द्वापर युग की कथा है, धर्मराजके पास एक राक्षस आया और कहा कि मैं समस्त शास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ और मन्त्रविद्यामें कुशल ब्राह्मण हूँ । ऐसा कहकर वह सर्वदा पाण्डवोंके धनुष और तरकस तथा द्रौपदोको उड़ा ले जानेको ताक में उन्ही के पास रहने लगा। उस दुष्ट का नाम जटासुर था। एक समय भीमसेन वन में गये हुए थे और लोमशादि महर्षिगण स्नान करने चले गये थे।
उस समय जटासुर भयानक रूप धारणकर तीनों पाण्डवों, द्रौपदी और सारे शस्त्रोंको उठाकर ले चला। उनमें से सहदेव किसी तरह पराक्रम करके छूट गये और उस राक्षससे अपनी कौशिकी नामकी तलवार छीनकर जिस ओर भीमसेन गये थे, उस ओर आवाज लगाने लगे। फिर जिन्हें राक्षस हरे लिये जाता था, उन धर्मराज युधिष्ठिर ने उससे कहा कि अरे मूर्ख । इस तरह चोरी करने से तो तेरे धर्म का नाश होता है, तू इसका कुछ भी विचार नहीं करता। अरे ! जिनका अन्न खाया हो और जिन्होंने आश्रय दिया हो, उनसे द्रोह नहीं करना चाहिये। तू वृथा क्यों मरना चाहता है ? अरे राक्षस ! आज तूने इस मानवीका स्पर्श क्या किया है, मानो घड़ों में रखे हुए विष को ही हिलाकर पिया है। ‘ ऐमा कहकर युधिष्ठिर उसके लिये भारी हो गये, उनके भारसे दबकर उसकी गति उतनी तेज नहीं रही। तब धर्मराजने नकुल और द्रौपदीसे कहा कि तुम इस मूढ़ राक्षस से डरो मत, मैंने इसकी गति को कुण्ठित कर दिया है। यहाँ से थोड़ी ही दूरपर महाबाहु भीमसेन होगा। बस, अब वह आता ही होगा, फिर इस राक्षसका कहीं नाम निशान भी नहीं रहेगा। युधिष्ठिर ऐसा कह ही रहे थे कि अकस्मात् गदाधारी भीमसेन आते दिखायी दिये।
उन्होंने देखा कि राक्षस उनके भाइयों और द्रौपदी को लिये जाता है। यह देखकर वे क्रोध से भर गये और उस राक्षससे बोले कि पापी, मैंने तो तुझे पहले ही शस्त्रों की परीक्षा करते समय पहचान लिया था, लेकिन तू हमारे यहाँ ब्राह्मणवेष में रहता था , इसलिये मैं तुझे कैसे मारता ? मालूम होता है आज तेरी मौत आ गयी है, इसी से तुझे ऐसी कुबुद्धि उपजी है। अवश्य अद्भुतकर्मा काल ने ही तुझे कृष्णा को हरण करने की बात सुझायी है। अब तू जहाँ जाना चाहता है, वहाँ नहीं जा सकता है, बल्कि तुझे बक और हिडिम्ब के रास्ते मे जाना होगा। भीमसेन के ऐसा कहनेपर कालकी प्रेरणा से वह राक्षस डर गया और उन सबको छोड़कर वह युद्ध करने के लिये तैयार हो गया। जिस तरह बाली और सुग्रीव का संग्राम हुआ था, उसी तरह इन दोनों का भी वृक्ष युद्ध होने लगा, जिससे वहाँ के अनेकों वृक्ष उजड़ गये। उन्होंने वन के समान वेगवाली शिलाओं से लड़ना शुरू किया, अन्त में वे एक – दूसरेपर घूसों की वर्षा करने लगे। भीमसेनने जटासुरको गर्दन पर बड़े वेगसे मुक्का मारा। उससे यह राक्षस बहुत ढीला पड़ गया। उसे थका हुआ देख भीमसेनने पृथ्वी पर दे मारा और उसके सारे अंग चूर चूर कर दिये। फिर कोहनीकी चोट मे उसका सिर धड़से अलग कर दिया। इस तरह परनारीके प्रति आसक्ति उसकी मृत्युका कारण बनी ।