भगवान श्री कृष्ण और यशोदा मां का माता-पुत्र का जो पावन व अतुलनीय सम्बन्ध था, वह आज भी श्रद्धा से नमन किया जाता है। माता यशोदा ने श्री कृष्ण को जन्म तो नहीं दिया जाता है, उन्हें पाला था, लेकिन आज भी माता-पुत्र इस पावन सम्बन्ध को नमन कर अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं।
धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म अवतरण मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ था। कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वासुदेव को कारागार में डाला हुआ था। इन्हीं देवकी के गर्भ से भगवान श्री कृष्ण उनकी आठवीं संतान के रूप में अवतरण लिया। कंस को आकाशवाणी से पता चला था कि देवकी आठवीं संतान उसका वध करेगी, इसलिए उसने देवकी को कारागार में डाला हुआ था। जैसे ही श्री कृष्ण देवकी आठवीं संतान के रूप में अवतरित हुए तो वासुदेव उन्हें आधी रात्रि में यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आए, ताकि कंस से उनकी रक्षा की जा सके।
अवतरण के साथ ही माता यशोदा ने उनका पालन पोषण किया। भगवान श्री कृष्ण ने जन्म से ही लीलाएं दिखानी शुरू कर दी थी, अवतरण के साथ ही मार्ग में यमुना उनके चरण स्पर्श कर किया। इसके साथ ही उफनती हुई यमुना जी शांत हो गईं। कैसे शेषनाग छत्र बनकर उनकी भीषण वर्षा से रक्षा करते रहे। श्रीकृष्ण की बाल्यकाल लीलाओं का वर्णन धर्मशास्त्रों में मिलता है। एक नहीं, अनेकानेक गाथाएं हैं, जो श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की अनुपम व प्रेममयी प्रस्तुति करती हैं।
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कभी माखन चोर बनकर ओखल में बंधे श्री कृष्ण ने गोकुलवासियों का मन मोहा तो कभी उनकी रक्षा कर मार्गदर्शन किया। उन्होंने यशोदा को मुख में ब्रह्मांड के दर्शन कराये। मां-पुत्र का यह सम्बन्ध अनुपम धागे से बंधा था, जिसकी डोर प्रेम थी। यशोदा ने श्री कृष्ण ही नहीं, बलराम के पालन-पोषण में महती भूमिका निभाई थी, बलराम रोहिणी के पुत्र और सुभद्रा के भाई थे। उनकी एक पुत्री का भी उल्लेख मिलता है जिसका नाम एकांगा था।
श्रीकृष्ण व यशोदा के सम्बन्ध के गहरे भेद
पूर्व समय की बात है कि वसुश्रेष्ठ द्रोण और उनकी पत्नी धरा ने ब्रह्माजी से यह प्रार्थना की कि हे देव! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें तो भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अविचल भक्ति हो। इस पर ब्रह्माजी ने तथास्तु कहकर उन्हें वर दिया। इसी वर के प्रभाव से ब्रजमंडल में सुमुख नामक गोप की पत्नी पाटला के गर्भ से धरा का जन्म यशोदा के रूप में हुआ। और उनका विवाह नन्द से हुआ।
नन्द पूर्व जन्म के द्रोण नामक वसु थे। भगवान श्री कृष्ण इन्हीं नन्द-यशोदा के पुत्र बने। श्री यशोदा जी चुपचाप शान्त होकर सोयी थीं। रोहिणी जी की आँखें भी बन्द थीं। अचानक सूतिका गृह अभिनव प्रकाश से भर गया। सर्वप्रथम रोहिणी माता की आंख खुली। वे जान गयीं कि यशोदा ने पुत्र को जन्म दिया है। विलम्ब होते देख रोहिणी जी दासियों से बोल उठीं- ‘अरी! तुम सब क्या देखती ही रहोगी? कोई दौड़कर नन्द को सूचना दे दो। फिर क्या था, दूसरे ही क्षण सूतिकागार आनन्द और कोलाहल में डूब गया।
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एक नन्द को सूचना देने के लिये दौड़ी। एक दाई को बुलाने के लिये गयी। एक शहनाई वाले के यहां गयी। चारों ओर आनन्द का साम्राज्य छा गया। विधिवत जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ। नन्द ने उस समय इतना दान दिया कि याचकों को और कहीं मांगने की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी। पूरा ब्रज ही मानो प्रेमानन्द में डूब गया। माता यशोदा बड़ी ललक से हाथ बढ़ाती हैं और अपने हृदयधन को उठा लेती हैं और शिशु के अधरों को खोलकर अपना स्तन उसके मुख में देती हैं। भगवान शिशुरूप में मां के इस वात्सल्य का बड़े ही प्रेम से पान करने लगते हैं।
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कंस की भेजी हुई पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर गोपी-वेश में यशोदा नन्दन श्रीकृष्ण को मारने के लिये आयी थी। उसने अपना स्तन श्री कृष्ण के मुख में दे दिया था। तब श्रीकृष्ण दूध के साथ उसके प्राणों को भी पी गये। शरीर छोड़ते समय श्री कृष्ण को लेकर पूतना मथुरा की ओर दौड़ी। उस समय यशोदा के प्राण भी श्री कृष्ण के साथ चले गये। उनके जीवन में चेतना का संचार तब हुआ, जब गोप-सुन्दरियों ने श्रीकृष्ण को लाकर उनकी गोद में डाल दिया। यशोदानन्दन श्री कृष्ण क्रमश: बढ़ने लगे। वैसे- वैसे मैया का आनन्द भी उसी क्रम में बढ़ रहा था। जननी का प्यार पाकर श्री कृष्णचन्द्र इक्यासी दिनों के हो गये। मैया आज अपने सलोने श्री कृष्ण को नीचे पालने में सुला आयी थीं। कंस-प्रेरित उत्कच नामक दैत्य आया और शकट में प्रविष्ट हो गया। वह शकट को गिराकर श्रीकृष्ण को पीस डालना चाहता था। इसके पूर्व ही श्रीकृष्ण ने शकट को उलट दिया और शकटासुर का अन्त हो गया। भगवान श्रीकृष्ण ने माखन लीला, ऊखल बन्धन, कालिय उद्धार, गोचारण, धेनुक वध, दावाग्नि पान, गोवर्धन धारण, रासलीला आदि अनेक लीलाओं से यशोदा मैया को अपार सुख प्रदान किया। इस प्रकार ग्यारह वर्ष छ: महीने तक माता यशोदा का महल श्री कृष्ण की किलकारियों से गूंजता रहा।
अंततः श्री कृष्ण को मथुरा पुरी ले जाने के लिये अक्रूर आ ही गये। अक्रूर ने आकर यशोदा के हृदय पर मानो अत्यन्त क्रूर वज्र का प्रहार किया। पूरी रात श्री नन्द जी श्री यशोदा को समझाते रहे, पर किसी भी क़ीमत पर वे अपने प्राणप्रिय पुत्र श्रीकृष्ण को कंस की रंगशाला में भेजने के लिये तैयार नहीं हो रही थीं। अंतत: योगमाया ने अपनी माया का प्रभाव फैलाया। यशोदा जी ने फिर भी अनुमति नहीं दी, केवल विरोध छोड़कर वे अपने आँसुओं से पृथ्वी को भिगोने लगीं। श्री कृष्ण चले गये और यशोदा विक्षिप्त-सी हो गयीं, उनका हृदय तो तब शीतल हुआ, जब वे कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण से मिलीं। राम-श्याम को पुन: अपनी गोद में बिठाकर माता यशोदा ने नवजीवन पाया। अपनी लीला समेटने से पहले ही भगवान ने माता यशोदा को गोलोक भेज दिया। श्री कृष्ण के अवतार में जो मात-पुत्र सम्बन्ध की अनुपम प्रेममयी गाथाएं है, वह आज भी भक्तों के हृदय में प्रेममयी धारा का प्रवाह कर देती है।