ति है । जब भगवान् हँसते हैं, तब ऐसा प्रतीत होता है, मानो सुन्दर सुषमायुक्त गुलाब या कमलका फूल खिला हुआ है। भगवान की वाणी बड़ी ही कोमल , मधुर , सुन्दर और अर्थयुक्त है; कानोंको अमृत के समान प्रिय लगती है । भगवान की नासिका अति सुन्दर है। कपोल ( गाल ) चमक रहे हैं – उनपर गुलाबी रंग की झलक है । कानों में रत्नजटित मकराकृति स्वर्णकुण्डल हैं, जिनकी झलक गालों पर पड़ रही है और वे गाल चम चम चमक रहे हैं। भगवान के दोनों नेत्र खिले हुए हैं, जैसे प्रफुल्लित मनोहर कमलकुसुम हों । आकाशमें स्थित होकर भगवान् एकटक नेत्रोंसे हमारी ओर देख रहे हैं और नेत्रोंके द्वारा प्रेमामृत की वर्षा कर रहे हैं । भगवान् समभावसे सबको देखते हैं । बड़े दयालु हैं , हमें दया की दृष्टिसे देख रहे हैं और मानो दया , प्रेम , ज्ञान , समता , शान्ति और आनन्द की वर्षा कर रहे हैं । ऐसा लगता है कि दया , प्रेम , ज्ञान , समता , शान्ति और आनन्दकी बाढ़ आ गयी है। भगवान के दर्शन, भाषण, स्पर्श सभी आनन्दमय हैं । भगवान में जो अद्भुत मधुर गन्ध है, वह नासिकाको अमृतके समान प्रिय लगती है। भगवान का स्पर्श करते हैं तो शरीरमें रोमांच हो जाते हैं और हृदय में बड़ी भारी प्रसन्नता होती है। भगवान्की भृकुटि सुन्दर, विशाल और मनोहर है। ललाट चमक रहा है । उस पर श्रीधारी तिलक सुशोभित है। ललाटपर काले घुघराले केश चमक रहे हैं। केशों पर रत्नजटित स्वर्णमुकुट सुशोभित है । भगवान के मुखारविन्द के चारों ओर प्रकाश की किरणें फैली हुई हैं। भगवान की सुन्दरता अलौकिक है, मन को बरबस आकर्षित करती है। भगवान् नेत्रों से हमें ऐसे देख रहे हैं मानो पी ही जायेगे। भगवान में पृथ्वी से बढ़कर क्षमा है, चन्द्रमासे बढ़कर शान्ति है और कामदेव से बढ़कर सुन्दरता है। कोटि – कोटि कामदेव भी उनकी सुन्दरता के सामने लजा जाते हैं। उनके स्वरूप को देखकर पशु – पक्षी भी मोहित हो जाते हैं, मनुष्यकी तो बात ही क्या है ? उनके स्वरूपकी सुन्दरता अद्भुत है । जब भगवान् प्रकट होकर दर्शन देते हैं, तब इतना आनन्द आता है कि मनुष्यकी पलकें भी नहीं पड़ सकती । हृदय प्रफुल्लित हो जाता है , शरीरमें रोमांच और धड़कन होने लगती है । नेत्रों में प्रेमानन्दके अश्रुओं की धारा बहने लगती है, वाणी गद्गद हो जाती है, कण्ठ रुक जाता हृदयमें आनन्द समाता नहीं । नेत्र एकटक वैसे ही देखते रहते हैं, जैसे चकोर पक्षी पूर्ण चन्द्रमा को देखता है । प्रभु से हम प्रार्थना करते हैं कि जिस प्रकार से हम आपका ध्यानावस्थामें दिव्य दर्शन कर रहे हैं, इसी प्रकार का दर्शन हमें हर समय होता रहे। आपके नाम का जप , स्वरूप का ध्यान नित्य – निरन्तर बना रहे । आपमें हमारी परम श्रद्धा हो, परम प्रेम हो । यही आपसे प्रार्थना है। आप ही ब्रह्मा , विष्णु , महेश , सूर्य , चन्द्रमा , आकाश , वायु , तेज , जल , पृथ्वी – सब कुछ हैं । आप ही इस विश्वके रचने वाले हैं और आप ही रचना की सामग्री भी हैं । इस संसारके उपादान – कारण और निमित्त – कारण आप ही हैं । इसीलिये कहा जाता है कि जो कुछ है सब आपका ही स्वरूप है। आपसे यही प्रार्थना है कि जैसे आप बाहर से आकाश में दिखते हैं, ऐसे ही हमारे हृदयमें दिखते रहें। अब हृदय में ध्यान करें – हृदय में प्रफुल्लित कमल है । उस कमल पर शेषजीकी शय्या है और शेषजी पर श्रीभगवान् पौढ़े हुए हैं एवं मन्द – मन्द मुसकरा रहे हैं, वहीं सूक्ष्म शरीर धारणकर मैं भगवान के स्वरूपको देख रहा हूँ। भगवान के बहुत – से भक्त भगवान के चारों ओर परिक्रमा कर रहे हैं और दिव्य स्तोत्रों से उनके गुणोंका स्तवन और नामोंका कीर्तन कर रहे हैं। मैं भी उनमें शामिल हूँ । देवताओंमें भगवान् शिव और ब्रह्माजी, ऋषि – मुनियों में नारद और सनकादि, यक्षोंमें कुबेर, राक्षसोंमें विभीषण, असुरोंमें प्रह्लाद और बलि , पशुओंमें हनुमान जी और जाम्बवान्, पक्षियोंमें काकभुशुण्डिजी , गरुड़जी , जटायु और सम्पाति, मनुष्योंमें अम्बरीष, भीष्म, ध्रुव तथा और भी बहुत – से भक्त सम्मिलित होकर स्तुति कर रहे हैं। दिव्य स्तोत्रों के द्वारा गुण गा रहे हैं, परिक्रमा कर रहे हैं और प्रेम में निमग्न हो रहे हैं। फिर बाहर देखता हूँ तो भगवान का उसी प्रकार का स्वरूप बाहर दिख रहा है । यही अन्तर है कि भीतर जो भगवान का  स्वरूप है , उसमें भगवती लक्ष्मी उनके चरण दबा रही हैं और उनकी नाभि से कमल निकला है। जिस पर ब्रह्माजी विराजमान हैं। बाहर देखता हूँ तो भगवान् अकेले ही दीख रहे हैं और आकाशमें स्थित हैं। जहाँ हमारे मन और नेत्र जाते हैं, वहीं भगवान् दिख रहे हैं । प्रभु को देखकर हम इतने मुग्ध हो रहे हैं कि हमें दूसरी कोई बात अच्छी ही नहीं लगती । प्रभु की स्तुति भी तो क्या करें ! जो कुछ भी करते हैं वह वास्तवमें स्तुतिकी जगह निन्दा ही होती है। हम उनकी कितनी ही स्तुति करें, बेचारी वाणी में शक्ति ही नहीं जो उनके अल्प गुणोंका भी वर्णन कर सके। उनके अपरिमित गुण – प्रभाव का वर्णन और स्तवन कौन कर सकता है ? भगवान को पधारे बहुत समय हो गया, अब भगवान की पूजा करनी चाहिये। इस प्रकार ध्यान करे कि अब मैं भगवान्की मानसिक पूजा कर रहा हूँ । मैं देख रहा हूँ कि एक चौकी मेरे दाहिनी ओर तथा दूसरी मेरे बायीं ओर रखी है । चौकी का परिमाण लगभग तीन फुट चौड़ा और छः फुट लम्बा है। दाहिनी ओरकी चौकी पर पूजाकी सारी पवित्र सामग्री सजायी रखी है। भगवान् मेरे सामने विराजमान हैं। भगवान् स्नान करके पधारे हैं । वस्त्र धारण कर रखे हैं और यज्ञोपवीत सुशोभित है। अब मैं पाद्य – चरण धोने का जल लेकर भगवान्के श्रीचरणोंको धो रहा हूँ, बायें हाथसे जल डाल रहा हूँ और दाहिने हाथसे चरण धो रहा हूँ तथा मुख से यह मन्त्र बोल रहा हूँ

‘ ॐ पादयोः पाद्यं समर्पयामि नारायणाय नमः ।

फिर उस बर्तनको बायीं ओर चौकीपर रखकर, हाथ धोकर दूसरा चन्दनादि सुगन्धयुक्त गंगाजल से भरा प्याला लेता हूँ और भगवान्को अर्घ्य देता हूँ। भगवान् दोनों हाथों की अंजलि पसारकर अर्घ्य ग्रहण करते हैं । इस समय उन्होंने अपने चार हाथोंके आयुध दो हाथोंमें ले लिये हैं । अर्घ्य अर्पण करते समय मैं मन्त्र बोलता हूँ-

‘ ॐ हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि नारायणाय नमः ।

‘ इस प्रकार भगवान् अर्घ्य ग्रहण करके उस जल को छोड़ देते हैं। फिर मैं उस प्याले को बायीं ओरकी चौकी पर रख देता हूँ तथा हाथ धोकर, आचमनका जल लेकर भगवान को आचमन करवाता हूँ और मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नमः ।

आचमनके अनन्तर भगवान के हाथ धुलाता हूँ और प्यालेको बायीं तरफ चौकी पर रखकर हाथ धोता हूँ । फिर एक कटोरी दाहिनी ओर की चौकी से उठाता हूँ, जिसमें केसर, चन्दनके साथ कुंकुम आदि सुगन्धित द्रव्य घिसा हुआ रखा है। उस कटोरी को मैं बायें हाथमें लेकर दाहिने हाथसे भगवान्के मस्तकपर तिलक करता हूँ और मन्त्र बोलता हूँ

ॐ गन्धं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

उसके बाद उस कटोरीको बायीं ओरकी चौकीपर रख देता हूँ तथा दूसरी कटोरी लेता हूँ, जिसमें छोटे – छोटे आकार के सुन्दर मोती हैं, उन्हें मुक्ताफल कहते हैं । मैं बायें हाथ में मोती की कटोरी लेकर दाहिने हाथसे भगवान के मस्तक पर मोती लगाता हूँ और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ मुक्ताफलं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

इसके पश्चात् सुन्दर सुगन्धित पुष्पों से दोनों अंजलि भरकर भगवान पर चढ़ाता हूँ, पुष्पों के साथ तुलसीदल भी है और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ पत्रं पुष्पं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

यह मन्त्र बोलकर भगवान पर पत्र – पुष्प चढ़ा देता हूँ । इसके अनन्तर एक अत्यन्त सुन्दर सुगन्धपूर्ण बड़ी पुष्पमाला दोनों हाथों में लेकर मुकुट पर से गले में पहनाता हूँ और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ मालां समर्पयामि नारायणाय नमः ।

‘ फिर देखता हूँ कि एक धूपदानी है, जिसमें निर्धूम अग्नि प्रज्वलित हो रही है, मैं एक कटोरी में जो चन्दन , कस्तूरी , केसर आदि नाना प्रकारके सुगन्धित द्रव्यों से मिश्रित धूप रखी है ; उसे अग्नि में डालकर भगवान को धूप देता हूँ और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ धूपमाघ्रापयामि नारायणाय नमः । ‘

इसके पश्चात दाहिनी ओर जो गोघृतका दीपक प्रज्वलित हो रहा है, उसे हाथ में लेकर भगवान को दिखाता हूँ और मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ दीपं दर्शयामि नारायणाय नमः । ‘

इसके पश्चात दीपक को बायीं ओरकी चौकी पर रखकर हाथ धोता हूँ । एक सुन्दर बड़ी थालीमें 56 प्रकार के भोग और 36 प्रकार के व्यंजन परोसकर उसे भगवान के सामने रत्नजटित चौकी पर रख देता हूँ । बड़ी सुन्दर स्वर्ण रत्नजटित मलयागिरि चन्दनसे बनी दो चौकियाँ , जिनकी लंबाई – चौड़ाई दो – ढ़ाई फुट है , देवताओं ने पहले से ही लाकर रखी थीं, उनमें एक चौकी पर सुन्दर और पवित्र आसन बिछा था, जिस पर भगवान् विराजमान हैं और दूसरीपर यह भोग की सामग्री रखी गयी। भोग लगाते समय मैं मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ नैवेद्यं निवेदयामि नारायणाय नमः । ‘

भगवान् बड़े प्रेम से भोजन करते हैं। थोड़ा – सा भोजन कर चुकने पर जब वे भोजन करना बंद कर देते हैं, तब उस प्रसाद वाली थालीको उठाकर बायीं ओर की चौकीपर रख देता हूँ और हाथ जोड़कर पवित्र जल से भगवान के हाथ धुला देता हूँ । तत्पश्चात् भगवान्को शुद्ध जलसे आचमन करवाता हूँ और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ आचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

फिर उस चौकी को धोकर उस पर सुन्दर सुमधुर फल रख देता हूँ, जो तैयार किये हुए हैं और एक सुन्दर पवित्र थाली में रखे हुए हैं। भगवान् उन फलोंका भोग लगाते हैं और मैं मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ ऋतुफलं समर्पयामि नारायणाय नमः। ‘

थोड़े – से फलों का भोग लगाने पर जब भगवान् खाना बंद कर देते हैं, तब मैं बचे थाली को उठाकर बायीं ओर की चौकी पर रख देता हूँ, जो भगवान का प्रसाद है । फिर अपने हाथ धोकर भगवान के हाथ धुलाता हूँ।

इसके पश्चात पवित्र जल से उन्हें पुनः आचमन करवाता हूँ और मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ पुनराचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

आचमन कराकर उस पात्रको बायीं ओर की चौकीपर रख देता हूँ और उस चौकी को धोकर अलग रख देता हूँ । तदनन्तर हाथ धोकर एक थाली उठाता हूँ, जिसमें बढ़िया सोने के वर्क लगे पान रखे हैं, जिनमें सुपारी , इलायची , लौंग तथा अन्य पवित्र सुगन्धित द्रव्य दिये हुए हैं। उस थालीको भगवान के सामने करता हूँ । भगवान् पान लेकर चबाते हैं और मैं यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ पूगीफलं च ताम्बूलमेलालवंगसहितं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

इसके बाद उस पान की थालीको बायीं ओर की चौकीपर रख देता हूँ। फिर पवित्र जल से अपने हाथ धोकर और भगवान के हाथों को धुलाकर मुख – शुद्धिके लिये उन्हें पुनः आचमन करवाता हूँ और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ पुनर्मुखशुद्ध्यर्थमाचमनीयं समर्पयामि नारायणाय नमः । ‘

आचमन कराकर फिर भगवान्के हाथ धुला देता हूँ और उस जलपात्र को बायीं ओर की चौकी पर रख देता हूँ । इस प्रकार से पूजा करके भगवान को दक्षिणा देता हूँ । कुबेर ने पहले से ही अपने भंडारसे अमूल्य रत्न लाकर रखे हैं , वे अर्पण करता हूँ । भगवान की वस्तु भगवान को वैसे ही देता हूँ , जैसे सेवक अपने स्वामीको देता है और यह मन्त्र बोलता हूँ

‘ ॐ दक्षिणाद्रव्यं समर्पयामि नारायणाय नमः ।

भगवान को दक्षिणा अर्पण करके मैं अपने आपको भी उनके श्रीचरणों में अर्पण कर देता हूँ। अब भगवान की आरती उतारता हूँ । एक थाली लेता हूँ , उसके बीच में कटोरी है , उसमें कपूर प्रकाशित हो रहा है , उसके चारों ओर मांगलिक द्रव्य , तुलसीदल , पुष्प , नारियल , दही , दूर्वा आदि सब सजाये हुए हैं । मैं दोनों हाथों पर थाली रखकर भगवान की आरती उतार रहा हूँ । आरती उतारकर आरती की थालीको बायीं ओरकी चौकी पर रख देता हूँ । फिर हाथ धोकर भगवान को पुष्पांजलि अर्पण करता हूँ । पुष्पांजलि देकर मैं खड़ा हो जाता हूँ और भगवान भी खड़े हो जाते हैं । फिर मैं भगवान् के चारों ओर चार परिक्रमा करता हूँ और साष्टांग प्रणाम करता हूँ । प्रणाम करके भगवान की स्तुति गाता हूँ—-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः

स्तवैर्वेदैः सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो

यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥

इस प्रकार भगवान की स्तुति करने के बाद सबको आरती देकर भगवान का प्रसाद उपस्थित भाइयोंको बाँटा जाता है । पहले तो सबके हाथ धुलाकर इकट्ठा किया हुआ चरणामृत बाँटा जाता है । फिर एक – दूसरे भाई सबके हाथ धुलाते हैं । तदनन्तर तीसरे भाई भगवान का प्रसाद दे रहे हैं और चौथे भाई पुनः सबके हाथ धुलाकर आचमन कराते हैं । इस प्रकार सब लोग आचमन करके प्रसाद पाते हैं और फिर हाथ धोकर खडे हो भगवान के दिव्य स्तोत्रों का पाठ कर रहे हैं , दिव्य स्तुति गा रहे हैं और भगवान की परिक्रमा कर रहे हैं । परिक्रमा करते हुए भगवान के दिव्य गुणोंका कीर्तन कर रहे हैं । भगवान् मुग्ध हो रहे हैं और हमलोग भी मुग्ध हो रहे हैं । इस प्रकार से सब मिलकर भगवान के नाम का कीर्तन कर रहे हैं

‘ श्रीमन्नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण । ‘

भगवान के ये मानसिक दर्शन अमृत के समान मधुर और प्रिय हैं, उनका स्पर्श भी अमृत के समान अत्यन्त प्रिय है, उनकी सुकोमल मधुर वाणी कानों के लिये अमृत के समान है, उनकी मधुर अंग – गन्ध भी अमृत के समान है और भगवान के प्रसादकी तो बात ही क्या है ? वह तो अपूर्व अमृतके तुल्य है । यों भगवान के दर्शन , भाषण , स्पर्श , वार्तालाप , चिन्तन , गन्ध सभी अमृत के तुल्य हैं , सभी रसमय , आनन्दमय और प्रेममय हैं । भगवान की श्रीमूर्ति बड़ी मधुर है , इसीलिये उसे माधुर्यमूर्ति कहते हैं। उनके दर्शन बड़े ही मधुर हैं । इस प्रकार भगवान का ध्यान करता हुआ साधक भगवान के प्रेमानन्द में विभोर होकर कहता है – ध्यानावस्था में ही जब इतना बड़ा भारी आनन्द है , तब जिस समय आपके साक्षात् दर्शन होते हैं, उस समय तो न मालूम कितना महान् आनन्द और अपार शान्ति मिलती है । जिनको आपके साक्षात् दर्शन होते हैं, वे पुरुष सर्वथा धन्य हैं। जिनको आपके दर्शन होते हैं, श्रद्धा होने पर उनके दर्शन से ही पापोंका नाश हो जाता है , तब फिर आपके दर्शनों की तो बात ही क्या है ? आप साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं ।

आप परम धाम हैं , परम पवित्र हैं । आप साक्षात् अविनाशी पुरुष हैं । आप इस संसारकी उत्पत्ति, स्थिति, पालन करने वाले हैं। आपके समान कोई भी नहीं है, आपके समान आप ही हैं । मैं आपकी महिमा का गान कहाँ तक करूँ ? क्षमा , दया , प्रेम , शान्ति , सरलता , समता , संतोष , ज्ञान , वैराग्य आदि गुणों के आप सागर हैं। आपके गुणों के सागर की एक बूंद के आभास का प्रभाव सारी दुनिया में व्याप्त है। सारे देवताओंमें , मनुष्यों में सबके गुण , प्रभाव , शक्ति आदि जो कुछ भी देखने में आते हैं, वे सब मिलकर आप गुणसागरकी एक बूँद का आभास मात्र है। आपके रूप लावण्य का कौन वर्णन कर सकता है ? आपका स्वरूप चिन्मय है , आपके दर्शन अलौकिक हैं । आपके दर्शन से मनुष्य इतना मुग्ध हो जाता है कि उसे अपने – आपका होश नहीं रहता , केवल मात्र आपका ही ज्ञान रहता है । आपका अपरिमित प्रभाव है।

मानसिक पूजा का होता है चमत्कारिक प्रभाव

 

भगवान शिव की मानसिक पूजा, भौतिक पूजा के साथ मानसिक पूजा भी

माता दुर्गा की मानसिक पूजा देती है अतुल्य पुण्य, मिटते हैं क्लेश

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