अनंत, अविनाशी व सर्वव्यापी भगवती दुर्गा जगत का कल्याण करने वाली हैं। वह सर्वव्यापक दुर्गा ही शक्ति हैं, जो सृष्टि का संचालन कर रही हैं। उनकी भौतिक पूजा के तमाम विधान शास्त्रों में वर्णित हैं, यहां हम आपको भगवती दुर्गा की मानसिक पूजा का विधान वर्णित करने जा रहे हैं। चूंकि मानसिक पूजा करना सहज नहीं होता है, लेकिन यदि यह सफलता पूर्वक कर ली जाए तो इसका परम पुण्यदायी फल भी भक्त या साधक को कई गुना मिलता है। मानसिक पूजा के दौरान भक्त का मन एकाग्र रहना चाहिए।
क्षणभर के लिए यह भंग नहीं होना चाहिए। ऐसी साधना के लिए सतत प्रयास की आवश्यकता होती है। इंद्रियों को वश में करके ही मन पर नियंत्रण किया जा सकता है। मन पर नियंत्रण ही योग साधना है। आइये, जानते हैं, कि माता दुर्गा की मानसिक पूजा कैसे की जाए? यानि श्रीदुर्गामानस – पूजा, ताकि भक्त पर माता दुर्गा की असीम कृपा हो।
श्रीदुर्गामानस – पूजा
उद्यच्चन्दनकुङ्कुमारुणपयोधारा
आमृष्टां सुरसुन्दरीभिरभितो हस्ताम्बुजैर्भक्तितो मातः सुन्दरि भक्तकल्पलतिके श्रीपादुकामादरात्॥१॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! तुम भक्तजनों की मनोवांछा पूर्ण करने वाली कल्पलता हो। माता त्रिपुरसुन्दरि! यह पादुका आदरपूर्वक तुम्हारे श्रीचरणों में समर्पित है, इसे ग्रहण करो। हे माता त्रिपुरसुन्दरि! यह उत्तम चन्दन और कुंकुम से मिली हुई लाल जल की धारा से धोयी गयी है।
तरह- तरह की बहुमुल्य मणियों और मुन्गों से इसका निर्माण हुआ है और बहुत सी देवांगनाओं ने अपने कर – कमलों द्वारा भक्तिपूर्वक इसे सब ओर से धो-पोंछकर स्वच्छ बना दिया है॥ १ ॥
देवेन्द्रादिभिरर्चितं सुरगणैरादाय सिंहासनं चञ्चत्काञ्चनसंचयाभिरचितं चारुप्रभाभास्वरम्।
एतच्चम्पककेतकीपरिमलं तैलं महानिर्मलं गन्धोद्वर्तनमादरेण तरुणीदत्तं गृहाणाम्बिके॥२॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! देवताओंने तुम्हारे बैठने के लिये यह दिव्य सिंहासन लाकर रख दिया है, इस पर विराजो। यह वह सिंहासन है, जिसकी देवराज इन्द्र आदि भी पूजा करते हैं। अपनी कान्तिसे दमकते हुए राशि – राशि सुवर्ण से इसका निर्माण किया गया है। यह अपनी मनोहर प्रभा से सदा प्रकाशमान रहता है। इसके सिवा, यह चंपा और केतकी की सुगन्ध से पूर्ण अत्यन्त निर्मल तेल और सुगन्धयुक्त उबटन है, जिसे दिव्य युवतियाँ आदरपूर्वक तुम्हारी सेवा में प्रस्तुत कर रही हैं, कृपया इसे स्वीकार करो ॥ २ ॥
पश्चाद्देवि गृहाण शम्भुगृहिणि श्रीसुंदरि प्रायशो गन्धद्रव्यसमूहनिर्भरतरं धात्रीफलं निर्मलम्।
तत्केशान् परिशोध्य कङ्कतिकया मन्दाकिनी स्रोतसि स्नात्वा प्रोज्ज्वलगन्धकं भवतु हे श्रीसुन्दरि त्वन्मुदे ॥३॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! इसके पश्चात् यह विशुद्ध आँवले का फल ग्रहण करो। हे शिवप्रिये! त्रिपुरसुन्दरि ! इस आँवले में प्रायः जितने भी सुगन्धित पदार्थ हैं, वे सभी डाले गये हैं। इससे यह परम सुगन्धित हो गया है। अत: इसको लगाकर बालों को कंधी से झाड़ लो और गंगाजी की पवित्र धारा में नहाओ। तदनन्तर यह दिव्य गन्ध सेवा में प्रस्तुत है , यह तुम्हारे आनन्द की वृद्धि करने वाला हो ॥ ३ ॥
सुराधिपतिकामिनी करसरोजनालीधृतां सचन्दनसकुङ्कुमागुरुभरेण विभ्राजिताम्।
महापरिमलोज्ज्वलां सरसशुद्धकस्तूरिकां गृहाण वरदायिनि त्रिपुरसुन्दरि श्रीपदे ॥४॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! सम्पत्ति प्रदान करने वाली वर दायिनी त्रिपुरसुन्दरि ! यह सरस शुद्ध कस्तूरी ग्रहण करो। इसे स्वयं देवराज इन्द्र की पत्नी महारानी शची अपने कर कमलों में लेकर सेवा में खड़ी हैं।
इसमें चन्दन, कुंकुम तथा अगुरुका मेल होने से और भी इसकी शोभा बढ़ गयी है। इससे बहुत अधिक गन्ध निकलने के कारण यह बड़ी मनोहर प्रतीत होती है ॥ ४ ॥
गन्धर्वामरकिन्नरप्रियतमासन्तानहस्ताम्बुज-प्रस्तारैर्ध्रियमाणमुत्तमतरं काश्मीरजापिञ्जरम्।
मातर्भास्वरभानुमण्डललसत्कान्तिप्रदानोज्ज्वलं चैतन्निर्मलमातनोतु वसनं श्रीसुन्दरि त्वन्मुदम्॥५॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! माता श्रीसुन्दरि ! यह परम उत्तम निर्मल वस्त्र सेवा में समर्पित है, यह तुम्हारे हर्ष को बढ़ावे । हे माता ! इसे गन्धर्व, देवता तथा किन्नरों की प्रेयसी सुन्दरियाँ अपने फैलाये हुए कर – कमलों में धारण किये खड़ी हैं। यह केसर में रंगा हुआ पीताम्बर है। इससे परम प्रकाशमान सूर्यमण्डल की शोभामयी दिव्य कान्ति निकल रही है, जिसके कारण यह बहुत ही सुशोभित हो रहा है ॥ ५ ॥
स्वर्णकल्पितकुण्डले श्रुतियुगे हस्ताम्बुजे मुद्रिका मध्ये सारसना नितम्बफलके मञ्जीरमङ्घ्रिद्वये।
हारो वक्षसि कङ्कणौ क्वणरणत्कारौ करद्वन्द्वके विन्यस्तं मुकुटं शिरस्यनुदिनं दत्तोन्मदं स्तूयताम् ॥६॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! तुम्हारे दोनों कानों में सोने के बने हुए कुण्डल झिलमिलाते रहें, कर कमल को एक अंगुली अंगूठी शोभा पावे, कटिभाग में नितम्बों पर करधनी सुहाये, दोनों चरणों में मंजीर मुखरित होता रहे, वक्षःस्थल में हार सुशोभित हो और दोनों कलाइयों में कंकन खनखनाते रहें । तुम्हारे मस्तक पर रखा हुआ दिव्य मुकट प्रतिदिन आनन्द प्रदान करे। ये सब आभूषण प्रशंसा के योग्य है ॥ ६ ॥
ग्रीवायां धृतकान्तिकान्तपटलं ग्रैवेयकं सुन्दरं सिन्दूरं विलसल्ललाटफलके सौन्दर्यमुद्राधरम्।
राजत्कज्जलमुज्ज्वलोत्पलदलश्रीमोचने लोचने तद्दिव्यौषधिनिर्मितं रचयतु श्रीशाम्भवि श्रीपदे ॥७॥
भावार्थ- हे माता! धन देनेवाली शिवप्रिया पार्वती । तुम गले में बहुत ही चमकीली सुन्दर हंसली पहन लो, ललाट के मध्यभाग में सौन्दर्य को मुद्रा ( चिह्न ) धारण करने वाले सिन्दूरकी बेंदी लगाओ तथा अत्यन्त सुन्दर पद्मपत्र की शोभा को तिरस्कृत करने वाले नेत्रों में यह काजल भी लगा लो, यह काजल दिव्य ओषधियों से तैयार किया गया है ॥ ७ ॥
अमन्दतरमन्दरोन्मथितदुग्धसिन्धूद्भवं निशाकरकरोपमं त्रिपुरसुन्दरि श्रीपदे।
गृहाण मुखमीक्षितुं मुकुरबिम्बमाविद्रुमै-र्विनिर्मितमघच्छिदे रतिकराम्बुजस्थायिनम्॥८॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! पापों का नाश करनेवाली सम्पत्ति दायिनी त्रिपुरसुन्दरि! अपने मुख की शोभा निहारने के लिये यह दर्पण ग्रहण करो। इसे साक्षात् रति रानी अपने कर – कमलों में लेकर सेवा में उपस्थित हैं। इस दर्पण के चारों ओर मूंगे जड़े हैं। प्रचण्ड वेग से घुमने वाले मन्दराचल की मथानी से जब क्षीरसमुद्र मथा गया, उस समय यह दर्पण उसी से प्रकट हुआ था। यह चन्द्रमा की किरणोंके समान उज्ज्वल है ॥ ८ ॥
कस्तूरीद्रवचन्दनागुरुसुधाधाराभिराप्लावितं चञ्चच्चम्पकपाटलादिसुरभिद्रव्यैःसुगन्धीकृतम्।
देवस्त्रीगणमस्तकस्थितमहारत्नादिकुम्भव्रजै-रम्भः शाम्भवि संभ्रमेण विमलं दत्तं गृहाणाम्बिके॥९॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! भगवान् शंकरकी धर्मपत्नी पार्वती देवी। देवांगनाओं के मस्तक पर रखे हुए बहुमूल्य रत्नमय कलशों द्वारा शीघ्रता पूर्वक दिया जाने वाला यह निर्मल जल ग्रहण करो। इसे चम्पा और गुलाल आदि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित किया गया है तथा यह कस्तूरी रस, चन्दन, अगुरु और सुधा की धारा से आप्लावित है ॥ ९ ॥
कल्हारोत्पलनागकेसरसरोजाख्यावलीमालती-मल्लीकैरवकेतकादिकुसुमै रक्ताश्वमारादिभिः।
पुष्पैर्माल्यभरेण वै सुरभिणा नानारसस्रोतसा ताम्राम्भोजनिवासिनीं भगवतीं श्रीचण्डिकां पूजये ॥१०॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! मैं कल्हार, उत्पल, नागकेसर, कमल, मालती, मल्लिका, कुमुद, केतकी और लाल कनेर आदि फूलों से, सुगन्धित पुष्पमालाओं से और नाना प्रकार के रसों की धारा से लाल कमल के भीतर निवास करने वाली श्रीचण्डिकादेवी की पूजा करता हूँ ॥ १० ॥
मांसीगुग्गुलुचन्दनागुरुरजः कर्पूरशैलेयजै-र्माध्वीकैः सहकुङ्कुमैः सुरचितैः सर्पिर्भिरामिश्रितैः।
सौरभ्यस्थितिमन्दिरे मणिमये पात्रे भवेत् प्रीतये धूपोऽयं सुरकामिनीविरचितः श्रीचण्डिके त्वन्मुदे ॥११॥
भावार्थ- हे माता त्रिपुरसुन्दरि! श्रीचण्डिका देवि देववधुओं के द्वारा तैयार किया हुआ यह दिव्य धूप तुम्हारी प्रसन्नता बढ़ाने वाला हो। यह धूप रत्नमय पात्र में, जो सुगन्ध का निवास स्थान है, रखा हुआ है; यह तुम्हें सन्तोष प्रदान करे। इसमें जटामांसी, गुग्गल, चन्दन, अगुरु – चूर्ण, कपूर, शिलाजीत, मधु, कुंकुम और घी मिलाकर उत्तम रीति से बनाया गया है ॥ ११ ॥
घृतद्रवपरिस्फुरद्रुचिररत्नयष्ट्यान्वितो महातिमिरनाशनः सुरनितम्बिनी निर्मितः।
सुवर्णचषकस्थितः शघनसारवर्त्यान्वित-स्तव त्रिपुरसुन्दरि स्फुरति देवि दीपो मुदे ॥१२॥
भावार्थ- हे देवी त्रिपुरसुन्दरि! तुम्हारी प्रसन्नता के लिये यहाँ यह दीप प्रकाशित हो रहा है। यह घी से जलता है; इसकी दीयट में सुन्दर रत्न का डंडा लगा है, इसे देवांगनाओं ने बनाया है। यह दीपक सुवर्णके चषक ( पात्र ) में जलाया गया है । इसमें कपूर के साथ बत्ती रखी है। यह भारी – से – भारी अन्धकार का भी नाश करने वाला है ॥ १२ ॥
जातीसौरभनिर्भरं रुचिकरं शाल्योदनं निर्मलं उक्तं हिङ्गुमरीचजीरसुरभिद्रव्यान्वितैर्व्यञ्जनैः।
पक्वान्नेन सपायसेन मधुना दध्याज्यसंमिश्रितं नैवेद्यं सुरकामिनीविरचितं श्रीचण्डिके त्वन्मुदे ॥१३॥
भावार्थ- हे श्रीचण्डिका देवि! देववधुओं ने तुम्हारी प्रसन्नता के लिये यह दिव्य नैवेद्य तैयार किया है, इसमें अगहनी के चावल का स्वच्छ भात है, जो बहुत ही रुचिकर और चमेलीकी सुगन्ध से वासित है। साथ ही हींग, मिर्च और जीरा आदि सुगन्धित द्रव्यों से छौंक – बघार कर बनाये हुए नाना प्रकार के व्यंजन भी है, इसमें भांति – भांतिके पकवान, खीर, मधु, दही और घी का भी मेल है ॥ १३ ॥
लवङ्गकलिकोज्ज्वलं बहुलनागवल्लीदलं सजातिफलकोमलं सघनसारपूगीफलम्।
सुधामधुरिमाकुलं रुचिररत्नपात्रस्थितं ग्रुहाण मुखपङ्कजे स्फुरितमम्ब ताम्बूलकम् ॥१४॥
भावार्थ- हे देवी त्रिपुरसुन्दरि!माँ ! सुन्दर रत्नमय पात्र में सजाकर रखा हुआ यह दिव्य ताम्बूल अपने मुख में ग्रहण करो। लवंग की कली चुभोकर इसके बीड़े लगाये गये है, अत : बहुत मन्दर जान पड़ते है, इसमें बहुत – से पान के पत्तों का उपयोग किया गया है। इन सब बीड़ों में कोमल जावित्री, कपूर और सोपारी पड़े हैं। यह ताम्बूल सुधा के माधुर्य से परिपूर्ण है ॥ १४ ॥
शरत्प्रभवचन्द्रमास्फुरितचन्द्रिकासुन्दरं गलत्सुरतरङ्गिणीललितमौक्तिकाडम्बरम्।
गृहाण नचकाञ्चनप्रभवदण्डखण्डोज्ज्वलं महात्रिपुरसुन्दरि प्रकटमातपत्रं महत् ॥१५॥
भावार्थ- हे देवी माँ! महात्रिपुरसुन्दरी माता पार्वती! तुम्हारे सामने यह विशाल एवं दिव्य छत्र प्रकट हुआ है, इसे ग्रहण करो। यह शरत्काल के चन्द्रमा की चटकीली चाँदनी के समान सुन्दर है। इसमें लगे हुए सुन्दर मोतियों की झालर ऐसी जान पड़ती है, मानो देवनदी गंगा का स्रोत ऊपर से नीचे गिर रहा हो। यह छत्र सुवर्णमय दण्ड के कारण बहुत शोभा पा रहा है ॥ १५ ॥
मातस्त्वन्मुदमातनोतु सुभगस्त्रीभिः सदाऽऽन्दोलितं शुभ्रं चामरमिन्दुकुन्दसदृशं प्रस्वेददुःखापहम्।
सद्योऽगस्त्यवसिष्ठनारदशुकव्यासादिवाल्मीकिभिः स्वे चित्ते क्रियमाण एव कुरुतां शर्माणि वेदध्वनिः॥१६॥
भावार्थ- हे देवी माँ! सुन्दरी स्त्रियों के हाथों से निरन्तर डुलाया जाने वाला यह श्वेत चंवर, जो चन्द्रमा और कुन्द के समान उज्ज्वल तथा पसीनेके कष्ट को दूर करनेवाला है, तुम्हारे हर्ष को बढ़ाये। इसके सिवा महर्षि अगस्त्य, वसिष्ठ, नारद, शुक, व्यास आदि तथा वाल्मीकि मुनि अपने – अपने चित्त में जो वेदमन्त्रों के उच्चारणका विचार करते हैं, उनकी वह मन : संकल्पित वेदध्वनि तुम्हारे आनन्द की वृद्धि करे ॥ १६ ॥
स्वर्गाङ्गणे वेणुमृदङ्गशङ्खभेरीनिनादैरुपगीयमाना
कोलाहलैराकलिता तवास्तु विद्याधरीनृत्यकलासुखाय।॥१७॥
भावार्थ- हे देवी माँ! स्वर्ग के आँगन में वेणु, मृदंग, शंख तथा भेरी की मधुर ध्वनि के साथ जो संगीत होता है और जिसमें अनेक प्रकार के कोलाहल का शब्द व्याप्त रहता है, वह विद्याधरी द्वारा प्रदर्शित नृत्य – कला तुम्हारे सुख की वृद्धि करे ॥ १७ ॥
देवि भक्तिरसभावितवृत्ते प्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्यते।
तत्र लौल्यमपि सत्फलमेकं जन्मकोटिभिरपीह न लभ्यम् ॥१८॥
भावार्थ- हे देवी माँ! तुम्हारे भक्तिरस से भावित इस पद्यमय स्तोत्र में यदि कहीं से भी कुछ भक्ति का लेश मिले तो उसी से प्रसन्न हो जाओ। हे माँ ! तुम्हारी भक्ति के लिये चित्त में जो आकुलता होती है, वही एकमात्र जीवन का फल है, वह कोटि – कोटि जन्म धारण करने पर भी इस संसार में तुम्हारी कृपा के बिना सुलभ नहीं होती ॥ १८ ॥
एतैः षोडशभिः पद्यैरुपचारोपकल्पितैः
यः परां देवतां स्तौति स तेषां फलमाप्नुयात् ॥१९॥
भावार्थ- हे देवी माँ! त्रिपुरसुन्दरि! माँ! इन उपचारकल्पित सोलह पद्यों से जो परा देवता भगवती त्रिपुरसुन्दरी का स्तवन करता है, वह उन उपचारों के समर्पण का फल प्राप्त करता है ॥ १९ ॥
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