भगवान के श्रीविग्रह को लेकर धर्म शास्त्रों में उल्लेख मिलता है, भगवान का हर युग में अलग-अलग विग्रह होता है, अलग-अलग तरह से पूजन होता है। इनका शास्त्रों में उल्लेख जगह-जगह किया गया है। किस युग में ईश्वर को किस रूप में पूजा जाता है, उसका विग्रह क्या होता है? उनका रंग-रूप क्या होता है? और किस तरह से उनकी पूजा की प्रधानता होती है? और फल प्राप्ति होती है। इसे समझने के लिए हम एक पौराणिक प्रसंग का उल्लेख करते हैं, जिससे पढ़ने से निश्चित रूप से इस मामले में जानकारी बढ़ेंगी। युगों में भगवान के रंग रूप के भेद और पूजन पद्धति के भेद को समझना साधन के लिए जरूरी होता है।
शास्त्रों में वर्णित प्राचीन प्रसंग के अनुसार एक समय की राजा निमि ने पूछा कि हे योगीश्वरों! आप लोग कृपा करके यह बतलाइये कि भगवान किस समय किस रंग का, कौन-सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य किन नामों और विधियों से उनकी उपासना करते हैं? इस पर अब नवें योगीश्वर करभाजन जी ने कहा कि हे राजन! सृष्टि में चार युग होते हैं, यह होते हैं- सत्य, त्रेता, द्बापर और कलियुग। इन युगों में भगवान के अनेकों रंग, नाम और आकृतियां होती हैं और विभिन्न विधियों से उनकी पूजा की जाती है।
सत्ययुग में भगवान के स्वरूप का विग्रह
उन्होंने कहा कि सत्ययुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है श्वेत। उनकी चार भुजाएं और सिर पर जटा होती है और वे वल्कल का ही वस्त्र पहनते हैं। काले मृग का चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते हैं। सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त, परस्पर वैररहित, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। वे लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्बारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं। वे लोग हंस, सुपर्ण, वैकुण्ठ, धर्म, योगेश्वर, अमल, ईश्वर, पुरुष, अव्यक्त और परमात्मा आदि नामों के द्बारा भगवान के गुण, लीला आदि का गान करते हैं।
त्रेतायुग में भगवान के स्वरूप का विग्रह
उन्होंने कहा कि हे राजन! त्रेतायुग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएं होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं। उनके केश सुनहले होते हैं और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्रुक स्रुवा आदि यज्ञ-पात्रों को धारण किया करते हैं। उस युग के मनुष्य अपने धर्म में बड़ी निष्ठा रखने वाले और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े प्रवीण होते हैं। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदरूप वेदत्रयी के द्बारा सर्वदेवस्वरूप देवाधिदेव भगवान श्रीहरि की आराधना करते हैं। त्रेतायुग में अधिकांश लोग विष्णु, यज्ञ, पृष्निगर्भ, सर्वदेव, उरुक्रम, वृषाकपि, जयन्त और उरुगाय आदि नामों से उनके गुण और लीला आदि का कीर्तन करते हैं।
द्वापर युग में भगवान के स्वरूप का विग्रह
उन्होंने आगे कहा कि हे राजन! द्बापर युग में भगवान के श्रीविग्रह का रंग सांवला होता है। वे पीताम्बर और शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स का चिह्न्, भृगुलता, कौस्तुभ मणि आदि लक्षणों से वे पहचाने जाते हैं। उन्होंने इस विषय में विस्तार से बताते हुए आगे कहा कि हे राजन! उस समय जिज्ञासु मनुष्य महाराजों के चिह्न् , छत्र, चंवर आदि से युक्त परमपुरुष भगवान की वैदिक और तांत्रिक विधि से आराधना करते हैं। वे लोग इस प्रकार भगवान की स्तुति करते हैं- ‘हे ज्ञानस्वरूप भगवान वासुदेव और क्रिया शक्तिरूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवान प्रद्युम्न और अनिरुद्ध के रूप में हम आपको नमस्कार करते हैं। ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्वरूप और सर्वभूतात्मा भगवान को हम नमस्कार करते हैं। हे राजन! द्बापर युग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान स्तुति करते हैं।
कलयुग में भगवान के स्वरूप का विग्रह
कलियुग में अनेक तन्त्रों के विधि-विधान से भगवान की जैसी पूजा की जाती है, उसका वर्णन सुनो- वह इस प्रकार है- कलियुग में भगवान का श्रीविग्रह कृष्ण-वर्ण होता है अर्थात काले रंग का। जैसे नीलम मणि में से उज्ज्वल कान्तिधारा निकलती रहती है, वैसे ही उनके अंग की छटा भी उज्ज्वल होती है। वे हृदय आदि अंग, कौस्तुभ आदि उपांग, सुदर्शन आदि अस्त्र और सुनन्द प्रभृति पार्षदों से संयुक्त रहते हैं।
कलियुग में श्रेष्ठ बुद्धिसम्पन्न पुरुष ऐसे यज्ञों के द्बारा उनकी आराधना करते हैं और जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है। इस रंग- रूप में भगवान का विग्रह होता है।