जलतत्त्वलिंग – जंबुकेश्वर
दक्षिण भारत में जो पंचतत्त्वलिंग माने जाते हैं, उनमें जंबुकेश्वर आपोलिंगम् ( जलतत्त्वलिंग )( jaltatvling jumbukeshvar ) माना जाता है। पंचतत्त्व लिंगों में जंबुकेश्वर आपोलिंगम् ( जलतत्त्वलिंग ) महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह मंदिर श्रीरंगम् स्टेशन के समीप ही है। श्रीरंगम् मंदिर से यह लगभग डेढ़ किलोमीटर पूर्व में है। यह मंदिर श्रीरंगम् मंदिर से भी प्राचीन है| वायु मार्ग से निकट का हवाई अड्डा चेन्नई है, जहां से इसकी दूरी 316 किलोमीटर है। चेन्नई – धनुष्कोटि लाइन पर तिरुचिरापल्ली, जहां से इरोड हेतु एक लाइन जाती है। तिरुचिरापल्ली से यह 13 किलोमीटर दूर है और श्रीरंगम् स्टेशन से मात्र 1.5 किलोमीटर दूर है।
जंबुकेश्वर आपोलिंगम् ( जलतत्त्वलिंग )( jaltatvling jumbukeshvar ) की कथा
यहां पहले आसपास जामुन के वृक्ष ही थे, जहां एक ऋषि भगवान शंकर की आराधना करते थे। जंबूवन में निवास करने के कारण उनका नाम जंबू ऋषि पड़ गया था। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिया और उनकी प्रार्थना पर यहां लिंगविग्रह के रूप में नित्य उपस्थित हुए। जामुन के वृक्षों के पत्ते अकसर शिवलिंग पर गिरा करते थे। इनसे उसे बचाने के लिए एक मकड़ी मूर्ति के ऊपर प्रतिदिन जाला बना देती थी। एक हाथी सूंड में जल लाकर मूर्ति का अभिषेक करता था। भगवान की मूति पर मकड़ी का जाला देखकर हाथी को बुरा लगता आदि था। उधर मकड़ी को भी बुरा लगता था कि हाथी पानी डालकर बार – बार उसका जाला तोड़ देता है। इस प्रकार दोनों में प्रतिस्पर्धा हो गई। हाथी ने एक दिन मकड़ी को मार डालने के लिए सूंड बढ़ाई, तो मकड़ी हाथी की सूंड में चली गई। फल यह हुआ कि हाथी और मकड़ी दोनों मर गए। दोनों के भाव शुद्ध थे। भगवान शंकर ने दोनों को अपने निज जन के रूप में स्वीकार किया। श्रीजंबुकेश्वर मंदिर के सामने मंडप में एक स्तंभ पर इस कथा के चित्र अंकित हैं। जंबुकेश्वर मंदिर तथा जगदंबा मंदिर में कई शिलालेख तमिल भाषा में हैं। उनमें से एक में यह कथा उत्कीर्ण है।
जंबुकेश्वर आपोलिंगम् ( जलतत्त्वलिंग ) के दर्शनीय विवरण
जंबुकेश्वर – मंदिर का विस्तार क्षेत्र सौ बीघे से भी अधिक है। इसमें तीन आंगन हैं। पहले घेरे के द्वार से, जिससे मंदिर के पहले प्रांगण में प्रवेश करना होता है, मार्ग सीधे एक मंडप में जाता है, जिसमें 400 स्तंभ हैं। आंगन में दाहिनी ओर तेप्पाकुलम् ‘ नाम का सरोवर है। इसमें झरने का पानी आता है। सरोवर के मध्य में एक मंडप है। वर्ष में एक बार श्रीरंग मंदिर से श्रीरंग की उत्सव मूर्ति यहां लाई जाती है। आंगन के बाएं भाग में एक बड़ा मंडप है। उसके आगे मंदिर के दूसरे आंगन में सहस्र स्तंभ मंडप है और उसके पास एक छोटा सरोवर है। श्रीजंबुकेश्वर मंदिर 5 वें घेरे में है। यहां श्रीजंबुकेश्वरलिंग एक जलप्रवाह के ऊपर स्थापित है। लिंगमूर्ति के नीचे से बराबर जल ऊपर आता रहता है। निजमंदिर में जल भरा रहता है और अनेक बार उससे वाहर तक भी जल भर जाता है। जल निकलने के लिए मार्ग बना है, जिससे मंदिर में भरा जल बाहर निकाला जाता है। जल के ऊपर मूर्ति के ऊपरी भाग के दर्शन होते हैं। जंबुकेश्वर मंदिर के पीछे एक चबूतरे पर जामुन तथा शिवलिंग का नाम जंबुकेश्वर पड़ा। कहते हैं, आदिशंकराचार्य ने जंबुकेश्वर का पूजन – आराधन किया था। यहां शंकराचार्य की मूर्ति भी है। इस मंदिर में अनेक मंडप हैं। उनमें मुख्य हैं। मूलन मंडप, शतस्तंभ मंडप, सहस्रस्तंभ मंडप, नवरात्रि मंडप, वसंत मंडप, ध्वजस्तंभ मंडप, सोमास्कंद मंडप| नटराज मंडप और त्रिमूर्ति मंडप। इनमें सोमास्कंद मंडप की शिल्पकला भव्य है। कहा जाता है, यह मंडप भगवान श्रीराम का वनवाया हुआ है।
जलतत्त्वलिंग के आसपास के अन्य दर्शनीय स्थल
- श्री जगदंबा मंदिर : जंबुकेश्वर मंदिर के प्रांगण में बाईं ओर एक फाटक है। उसमें से भीतर जाने पर भगवती जगदंबा का मंदिर मिलता है। यहां अंबा को अखिलांडेश्वरी कहते हैं। यह मंदिर विशाल है। इसका आंगन विस्तृत है। इस आंगन में भी कई मंडप हैं। श्रीजगदंबा के निजमंदिर के ठीक सामने गणेशजी का मंदिर है। इसमें गणेशजी की मूर्ति शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठित है। यह मूर्ति इस ढंग से स्थापित है कि जगदंबा के ठीक सामने पड़ती है। अंबा के निजमंदिर में भगवती की भव्यमूति प्रतिष्ठित है। यह मूर्ति तेजोद्दीप्त है। कहा जाता है कि यह मूर्ति पहले इतनी उग्र थी कि इसका दर्शन करने वाला वहीं प्राण त्याग देता था। आद्य शंकराचार्य जब यहां पधारे, तब उन्होंने जगदम्बा के उग्र तेज को शांत करने के लिए उनके कानों में दो हीरक जटित श्रीयंत्र के कुंडल पहना दिए और सम्मुख गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर दी। सामने अपने पुत्र की मूर्ति होने से जगदंबा का तेज वात्सल्य के कारण सौम्य हो गया
- श्रीनिवास : जैसे श्रीरंगपट्टनम् तथा शिवसमुद्रम् से तीन – चार किलोमीटर की दूरी पर श्रीनिवास मंदिर है, वैसे ही श्रीरंगम् से बीस किलोमीटर के फासले पर कोणेश्वरम् नामक स्थान में श्रीनिवास मंदिर है। यह मंदिर छोटा ही है। यहां श्रीनिवास भगवान की खड़ी चतुर्भुज मूर्ति है।
- समयपुरम् : यह स्थान श्रीरंगम् से छ : किलोमीटर दूर है। यहां तक बसें आती हैं। यहां महामाया ( मारी अम्मान् ) का मंदिर है। मंदिर विशाल है और देवी की मूर्ति प्रभावमयी है। कहा जाता है, यहां देवी मूर्ति की स्थापना महाराज विक्रमादित्य ने की थी। इस तरफ इस मंदिर की बहुत प्रतिष्ठा है।
- ओरेयूर : यह स्थान श्रीरंगम् से पांच किलोमीटर दूर है। यहां श्री लक्ष्मीजी का भव्य मंदिर है।
- तिरुबांविनकुंडि: यह पर्वतीय तीर्थों में, विशेषकर सुब्रह्मण्यम् ( भगवान् कार्तिकेय ) संबंधी तीर्थों में मुख्य है। पुराणों में इसका नाम तिरुबांविनकुंडि भी आता है। यहां श्रीलक्ष्मी देवी, सूर्यदेव, भूदेवी तथा अग्निदेव ने भगवान की आराधना की थी। मंदिर वराहगिरि नामक रम्य पर्वत पर, जो कोडैकनाल पर्वतमाला की एक श्रेणी है, स्थित है। इस पर्वत को मेरुपर्वत का अंश कहा जाता है। देवताओं ने जब विंध्यावरोध के लिए अगस्त्य ऋषि को आग्रहपूर्वक बुलाया था, तब उन्हें आवास के लिए यह पर्वत दे दिया था।
- त्रिमूर्ति माहेश्वर : श्री जगदंबा मंदिर के सामने द्वार के समीप एक स्तंभ में वृषभारूढ़ एकपाद त्रिमूर्ति माहेश्वर की अत्यंत भव्यमूर्ति अंकित है।
- राजराजेश्वर मंदिर : मंदिर की परिक्रमा में एक राजराजेश्वर मंदिर है। उसमें पंचमुखी शिवलिंग प्रतिष्ठित है।
- जामुन प्राचीन वृक्ष : मंदिर के पीछे प्रांगण में एक प्राचीन जामुन का वृक्ष आज भी है और इसी कारण उसका नाम जंबुकेश्वर पड़ा। मंदिर के प्रथम मंडप में आज भी एक हाथी है, जो यात्रीगणों को अपनी सूंड से आशीर्वाद देता है। प्राचीन काल में हाथी के द्वारा मूर्ति का जलाभिषेक होता था।
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