महाशिव रात्रि व्रत – महाशिव रात्रि के पावन व्रत से मिलता है मोक्ष

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महाशिव रात्रि व्रत की महिमा जितनी की जाए, वह कम होगी, इस व्रत को करने से जीव जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह पावन व्रत सभी मनोकामनाओं को सिद्ध करता है। भगवान शंकर की कथा सुनने मात्र से जीव का कल्याण होता है, ऐसी तमाम कथाएं पुराणों में वर्णित है। आमतौर पर व्रत फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी में होता है, हालांकि कुछ लोग चतुर्दशी को भी इस व्रत को करते हैं। माना गया है कि सृष्टि के आदि में इस दिन भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र रूप में और रात्रि के मध्य में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं, विशेष तौर पर इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहा गया है।

तीनों गुणों की अपार सुंदरी और शीलवती गौरी गौरा को अर्धांगिनी बनाने वाले भगवान शंकर पिशाचों से घिरे रहते हैं, उनके शरीर पर मसानों की भस्म में लगी रहती है। गले में सर्प का हार शोभा पाता है, गले में विष है जटाओं में जगततारणी पावन गंगा हैं तो माथे में प्रलयंकारी ज्वाला। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले भगवान शिव का यह अमंगल रूप होता है। इसके बावजूद भक्तों को मंगल व सुख संपदा प्रदान करते हैं। वे काल के काल है, वे देवों के महादेव है, उनका यह व्रत विशेष महत्व रखता है। इस व्रत को कोई भी रख सकता है।

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व्रत का विधि विधान –

प्रात: काल स्नान व ध्यान से निवृत होकर व्रत रखना चाहिए। पत्र, पुष्प व सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके सर्वतोभद्र की विधि पर कलश की स्थापना करनी चाहिए। साथ-साथ गौरीशंकर की स्वर्ण मूॢत व नंदी की चांदी की मूॢत रखनी चाहिए। यदि इस मूॢत का इंतजाम न हो सके तो शुद्ध मिट्टी से शिवभलग बना लेनी चाहिए। कलश को जल से भर कर रोली, मौली, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलाइची, चंदन, दूध, दही, घी, शह, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद शिव को अॢपत करके पूजा करनी चाहिए। रात को शिव की स्तुति का जागरण कर ब्राह्मणों से पाठ कराना चाहिए।

इस जागरण में चार शिवजी की आरती का विधान जरूरी है। इस अवसर पर शिवपुराण के पाठ मंगलकारी माना जाता है, दूसरे दिन प्रात: जौ, तिल, खीर और बेलपत्रों का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन करवाकर व्रत का पारण करना चाहिए। भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवैद्य खाना निषिद्ध होता है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खा लेता है वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिए शिव की मूॢत के पास शालिग्राम की मूॢत रखना अनिवार्य है। यदि शिव की मूॢत के पास शालीग्राम होगी तो नैवेद्य खाने का कोई दोष नहीं है।

कथा एक –

किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार के साथ रहता था, ब्राह्मण का लड़का चंद्रसेन दुष्ट था। जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, वह आचरणहीन होता गया। चंद्रसेन की मां बेटे की इन हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति से कुछ ना बताती थी। एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहंा पूजा करके लौट रहा था तो मार्ग में दो लड़कों को सोने की अंगूठी के लिए लड़ते पाया। एक लड़का कह रहा था कि यह अंगूठी चंद्रसेन से जुए में मेने जीती है दूसरा इसके अपने होने का दावा कर रहा था। यह सब देख सुनकर बेचारा ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ, उसने दोनों लड़कों को समझा बुझाकर अंगूठी ले ली और घर आते ही ब्राह्मण ने पत्नी से चंद्रसेन के बारे में पूछा।

पत्नी ने उत्तर दिया- यही तो खेल रहा था, लेकिन वह तो घर पर था ही नहीं। इधर घर लौटते समय चंद्रसेन को पिता की नाराजगी का पता चला तो वह घर से भाग निकला। रास्ते में किसी मंदिर के पास कीर्तन हो रहा था। भूखा चंद्रसेन कीर्तन मंडली में बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि थी, भक्तों ने शंकर पर विभिन्न प्रकार के भोग चढ़ा रखे थे। चंद्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया। जब सब भक्त सो गए सो गए तो चंद्रसेन ने मौके का लाभ उठाकर चोरी की और भाग निकला। मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आंखें खुली और उसने चंद्रसेन को भागते देख कर चोर कहकर शोर मचाया। लोगों ने उसका पीछा किया।

भूखा चंद्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही उसकी मृत्यु हो गयी। चंद्रसेन को लेने भगवान शंकर के गण व यमदूत एक साथ आ पहुंचे। यमदूतों के अनुसार चंद्रसेन नरक का अधिकारी है। इस पर शिवगणों कहा कि चंद्रसेन में पिछले पांच दिनों से भूखे रहकर व्रत और शिवरात्रि का जागरण जो किया था, शंकर ने सिर पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था, वह तो नैवेद्य खाने से पूर्व ही प्राण त्याग चुका था, इसलिए शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकर के अनुग्रह से ही हुआ था। इस प्रकार यमदूत खाली हाथ लौट गए। इस प्रकार चंद्रसेन भगवान शिव के सत्संग मात्र से मोक्ष का अधिकारी हो गया।

कथा दो- एक बार पाठ पार्वती जी ने भगवान शंकर से पूछा कि ऐसा कौन सा श्रेष्ठ और सरल व्रत पूजन है। जिससे मृत्यु लोक के प्राणी अपना सयुज्य सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। उत्तर में पार्वती जी को भगवान शिव जी ने शिवरात्रि के व्रत का विधान बताया- एक गांव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुंब का पालन करता था। एक साहूकार का वह कर्जदार था, समय पर कर्ज न चुका सका तो साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी। शिकारी की कैद में ही ध्यान मग्न होकर शिव संबंधी बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि व्रत की कथा सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया।

शिकारी अगले दिन समूचा ऋण लौटा देने के लिए वचनबद्ध होकर जेल से छूट गया। जेल से छूट कर वह अपनी दिनचर्या की भांति जंगल में शिकार के लिए निकला। दिनभर कारागार में रहने के कारण वह भूख-प्यास से व्याकुल था, वह जंगल में एक तालाब के किनारे बेल के वृक्ष पर शिकार कर मारने के लिए बैठ गया। बेल वृक्ष के नीचे शिवभलग था, यहां पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियां तोड़ी वे संयोग से शिवभलग पर गिरी, इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और अन्जाने में ही लेकिन शिवभलग पर बेलपत्र भी चढ़ गया। एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गॢभणी हिरणी तालाब पर पानी पीने पहुंची, शिकारी ने तीर धनुष पर चढ़ा कर ज्यो ही प्रत्यंचा खींची लगी, हिरणी बोली- मैं गर्भणी हूं, तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है, मैं बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत होंगी, तब चाहे तो मुझे मार डालना।

शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और हिरणी जंगम में लुप्त हो गई। कुछ ही देर बाद एक और हिरणी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर शिकारी ने तीर धनुष पर चढ़ाया, तब उस हिरणी ने भी प्रार्थना की कि मैं थोड़ी देर पहले ऋतु से निवृत्त हुई हूं, कामातुर विरहणी हूं, अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं, मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत होंऊगीं। शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। आखरी पहर बीत रहा था, इतने में हिरणी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली, शिकारी के लिए यह स्वॢणम अवसर था, उसने धनुष पर तीर चढ़ाने हुए देर न लगाई।

वह तीर छोडऩे ही वाला था कि हिरणी बोली – मैं इन बच्चों को उनके पिता के हवाले कर के लौट कर आती हूं, मुझे इस समय मत मारों। जिस पर शिकारी हसा और बोला- सामने आए शिकार को छोड़ देना मेरी बुद्धिमानी नहीं है। मैं इससे पहले भी दो बार अपना शिकार खो चुका हूं, मेरे बच्चे भी भूख-प्यास से तड़प रहे हैं। इसका जवाब देने हुए हिरणी ने कहा कि जैसे तुम्हें बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर थोड़ी देर के लिए मैं जीवनदान मांगती हूं। मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़ कर आती हूं, शिकारी ने उसे भी जाने दिया। इधर शिकार के अभाव में शिकारी बेलपत्र तोड़कर नीचे शिवलिंग पर फैंक रहा था। इतने में एक हिरण वहां आया।

इसे देखकर शिकारी ने जैसे ही प्रत्यंचा चढ़ाई। हिरण बोला- मेरे आने से पूर्व तीन हिरणियों व बच्चों को तुमने मार डाला है तो मुझे भी मार डालना, मैं उनका पति हूं, यदि तुमने उन्हें जीवन दान दिया है तो मुझे छोड़ दो। मै स्वयं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने आत्मसमर्पण करूंगा। हिरण की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरे रात का घटना चक्र याद आ गया। उसने उसे भी जाने दिया।

इधर शिकारी का रात्रि उपवास, जागरण तथा शिवभलग पर बेलपत्र चढ़ाने से निर्मल हृदय हो गया। थोड़ी देर बाद वह हिरण सपरिवार उसके समक्ष प्रकट उपस्थित हो गया, जंगली पशुओं की सत्य प्रीता सात्विकता और एवं सामूहिक प्रेम भावना को देखकर उसे बड़ी ग्लानि हुई और उन्हें जाने दिया। देव लोक यह घटनाक्रम देखा जा रहा था, वह शिकारी का हृदय परिवर्तन हो गया था, उसने शिकार करना छोड़ दिया और अंत में शिव क्रिपा से मोक्ष का अधिकारी हुआ।

-भृगु नागर

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