आधुनिकता का दुशाला ओढ़ हम बेलगाम दौड़े जा रहे ,
कल तक जो अनैतिक था, उसे नैतिकता का चोला पहना रहे ,
नहीं देख रहे कि हम क्या खो रहे, क्या पा रहे ?
आगामी पीढ़ियों को हम क्या देना चाह रहे ?
संस्कारों को भूल अपनी जड़ों को ध्वस्त कर रहे, रीति-रिवाजों को एक दायरे में सिमटा रहे, जाने अनजाने हम आगामी पीढ़ियों को स्वयं उनसे विलग कर रहे ,
अपने नैतिक मूल्यों को विसर,
पाश्चात्य को अपना रहे ,
दुःख देख दूसरों का, आंख बंद कर जी रहे एक ओर तन ढकने को वसन नहीं, दूजीओर वसन की कोई कमी नहीं ,
झूठे पत्तलो में ढूंढता रोटी का टुकड़ा कोई ,
कहीं पर अनाज की कोई कमी नहीं,
ये कैसी क्रांति हम अपने विचारों में ला रहे,
हार हम अपने मूल्यों को जीत का जश्न मना रहे ,
ये कैसा दौर है कि आधुनिकता के परिवेश में ,
हम स्वदेश को भुला रहे।
डा• ऋतु नागर
(स्वरचित)
“लगाव”:अंतिम क्षणों में उन्होंने मुझे वह क्रीम स्वेटर सौंपते हुए कहा……