जाने, योग क्या है, क्यों करें आप योग और किस लिए करते हैं योग । योग क्या है, यह जानने पहले हमे यह जान लेना चाहिए कि योग हमे क्यों करना चाहिए। वैदिक काल से योग के बल पर ऋषि-मुनि लम्बे समय तक तप करते थ्ो और अपने तप बल को बढ़ाते थ्ो। तप बल क्यों बढ़ाते थ्ो, यह आपको आगे लेख में स्पष्ट हो जाएगा। अब आते है, मूल विषय पर । स्व यानी आत्मा और सर्वेश्वर यानी ईश्वर होता है। आत्मा का उद्भूत परमात्मा यानी ईश्वर से हुआ है। परमात्मा की मूल प्रकृति आनंद है, यानी सीध्ो शब्दों में समझें तो परमात्मा का स्वभाव ही आनंद है। हम यानी आत्मा उसी परमात्मा का अंश मात्र हैं, इसलिए प्रत्येक जीव को आत्म कल्याण यानी परमात्मा को पाने के लिए आनंद में लीन होने का प्रयास करना चाहिए, अर्थात आत्मा के भीतर के उसी आनंद यानी ईश्वर तत्व या ईश्वरीय बीज को खोजना होता है। आनंद कभी हमंे बाहरी भौतिक संसाधन से नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि आनंद का सम्बन्ध आत्मा से होता है। यह आनंद हमारी आत्मा में स्थिर रहता हैं। अनंत आनंद या आनंद हमे मात्र बुद्धिमानी, ध्यान और दैवीय कृपा से ही प्राप्त हो सकता है।
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यह आनंद उसी व्यक्ति को प्राप्त हो सकता है, जो सच्चे मन, वचन, भाव और कर्म से उसे यानी ईश्वर को खोजने का प्रयास करता हैं, तब उसी को ईश्वर की अनुकम्पा को अनुभूति भी होती है, श्ोष की स्थिति वहीं होती है, जैसे सूर्य के बादलों के छिप जाने के बाद होती है, अर्थात सूर्य का नजर नहीं आता है। उसी प्रकार जीव अज्ञान में डूबा रहता है, उसे सूर्य के प्रकाशवान होने का भान तक नहीं होता है, तो वह ईश्वर की अनुकम्पा कैसे महसूस कर सकता है? एक जरूरी बात यह है कि ईश्वर की खोज में संशय का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। चूंकि हम यानी आत्मा पर माया का प्रभाव छाया रहता है, तब तक ईश्वर की अनुकम्पा को महसूस नहीं कर पाते हैं। वास्तव में देखा जाए तो ईश्वर की अनुकम्पा की अनुभूति का सम्बन्ध आत्म तत्व जागृत होने से होता है और आत्म तत्व तब ही जागृत होता है, जब उस ईश्वर यानी परमात्मा पर पूर्ण विश्वास का भाव होता है, जब पूर्ण विश्वास होता है, तो माया के प्रभाव से जीव मुक्त होने लगता है।
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उसी परमात्मा को पाने के लिए हमे इंद्रियों को साधना पड़ता है, इन इंद्रियों को साधने का पथ योग के माध्यम से होकर गुजरता है। यानी योग के माध्यम से इंद्रियों को वश में कर माया के प्रभाव को कम करते हैं और उस परमसत्ता यानी ईश्वर के नजदीक पहुंचते हैं। योग के चार मार्ग हमको इस लक्ष्य की ओर ले जाते हैं-
1- कर्मयोग
यह कर्म का पथ है, इसकी व्याख्या भगवान श्री कृष्ण ने गीता में विस्तार से की है। इसका सीधा सम्बन्ध कारक (कारण) और प्रभाव के नियम से होता है। मनुष्य के शरीर, मन और चेतना पर हर कर्म अर्थात क्रिया के समान प्रतिकर्म यानी प्रति क्रिया का होना अनिवार्य होता है। यह सनातन सत्य है और यह होता ही है। एक कर्म का फल, परिणाम उसके नैतिक मूल्य पर निर्भर है और उस अन्तरभाव से सम्बद्ध है जिस भाव से यह किया गया था, अर्थात जिस भाव को लेकर कर्म किया जाए, उसी के अनुरूप फल प्राप्त होता है, इसलिए कर्म में भाव की प्रधानता होती है।
2- भक्तियोग
यह ईश्वर की भक्ति व प्रेम का मार्ग है। इससे समभाव की दृष्टि जीव को प्राप्त होती है, अर्थात इसमें संपूर्ण सृष्टि के लिए यही भाव बना रहता है। सृष्टि में मानव, पशु-पक्षी और संपूर्ण प्रकृति शामिल होते हैं। उसे भक्ति योग के माध्यम से समदृष्टि प्राप्त होती है। संसार में अपने-पराए का भाव समाप्त हो जाता है, प्रत्येक जीवात्मा में उसी परमात्मा का अंश नजर आने लगता है।
3- राजयोग
यह ’’योग का राज मार्ग’’ अथवा ’’अष्टांग योग पथ’’ मार्ग है। इसमें अन्य बातों के अतिरिक्त वे योग विधियां भी हैं, जिसमें आसन, प्राणायाम, ध्यान और क्रियाएं होती हैं। सीध्ो शब्दों में कहें तो इसमें शरीरिक क्रियाओं माध्यम से हम अंतर्मन के प्रवेश कर परमात्मा को प्राप्त करते हैं। अंतर्मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया है।
4- ज्ञानयोग
जैसा की नाम से विदित हो रहा है, यह ज्ञान पथ है। ज्ञान अर्थात उस परमात्मा का ज्ञान। जीवात्मा और परमात्मा को समझना, यह दार्शनिकता का मार्ग है। इस पथ का केन्द्र बिन्दु वास्तविकता और अवास्तविकता (माया) के मध्य अन्तर को पाने की योग्यता प्राप्त करना है। अध्ययन, अभ्यास और अनुभव से आत्मज्ञान प्राप्त करना परम उद्देश्य है, ज्ञान के माध्यम से आत्म तत्व को समझना। परमात्मा को समझना और उसे पाना या पाने का प्रयास करना।
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सतही तौर पर जब हम देख्ोंगे तो यह चार मार्ग दिख्ोंगे, लेकिन ये चार योग मार्ग अगल-अलग मार्ग नहीं हैं, बल्कि प्रत्येक मार्ग एक-दूसरे से अति निकट रूप में संबद्ध हैं यानी जुड़े हुए हैं। जब हम ईश्वर का विचार करते हैं या उनमें लीन होते हैं तो हम अपने साथी मानवीय एवं प्रकृति के प्रति प्रेम से परिपूर्ण होते हैं, तब हम भक्तियोगी होते हैं। जब हम अन्य लोगों के निकट होकर उनकी सहायता करते हैं तब हम कर्मयोगी होते हैं। जब हम ध्यान और योगाभ्यास करते हैं तब राजयोगी होते हैं और जब हम जीवन का अर्थ समझते हैं और सत्य एवं वास्तविकता की खोज के राही होते हैं, तब हम ज्ञानयोगी होते हैं। सीध्ो-सीध्ो यह चारों की पथ योग साधना के अंग होते हैं, इन पर चल ही जीव को परमात्मा की प्राप्ति होती है। जिसे हम योग के नाम से जानते हैं, यह वही राज योग हैं, यानी तीसरा पथ, जिसका जिक्र हमने इस लेख में पहले किया है, इस पथ को अष्टांग योग के नाम से भी जाना जाता है। अष्टांग योग महर्षि पतंजलि के अनुसार चित्तवृत्ति के निरोध का नाम ही योग साधना है अर्थात योग है।
योगश्चितवृत्तिनिरोध:।।
योग साधना के पथ पर चलने के लिए हमे आठ अंगों की सिद्धि करनी पड़ती है। योग की स्थिति और सिद्धि के लिए कुछ उपाय आवश्यक होते हैं, जिन्हें हम अंग कहते हैं और जो संख्या में आठ माने गए हैं। अष्टांग योग के तहत पहले पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है। यानी बहिरंग के पथ पथ पर आगे बढ़ने के बाद ही आप अंतरंग के लिए पात्रता प्राप्त करते हैं। ‘यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं।
यम का अर्थ है संयम, जो पांच तरह का माना जाता है।
1- अहिंसा- मन, वचन व कर्म से किसी को हानि न पहुंचाना।
2- सत्य- परमसत्ता में स्थिर रहना और मन-वचन में समरूपता । ऐसा नहीं कि विचारें कुछ और व्यक्त करें कुछ और।
3- अस्तेय यानी चोरी न करना अर्थात दूसरे के धन के लिए स्पृहा न रखना
4- ब्रह्मचर्य- इसका आशय है कि आत्मा को ब्रह्म में स्थिर करना और इंद्रिय सुखों में संयम बरतना।
5-अपरिग्रह- आवश्यकता के से कुछ भी अधिक संचय न करना।
इसी तरह से नियम पांच तरह के होते हैं।
1- शौच- शरीर व मन की शुद्धि करना ही शौच है।
2- संतोष- जो है उसमें संतुष्ट और आनंदित रहना। दूसरे को देखकर व्यथित न होना।
3- तप- स्वयं पर संयम और अनुशासन कायम करना।
4- स्वाध्याय अर्थात मोक्ष शास्त्र का अनुशलीन या प्रणव का जप।
5- ईश्वर प्रणिधान अर्थात परमात्मा में भक्तिपूर्वक सब कर्मों का समर्पण करना।
आसन का आशय हुआ कि स्वयं को स्थिर करने व सुख देने वाले बैठने का तरीका, जो कि देह की स्थिरता की साधना है। इससे देह स्थिर होने लगती है।
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आसन जप होने पर श्वास प्रश्वास की गति के विच्छेद का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का लेना श्वास और भीतरी वायु का बाहर निकालना ही प्रश्वास कहलाता है। प्राणायाम प्राणस्थैर्य की साधना है। इसके अभ्यास से प्राण में स्थिरता आती है और साधक अपने मन की स्थिरता के लिए अग्रसर होता है। अंतिम तीनों अंग मन:स्थैर्य का साधना है। प्राणस्थैर्य और मन:स्थैर्य की मध्यवर्ती साधना का नाम ‘प्रत्याहार’ है। प्राणायाम द्बारा प्राण के अपेक्षाकृत शांत होने पर मन का बहिर्मुख भाव स्वभावत: कम हो जाता है। फल यह होता है कि इंद्रियां अपने बाहरी विषयों से हटकर अंतर्मुखी हो जाती है। इसी का नाम प्रत्याहार है (प्रति=प्रतिकूल, आहार=वृत्ति)।
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अब मन की बहिर्मुखी गति निरुद्ध यानी बाधित हो जाती है और साधक अंतर्मुख होकर स्थिर होने की चेष्टा करता है। इसी चेष्टा की आरंभिक दशा का नाम धारणा होती है। देह के किसी अंग पर (जैसे हृदय में, नासिका के अग्रभाग पर) या फिर बाह्यपदार्थ पर (जैसे इष्टदेवता की मूर्ति आदि पर) चित्त को लगाना ‘धारणा’ कहलाता है।
देशबन्धश्चितस्य धारणा; योगसूत्र 3.1।
ध्यान इसके आगे की दशा है। जब उस देश विशेष में ध्येय वस्तु का ज्ञान एकाकार रूप से प्रवाहित होता है, तब उसे ‘ध्यान’ कहते हैं। धारणा और ध्यान दोनों दशाओं में वृत्ति प्रवाह विद्यमान रहता है, लेकिन अंतर यह है कि धारणा में एक वृत्ति से विरुद्ध वृत्ति का भी उदय होता है, लेकिन ध्यान में सदृश वृत्ति का ही प्रवाह रहता है, विसदृश का नहीं। यह भ्ोद समझना बेहद जरूरी होता है। साधक के लिए यह भ्ोद समझकर ही साधना करना श्रेयस्कर होता है।
ध्यान की परिपक्वावस्था का नाम ही समाधि है। चित्त आलंबन के आकार में प्रतिभासित होता है, अपना स्वरूप शून्यवत् हो जाता है और एकमात्र आलंबन ही प्रकाशित होता है। यही समाधि की दशा कहलाती है। अंतिम तीनों अंगों का सामूहिक नाम ‘संयम’ है, जिसके- जिसके जीतने का फल है, विवेक ख्याति का आलोक या प्रकाश। समाधि के बाद प्रज्ञा का उदय होता है और यही योग का अंतिम लक्ष्य है। इसी लक्ष्य को लेकर योगी व ऋषि-मुनि साधना में लीन रहे है। अपने तप बल को बढ़ाते रहे है। जिसका जिक्र हमने लेख के शुरुआत में किया था। तप बल बढ़ जाता है, तो आत्मा का परमात्मा में एकाकार हो जाता है। भिन्नता का भाव भी स्वत: ही समाप्त हो जाता है। योग वास्तव में साधना पथ है।
योग के प्रमाणिक ग्रंथ पतंजलि योग में योग के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है, योेग के सूत्रधार महर्षि पतंजलि ने योग का ज्ञान जगत कल्याण की भावना से संकलित किया है। ऐसे महान महर्षि ने अपने ग्रंथ में कहा है कि
योगश्च चित्तवृत्ति निरोध:
मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है
वहीं भगवान विष्णु के अवतार भगवान श्री कृष्ण ने गीता में योग पर विश्ोष प्रकाश डाला है, जिसकी तुलना अन्यत्र नहीं मिलती है। भगवान श्री कृष्ण ने योग के विभिन्न आयामों को सहज भाव से स्पष्ट किया है।
योग: कर्मसु कौशलम:
कर्मों में कौशल या दक्षता ही योग है।