इस पवित्र स्थल की मान्यता शक्तिपीठों में सर्वोपरि मानी जाती है। इनकी महिमा आश्चर्य में डालने वाली है। मान्यता के मुताबिक भगवती सती की जिह्वा श्री हरि के चक्र से कटकर इस स्थान पर गिरी थी और स्वयं भगवान महादेव (शिवजी) भैरव रूप में स्थित है। देवी के दर्शन की अभिलाषा से आए श्रद्धालु व भक्तजन देवी का दर्शन ज्योति (ज्वाला )के रूप में करते हैं। नौ स्थानों पर दिव्य ज्योति बिना किसी ईधन के सदा प्रज्ज्वलित होती है। जिस कारण देवी को ज्वालाजी कहकर पुकारा जाता है। हिमाचल का यह ज्वालाजी शक्तिपीठ धर्मशाला से 56 कि.मी. और कांगड़ा से 34 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
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ज्वाला मंदिर में प्रवेश के लिये मुख्य द्वारतक संगमरमर की सीढिय़ाँ बनायी गयी हैं। इसके बाद ज्वालाजी का दरवाजा है। अंदर एक अहाता है, जिसके बीच में एक मंदिर बना हुआ है। इसके इधर-उधर अनेक दूसरे भवन देवी के धार्मिक कक्ष हैं। ज्वालाओं का कुण्ड मध्य में है। माना जाता है कि सात बहनें सात लपटों के रूप में यहीं पर रहती हैं। ये लपटें पर्वतीय भूमि से निकली हुई हैं और सदा प्रकाशमान तथा प्रज्वलित रहती हैं। यहां पर एक छोटे से कुण्ड में पानी लगातार खौलता रहता है, जो देखने में तो गरम लगता है, किन्तु छूकर देखें तो वह बिल्कुल ठंडा लगता है।
शक्ति की इन ज्योतियों के प्रति ईष्र्यालु होकर बादशाह अकबर ने अपने शासन के समय उन्हें बुझाने की कोशिश की, पर उसकी कोशिशें व्यर्थ गयीं।
विद्वानों का परामर्श मानकर बादशाह अकबर सवा मन सोने का छत्र अपने कंधे पर उठाकर नंगे पांव दिल्ली से ज्वालामुखी पहुंचा। वहां जलती हुई ज्योतियों के सामने सिर नवाकर बादशाह ने सोने का छत्र जैसे ही चढ़ाना चाहा तो वह छत्र सोने का नहीं रहा, वह किसी अनजान धातु में बदल गया। इस चमत्कार से चमत्कृत अकबर ने माता से अपने गुनाहों के लिए क्षमायाचना की और दिल्ली लौट गया।
इस पावन स्थल पर माता सती के शरीर की जिह्वा गिरी थी। यहां की शक्ति सिद्धिदा और भैरव उन्मत्त हैं। मंदिर के अहाते में छोटी नदी के पुल के ऊपर से जाना होता है। मंदिर के भीतर पृथ्वी के भीतर से मशाल जैसी ज्योति निकलती है। शिवपुराण व देवी भागवत महापुराण में इसी देवी को ज्वाला रूप माना है।