अमरकण्टक के नर्मदा मंदिर में शोण शक्तिपीठ शक्तिपीठ माना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार बिहार प्रदेश के सासाराम स्थित ताराचण्डी मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है। एक मान्यता के अनुसार यहां देवी के शरीर का दक्षिण नितम्ब गिरा था। यहां की शक्ति नर्मदा या शोणाक्षी हैं और भैरव भद्रसेन हैं। कुछ विद्बान डेहरी आन सोन स्टेशन से कुछ दूर स्थित देवी स्थान को यह शक्तिपीठ मानते हैं। देवी के 51 शक्तिपीठों में परिगणित माता ताराचण्डी भवानी अपने भक्तों को सर्वसुख प्रदान करने के लिए विन्ध्यपर्वत की कैमूर श्रृंखला में अवस्थित हैं। कुछ विद्वान इन्हें ही शोणतटस्था शक्ति मानते हैं। प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पतिनिन्दा के क्रुद्ध होकर माता सती ने यज्ञकुण्ड में अपनी आहुति दे दी थी। उनके उस शरीर को भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से 51 खण्डों में काट दिया था। वे खण्ड विभिन्न स्थानों पर गिरे।
यह भी पढ़े- भगवती दुर्गा के 51 शक्तिपीठ, जो देते हैं भक्ति-मुक्ति, ऐसे पहुचें दर्शन को
मान्यता के अनुसार इनमें से एक खण्ड दक्षिण नेत्र यहां (सासाराम में) गिरा। माँ ताराचण्डी शक्तिपीठ है, जहां देवी के दक्षिण नेत्र के पतन की मान्यता है। आंखको तारा भी कहते हैं, भगवती के तीन नेत्र माने जाते हैं। बायां नेत्र रामपुर बंगाल में गिरा, जो तारापीठ के नाम से विख्यात हुआ। यह अघोर साधक वामाक्षेपाद्वारा जाग्रत हुआ। दक्षिण नेत्र सोनभद्र नदी के किनारे सटे मनोरम पहाडिय़ों से घिरे जलप्रपात एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच में गिरा, जिसे सोनभद्र के नाम से जाना गया। जो महर्षि विश्वामित्र द्वारा तारा के नाम से जाग्रत किया गया। जगदग्रि ऋषि के पुत्र भगवान परशुराम ने उस क्षेत्र के राजा सहस्त्रबाहु को पराजित करने हेतु यहां माँ तारा की उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर माँ ताराचण्डी ने बालिका के रूप में प्रकट होकर विजय का वरदान दिया। श्रीदुर्गासप्तशती के अनुसार महिषासुर के दो सेनापतियों चण्ड और मुण्डमें से एक का वध भगवती के हाथा यहीं पर हुआ था। जिससे वे चण्डी नाम से विख्यात हुई और मुण्ड का वध यहां से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम की ओर हुआ, वहां वे मुण्डेश्वरी के नाम से विख्यात हुई। यह स्थान वर्तमान में कैमूर जिले के अन्तर्गत ही है। भगवान बुद्ध ने बोधगया से सारनाथ जाते समय अपने भक्तों के साथ इक्कीस दिन यहाँ रहकर माँ भगवती की तारा रूप में उपासना की, जिसका उल्लेख मंदिर के गर्भगृह में लगे पत्थर पालि भाषा में उत्कीर्ण है।
यहां समीप ही पूरब गोड़इला पहाड़पर तारकनाथ नामक स्थान है, जहां पर ताड़का नाम की राक्षसी रहा करती थी, जो विश्वामित्र मुनि के यज्ञ में बराबर व्यवधान डाला करती थी। उसी ताड़का का वध करने के लिए महर्षि विश्वामित्र अयोध्या के राजा दशरथ से उनके दो पुत्रों-राम एवं लक्ष्मण का माँगकर लाये थे और यहीं माँ ताराचण्डीधाम स्थित अपने आश्रम (सिद्घाश्रम) में प्रशिक्षित किया था। राम और लक्ष्मण ने महर्षि विश्वामित्र की यज्ञ रक्षा करते हुए राक्षसी ताड़का का जिस स्थान पर वध किया था, वह स्थान आज बक्सर के नाम से प्रसिद्ध है।
ताराचण्डी मंदिर के निकट एक गुरुद्वारा भी स्थित है। यहां गुरु तेगबहादुर ने अपनी पत्नी एवं भक्तों के साथ माँ ताराचण्डी भवानी का पूजन किया था। इस पूरे क्षेत्र को पहले कारूष प्रदेश के नाम से जाना जाता था। जहां का राज हैहय-वंशीय क्षत्रिय कार्तवीर्य नाम से विख्यात था। इसी कार्तवीर्य का पुत्र सहस्त्रबाहु प्रचण्ड प्रतापी राजा हुआ, जो माँ ताराचण्डी भवानी का अनन्य भक्त तथा उपासक था। माँ ताराचण्डी भवानी सहस्त्रबाहु की कुलदेवी हुईं और इस पूरे कारूष प्रदेश की भी कुलदेवी के रूप में प्रसिद्ध हुईं, जिसका उल्लेख श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में मिलता है।
एक आख्यान में आया है कि एक बार राजा सहस्त्रबाहु जमदग्नि ऋषि के आश्रम में (जो जमनियाँ के नाम से जाना जाता है पहले जमदग्निपुरम नाम से विख्यात था) गया, वहाँ पर जमदग्नि ऋषि की कामधेनु गाय उसे पसंद आ गयी। उसने उस गाय को बलपूर्वक ले लिया, जब यह बात जमदग्निपुत्र परशुराम को मालूम हुई तो वे क्रोध में आकर अपना परशु लेकर सहस्त्रबाहु से युद्घ करने आ पड़े। युद्घ के दौरान परशुराम सहस्त्रबाहु से कमजोर पडऩे लगे, तब वे सहस्त्रबाहु की कुलदेवी माँ ताराचण्डी भवानी की उपासना उसी गुफा में बैठकर करने लगे, उपासनोपरान्त माँ ताराचण्डी भवानी ने परशुराम को चण्डी (बालिका) के रूप में दर्शन दिया और विजय का वरदान दिया, तब माँ भगवती ताराचण्डी से शक्ति पाकर परशुराम ने अपने परशु से सहस्त्रबाहु के बाहु काट दिये। चूंकि परशुराम के परशु से सहस्त्रबाहु के बाहु कटे थे। अत: सहस्त्रबाहु के नाम से बाहु शब्द हटा दिया गया और परशुराम के नाम से शब्द से परशु शब्द हटा दिया गया। दोनों के सान्ध्यिस्वरूप यादगार बनाने के लिये नाम जोड़कर सहस्त्र-राम अर्थात ‘सहस्त्रराम’ इस क्षेत्र का पामकरण हुआ। कालान्तर में अंग्रेजों को सहस्त्रराम कहने में असुविधा होती थी जिससे वे सहसराम कहते थे। आज यह क्षेत्र सासाराम के नाम से प्रसिद्घ है। जिस कुण्डस्थान पर परशुराम ने माँ भगवती ताराचण्डी की उपासना की थी, उस कुण्ड को परशुराम कुण्ड के नाम से जाना जाता है, जो माँ ताराचण्डी भवानी के ठीक सामने स्थित है और भगवती के श्रीचरणों को पखारता है।
आज भी इस कुण्ड में अनेक भक्त स्नानकर माँ ताराचण्डी भवानी का पूजन अर्चन करते हैं। सहस्त्रबाहु की समाधि आज भी नगर थाने के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। माँ ताराचंडी भवानी के साथ अनेक प्राचीन इतिहास जुड़े हुए हैं। माता ताराचण्डी भवानी के समीप ही भैरव चण्डिकेश्वर महादेव का मंदिर है जो सोनवागढ़ शिव मंदिर नाम से विख्यात है। माँ ताराचण्डी धाम में वर्ष में तीन बार उत्सव मनाया जाता है। पहला उत्सव वासन्तिक नवरात्र में, चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा से नवमी तक मनाया जाता है। दूसरा शारदीय नवरात्र उत्सव आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर दशमी (दशहरा) तक मनाया जाता है। तीसरा उत्सव बड़े धूमधाम से आषाढ़ पूर्णिमा (गुरुपूर्णिमा) गुरु पूजन से प्रारम्भ होकर अगले दिन श्रावण की प्रतिपदा से पूर्णिमा तक मनाया जाता है। माँ भगवती ताराचंडी को स्थानीय लोग कुलदेवी के रूप में मानते हैं।