धर्म शास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त श्राद्ध या तर्पण आदि जो कुछ किया जाता है, वह उन्हें प्राप्त होता है। इससे उन्हें सुख की प्राप्ति होती है, जो पितर योनि में जाते हैं। उन्हें उनके अनुकूल खाद्य पदार्थ व उत्तम वस्तुएं प्राप्त होती हैं। इस पर पितर आर्शीवाद देते हैं। यह बात समझ लें कि आत्मा के कतर्ृत्व और भोक्तृत्व दोनों नहीं हैं।
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आत्मा न कुछ करता है, न कुछ भोगता है। वह केवल द्रष्टामात्र है। माया से संश्लिष्ट जीवात्मा ही दूसरे शरीर को प्राप्त करती है और अन्यान्य योनियों में भी जाती है। इसके साथ ही वह स्वर्ग व नर्क का भोक्ता होता है। श्राद्ध तर्पण आदि से किसी भी रूप में इन्हें किसी भी रूप से सुख की प्राप्ति होती है। यदि जीवात्मा मुक्त हो जाती है तो उनके निमित्त किए गए श्राद्ध-तर्पण आदि के पुण्य उसके कर्ता को ही प्राप्त होते हैं।
एक विश्ोष बात और इस सम्बन्ध में बताता हूं कि गया में श्राद्ध-तर्पण करने के बाद भी नियमित तर्पण व श्राद्ध करते रहना चाहिए। बदरीनारायण में ब्रह्मकपाली श्राद्ध करने के बाद श्राद्ध में पिंडदान करने का निष्ोध है। सांकल्पिक श्राद्ध करने का निष्ोध नहीं है। तर्पण भी कभी बंद नहीं किया जाना चाहिए।
जानिए, श्राद्ध का रहस्य
एक साल में 365 दिनों में 15 दिन ऐसे होते हैं, जब मृतात्माओं के लिए सवेरा होता है, अर्थात उनके लिए दिन होता है। ये ही 15 दिन पितृपक्ष के दिन कहलाते हैं।
खास पहलू यह है कि इन्हीं महत्वपूर्ण दिनों में मृतात्माओं के नाम पर श्रद्धा पूर्वक दिया गया अन्न-जल,वस्त्र ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह सूक्ष्म रूप से उन्हें प्राप्त हो जाता है और पितृ लोग संतुष्ट होकर पूरे वर्ष आर्शीवाद देते हैं।
‘देश काल च पात्रे च
श्रद्धया विधिना च यत्।
पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो
दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्।।
देश काल और पात्र में श्रद्धा से जो भोजन पितरों के उद्देश्य से ब्राह्मण को दिया जाता है, श्राद्ध कहलाता है।
भारतीय दर्शन में श्राद्ध का बहुत महत्व है। चाहे वह वैज्ञानिक दृष्टि से हो या हो आध्यात्मिक दृष्टि से। देखा जाय तो ‘अपने मृत बंधुओं के प्रति श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म, जो हमें शांति देता है और परलोकगत आत्मा को भी शांति देता है, वह है श्राद्ध।
श्राद्ध कर्म आदि काल से हिन्दू धर्म संस्कृति का मुख्य भाग रहा है। इस पर थोड़ा विचार करना जरूरी है।
गीता में वर्णन
आत्मा अजर-अमर है। आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गीता में वर्णन किया हैं। आत्मा जबतक अपने परमात्मा से संयोग नहीं कर लेती हैं, तब तक विभिन्न योनियों भटकती रहती है और इस दौरान उसे श्राद्धकर्म से संतुष्टि मिलती है। श्राद्ध की बड़ी महिमा बताई गयी है, परन्तु सूक्ष्म अध्ययन करें तो श्राद्ध श्रद्धा का दूसरा नाम है, जिसमें पितरों केे प्रति भक्ति और कृतज्ञता का समावेश होता है और हम उनके प्रति अपने भाव अभिव्यक्त करते हैं।
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श्राद्ध कर्म के विषय में हमारे ऋषि-मुनि कहते हैं कि जैसे यज्ञ के माध्यम से देवताओं को उनका भाग और शक्ति प्राप्त होती है, उसी प्रकार श्राद्ध और तर्पण से पितृलोक में बैठे पितरों को उनका अंश प्राप्त होता है।
हिन्दू-पंचांग में पितरों के श्राद्धकर्म के लिए विशेष समय निर्धारित किया गया है जिसे पितृपक्ष कहते हैं, यह पितरों का दिन होता है।
यह पक्ष आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक रहता है, जिसमें जीव अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है।
हमारे धर्म शास्त्र में पितरों की भी कई श्रेणियां बतायी गईं हैं। जिस तिथि में व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि के दिन मृत व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर पितृलोक से उस दिन लौट आता है, जहां पर उसकी मृत्यु हुई थी।
अगर उसका उस तिथि पर श्राद्ध नहीं होता है, तो वह भूखा-प्यासा दुखी होकर लौट जाता है और जीवित पुत्र-पौत्रों को श्राप देता है।
इससे उस घर पर पितृदोष लग जाता है। घर की सुख-शान्ति चली जाती है। इनके श्राप से कुल का वंश आगे नहीं बढ़ पाता है अर्थात वह व्यक्ति पुत्रहीन हो जाता है और मरने पर उसे भी अन्न-जल की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए हमें पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म आवश्य करना चाहिए, इससे पितर संतुष्ट होते है और व्यक्ति को भूलोक में सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है। वैसे हमारे ऋषि-मुनियों ने ठीक ही कहा है, इसके माध्यम से हम उन्हें यानी अपने पूर्वजों को उनका भाग देते हैं, जैसे देवताओं को प्रदान किया जाता है। इसका उल्लेख हमने इसी लेख में पूर्व में किया है। श्राद्ध कर्म का प्रभाव हमे जीवन में अक्सर दृष्टिगोचर भी होता है, जब हमारे लाख प्रयासों के बाद भी मनोवांछित फल प्राप्त होते हैं, इसके तमाम कारण होते है, लेकिन एक कारण पितृदोष भी होता है।