इतिहास का प्रमाणित तथ्य है कि अयोध्या के विवादित ढांचे का ताला कांग्रेस ने ही खुलवाया था। ऐसा कांग्रेस ने क्यों किया था, यह जानना भी उतना ही आवश्यक है। असल में शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद के जरिए पलटने के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए सवालों के घेरे में आई तत्कालीन राजीव सरकार ने ताला खुलवाकर एक सियासी दांव खेला था। तब कांग्रेस के नेता राजीव गांधी को लगा था कि नाराज हिंदू मतदाताओं को साधा जा सकेगा, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चुनाव नतीजों में कांग्रेस सबसे बड़ा दल भले ही बनी, लेकिन बहुमत की संख्या से काफी पीछे चली गई। तब से शिलान्यास और ताला खुलवाने को कांग्रेस के अंदर की कट्टर सेकुलरवादी सोच ने गलत बताना शुरू किया था। राममंदिर तब से कांग्रेस की नजर में सांप्रदायिकता का प्रतीक बनता चला गया।
कांग्रेस में ही एक तबका ऐसा है, जिसे लगता है कि बाबरी ध्वंस हुए तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं। तब से लेकर अब तक सरयू में काफी पानी बह चुका है। इसलिए इस मुद्दे पर पार्टी को अलग रवैया अख्तियार करना चाहिए। हालांकि उस वर्ग की पार्टी में कम सुनी जाती है और हाशिये पर है। इसका ही नतीजा रहा कि सर्वोच्च न्यायालय में राममंदिर को लेकर जारी मुकदमे में विरोध में उतरे नेताओं ने राम को काल्पनिक पात्र बताने में हिचक नहीं दिखाई थी। मीर बाकी ने मंदिर ध्वस्त करके मस्जिद बनवायी थी, उस तथ्य को भी कांग्रेस का प्रभावी तबका नकारता रहा। कांग्रेस के इस कदम को उत्तर भारत के मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने चिढ़ाने के अंदाज में लिया। निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी को इसका भी फायदा मिला। विगत दस सालों से केंद्र की सत्ता पर वह काबिज जिन वजहों से है, उसमें एक वजह यह भी है। लेकिन कांग्रेस के बौद्धिक सलाहकारों का प्रभावी तबका इस तथ्य को या तो समझ नहीं रहा है या फिर समझते हुए भी जानबूझकर नकार रहा है।
अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह का निमंत्रण ठुकरा कर कांग्रेस वह ऐतिहासिक चूक की है, जिसका खामियाजा उसे दशकों तक सहना होगा। हो सकता है यही एक वजह कांग्रेस के अंत की वजह भी बन सकती है। कांग्रेस का कदम उसकी उसी पारंपरिक राजनीति का विस्तार माना जा सकता है, जिसमें वह सांप्रदायिकता विरोध की राजनीति को धार देने का दावा करती रही है। जिसके जरिए वह अल्पसंख्यकवाद को ही पल्लवित और पुष्पित करती रही है। ध्यान देने की बात है कि ऐसा करने के बावजूद राममंदिर आंदोलन के उभार के बाद राजनीतिक संख्या बल के लिहाज से ताकतवर उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस का समर्थक आधार लगातार कमजोर होता चला गया है।