भगवती पाटेश्वरी की प्रसन्नता परम सिद्घिदायिनी और कल्याण करने वाली है। भगवती जगदीश्वरी के चरणों में आत्मनिवेदन कर जीव अभय हो जाता है। पाटेश्वरी महामाया से यही निवेदन है कि
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वर्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव।।
(श्री दुर्गासप्तशती)
विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि हम आपके चरणों पर पड़़े हुए हैं, हम पर प्रसन्न होइये। तीनों लोक निवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! आप सब लोगों को वरदान दीजिये। महामाया पाटेश्वरी के प्रसन्न होने पर सभी सिद्घियाँ, सभी पदार्थ, भोग, मोक्ष प्राप्त हो जाते हैं।
भगवती पाटेश्वरी से संबद्घ देवीपाटन शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में पूर्वाेत्त रेलवे के बलरामपुर स्टेशन से 21 किलोमीटर दूरी पर है। तुलसीपुर रेलवे स्टेशन से केवल सात सौ मीटर की दूरी पर सीरिया (सूर्या) नदी पर स्थित यह शक्तिपीठ भगवती जगदम्बा की उपासना का भव्य भौम-प्रतीक है। नेपाल राज्य की सीमा को देवीपाटन पुण्यपीठ स्पर्श करता है।
पाटेश्वरी शक्तिपीठ की कथा-
जब देवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में माता सती के पति भगवान भोलेनाथ शिवशंकर को आमंत्रित नहीं किया तो देवी सती ने यज्ञ में जाने की जिद की। देवी यज्ञ में अपने पिता से निमंत्रण न देने का कारण जानने लगी तो उनके पिता दक्ष भगवान शंकर का अपमान करने लगे, जिसे माता सती सहन कर सकी और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। इस पर भगवान शंकर को क्रोध आ गया और वह सती शव को लेकर तांडव करने लगे। दुनिया नष्ट होने की कगार पर पंहुच गई। देवताओं के सिंहासन डोलने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन से देवी सती के शव को खंडित किया, जहां-जहां देवी के अंग व वस्त्र पड़े, वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हुईं। मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के बारे में माना जाता है कि मां का वाम स्कंद अर्थात बायां कंधा वस्त्र सहित यहां गिरा था। स्कंदपुराण में इसका वर्णन भी मिलता है।
परम प्रसिद्घ शक्तिपीठ दवीपाटन की परमाराध्या महामाया पाटेश्वरी महाविद्या, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा महादेवी हैं। वे पर और अपर-सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी हैं। ऐतिहासिक और अनेक पौराणिक तथ्यों से यह मान्यता निर्विवाद है कि देवीपाटन महामाया महेश्वरी का पत्तन या नगर है। देवी का पट (वस्त्र) उनके वामस्कन्ध के सहित इसी पुण्यक्षेत्र में गिरा था। इसलिये यहां की अधिष्ठïात्री महामाया को ‘पटेश्वरी’ या ‘पाटेश्वरी’ कहा जाता है। इस विषय में अत्यन्त प्रसिद्घ श्लोक हैं-
पटेन सहित: स्कन्ध: पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरीनाम्रा ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड)
पराम्बा महेश्वरी जगज्जननी जगदीश्वरी भवानी की महिमा अचिन्त्य, अपार और नितान्त अभेद्य है। उनकी आत्यन्तिक कृपाशक्ति से ही उनके स्वरूप का परिज्ञान संभव है। वे परम करुणामयी एवं कल्याणस्वरूपिणी शिवा है। देवताओं ने भगवती महामाया के स्वरूप के संबंध में कहा है कि आप ही सबकी आश्रयभूता हैं। यह समस्त जगत आपका अंशभूत है, क्योंकि आप सबकी आदिभूता अव्याकृता परा प्रकृति हैं-
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या।।
(श्री दुर्गासप्तशती)
देवीपाटन को पातालेश्वरी शक्तिपीठ भी कहा जाता है। माना यह भी जाता है कि भगवती सीता ने इसी स्थल पर पाताल में प्रवेश किया था, पर यह स्थान भगवती सती के अंग वाम स्कन्ध यानी बाएं कंधे के पट सहित पतन से ही ख्याति प्राप्त कर पाटेश्वरीपीठ के नाम से व्यवहृत है।
देवीपाटन सिद्घ योगपीठ और शक्तिपीठ दोनों है, क्योकि यह ऐतिहासिक तथा परम्परागत सर्वमान्य तथ्य है कि साक्षात अभिनव शिव महायोगी गोरखनाथ ने शिव की प्रेरणा से इस पुण्यस्थल पर शक्ति की उपासना और आराधना के द्वारा अपने योग-अनुभव से समस्त जगत को जीवनामृत या योगामृत प्रदान किया था। देवीपाटन में भगवती महेश्वरी का प्रसिद्घ मंदिर है। महाराज विक्रमादित्य ने प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था। पुन: मध्यकाल में मुगल बादशाह औरंगजेब की आज्ञा से उसकी सेना ने इसे ध्वस्त कर दिया था। उसके बाद नये मंदिर का निर्माण संपन्न हुआ। यह भी प्रसिद्घ है कि महाभारत युद्घ के महासेनानी दानवीर कर्ण ने इस पुण्यक्षेत्र में भगवान परशुराम से ब्रह्मïास्त्र प्राप्त किया तथा युद्घविद्या और शस्त्रास्त्र-प्रयोग की शिक्षा प्राप्त की थी।
दक्ष में योगाग्रिद्वारा प्रज्वलित सती के शरीर के शव के 51 खंडित अङ्गïों से 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई। शिवपुराण, देवीभागवत तथा तंत्रचूडामणि आदि अनेकक ग्रन्थों में शक्तिपीठ की परम्परा और उससे संबद्घ सती के शरीर के अनुसार 51 वर्ण समाम्राय के आश्रय आदिशक्ति भगवती जगदम्बा की उपासना के 51 शक्तिपीठ सम्पूर्ण भारत में अवस्थित हैं। उन्हीं शक्तिपीठों में महामाया पाटेश्वरी उपासनास्थल से देवीपाटन शक्तिपीठ की गणना की जाती है।
सिद्घ शक्तिपीठ देवीपाटन में शिव की आज्ञा से महायोगी गोरखनाथ ने पाटेश्वरीपीठ की स्थापना कर भगवती की आराधना और योगसाधना की थी। इस बात का उल्लेख देवीपाटन में उपलब्ध 1874 ई. के शिलालेख में है-
महादेवसमाज्ञप्त: सतीस्कन्धविभूषितम।
गोरक्षनाथो योगीन्द्रस्तेन पाटेश्वरीमटम।।
देवीपाटन शक्ति-उपासना और योगसाधना का तीर्थक्षेत्र है। पाटेश्वरी मंदिर के अन्त: कक्ष में प्रतिमा नहीं है केवल चाँदी जटित गोल चबूतरा है। कहा जाता है कि इसी के नीचे पातालतक सुरंग है। इसी चबूतरे पर महामाया की समुस्थिति की भावना कर उन्हें पूजा समर्पित की जाती है। चबूतरे पर कपड़ा बिछा रहता है, उसके ऊपर ताम्रछत्र है, जिस पर सम्पूर्ण श्रीदुर्गासप्तशती के श्लोक अंकित हैं। उसके नीचे चाँदी के ही अनेकक छत्र हैं। मंदिर में अखण्ड ज्योति के रूप में घी के दो दीपक जलते रहते हैं। मंदिर की परिक्रमा में मातृगणों के यंत्र विद्यमान हैं।
यहाँ होता है कुष्ट रोग निवारण
मंदिर के उत्तर में सूर्यकुण्ड है, यहां पर रविवार को स्नानकर षोडशोपचार से देवी का पूजन करने वाले का कुष्टरोगनिवारण होता है। यहां महिषमर्दिनी काली का मंदिर है। बटुकनाथ भैरव की आराधना होती है और अखण्ड धूनी है। इस पुण्यक्षेत्र में चन्द्रशेखर महादेव और हनुमान जी के मंदिर भी हैं। देवीपाटन नेपाल के सिद्घयोगी बाबा रतननाथ का शक्ति-उपासनास्थल है। वे प्रतिदिन योगशक्ति द्वारा दांग (नेपाल की पहाडिय़ों) से आकर महामाया पाटेश्वरी की आराधना किया करते थे। देवी के वरसे उनकी भी यहां पूजा होती है। देवी ने योगी को आश्वासन दिया था कि जब तुम पधारोगे तक तुम्हारी पूजा होगी। रतननाथ दाँग चौधरास्थान से प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी को पाटन आते हैं। एकादशी को वापस जाते हैं। देवीपाटन में प्रतिवर्ष नवरात्र में बहुत बड़ा मेला लगता है।