लखनऊ। नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति किस प्रकार हुई और कितने आचार्य हुए। इस विषय मेंं विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। विद्वान इस सम्प्रदाय को जैन और बौद्ध सम्प्रदाय का पश्चातवर्ती मानते हैं। हालांकि बहुमत इस बात का है कि नाथ सम्प्रदाय आदिनाथ भगवान शंकर द्वारा प्रवर्तित है। सर्वप्रथम उनके नाम के साथ यह पद प्रयुक्त हुआ है। इस सम्प्रदाय को नाथ सम्प्रदाय की संज्ञा से प्रसिद्ध होने से पूर्व इसे सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योगी सम्प्रदाय, अवधूत मत, अवधूत सम्प्रदाय, कापालिक आदि नामों से जाना जाता रहा है। आज भी ये नाम प्रचलन मेंं हैं। इनमेंं से कापालिक संज्ञा के स्थान पर कहीं-कहीं तांत्रिक पद का प्रयोग किया जाता हैं, किन्तु इनमेंं सर्वाधिक प्रयोग होने वाले पद नाथ और योगी ही हैं।
हठयोग प्रदीपिका नामक ग्रन्थ मेंं नाथ स प्रदाय के अनेक सिद्ध योगियों के नाम दिये गये हैंं जिनके बारे मेंं विश्वास किया जाता है कि, वे सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड मेंं भ्रमणशील हैं। नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है कि, सर्वप्रथम नव नाथों की उत्पत्ति हुई जिन्हेंं अयोनिज अर्थात जन्म की साधारण प्रक्रिया मैथुन और योनि से उत्पन्न नहींं होने वाला बताया गया है। ‘महार्णव तन्त्र मेंं कहा गया है कि, ये नवनाथ ही नाथ सम्प्रदाय के मूल प्रवर्तक हैं। इस ग्रन्थ मेंं नवनाथों को अलग-अलग दिशाओं का अधिष्ठाता बताया गया है। इन नव नाथों की उत्पत्ति के बारे मेंं ‘योगिस प्रदायविष्कृति (योगाश्रम संस्कृत कॉलेज हरिद्वार के योगी चन्द्रनाथ द्वारा अनुवादित) मेंं बताया गया है कि, नव नारायण ने ही नव नाथ के रूप मेंं अवतार लिया है।
कथा के अनुसार सृष्टि रचना के पश्चात जीवों को नाश की ओर जाते देखकर शिव ने जीवों को योगमार्ग का उपदेश देने के लियेे नव नारायणों को आदेश दिया। इन नवनारायणों के नाम, उनके द्वारा लियेे गये अवतार और कौन किसका शिष्य बना यह निम्नांकित तालिका से प्रकट होता है।
क्र. सं.नवनारायण के नाम उनके द्वारा लिया गया अवतार उनके गुरु का नाम
1 कविनारायण मत्स्येन्द्रनाथ शिव
2 करभाजनारायण गहनिनाथ शिव
3.अन्तरिक्षनारायण जालन्धरनाथ शिव
4.हरिनारायण भर्तृहरिनाथ गोरक्षनाथ
5.आविर्होत्रनारायण नागनाथ गोरक्षनाथ
6.पिप्पलायननारायण चर्पटनाथ मत्स्येन्द्रनाथ
7.चमसनारायण रेवानाथ मत्स्येन्द्रनाथ
8.प्रबुद्धनारायण करणिपानाथ जालन्धरनाथ
9.द्रुमिलनारायण गोपीचन्द्रनाथ जालन्धरनाथ
ऊपरोक्त तालिका के अध्ययन से प्रकट होता है कि, नवनारायणों द्वारा ही नाथ रूप मेंं अवतार लिया गया और इस प्रकार नवनारायण ही नवनाथ हुए। इस तालिका का आगे अर्थ यह हुआ कि शिव तथा गोरक्षनाथ नवनारायण से नवनाथ बनने वालों के गुरु तो हैं, किन्तु वे न तो नवनारायणों मेंं है और न ही नवनाथों मेंं। यदि शिव तथा गोरक्षनाथ को इस सूची मेंं समिमलित किया जाए तो नवनाथ के स्थान पर यह संज्ञा ‘एकादशनाथ होगी।
इसका अर्थ यह हुआ कि आदिनाथ शिव तथा योगी गोरक्षनाथ नवनाथोंं की उस श्रंृखला मेंं शामिल नहींं हैं जो नवनारायण से नवनाथ बने हैं। इसका आगे अर्थ यह हुआ कि शिव और गोरक्षनाथ एक ही हैं और वे अपना मत नहींं बदलते, अपितु आवश्यकता होने पर योग मार्ग के प्रचार को अन्य दिव्यात्माओं को योगमार्ग मेंं दीक्षित कर उनका नेतृत्व करते हैंं।
सभी ग्रंथों से नवनाथों की सूची टटोली जाए तो नवनाथों की सं या 36 से भी अधिक हो जाती है। अपवाद को छोड़कर केवल मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ का नाम लगभग सभी ग्रन्थों में समान रूप से नवनाथों में शामिल है, जिसमें मत्स्येन्द्र्रनाथ को कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मछीन्द्रनाथ नाम से उलिलखित है। इसी प्रकार गोरक्षनाथ को भी कहीं कहीं एकनाथ नाम से स बोधित किया गया है। उपलब्ध 19 सूचियों में इन महापुरूषों के नाम की आवृति के आधार पर देखा जाए तो मत्स्येन्द्रनाथ व गोरक्षनाथ का नाम 18, चौरंगीनाथ का नाम (कूर्मनाथ को चौरंगीनाथ मान लेने पर) 15, आदिनाथ का नाम 14, सन्तोषनाथ का नाम 11, उदयनाथ व सत्यनाथ का नाम 10, अचंभनाथ, कन्थडनाथ व जालन्धरनाथ का नाम 7, नागार्जुन (नाग, नागेश, भुजंगनाथ को एक माना जाकर) का नाम 6, चर्पटनाथ तथा गाहनीनाथ (गैनी, गहिनी को शामिल कर) का नाम 5, भर्तहरि व गोपीचन्द्रनाथ का नाम 4, रेवानाथ, कनिफानाथ और दण्डनाथ का नाम 3 सूचियों द्वारा समर्थित हैं। शेष नामों की आवृति केवल एक-एक सूची में है।
यह अपेक्षा की जाती है कि, नाथ स प्रदाय के चार प्रमुख आचार्यों क्रमश: आदिनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ जालन्धरनाथ और गोरक्षनाथ का नाम तो नवनाथों की सभी सूचियों मेंं अवश्य होगा किन्तु ‘योगी स प्रदाया विश्कृति और ‘सुधाकर चंद्रिका ग्रन्थों मेंं गोरक्षनाथ को नवनाथों मेंं स िमलित नहींं किया गया। ‘नवनाथ चरित्र, ‘भारत मेंं नाथ स प्रदाय और ‘गोरक्ष सिद्धान्त संगृह मेंं जालन्धरनाथ को नवनाथों मेंं स िमलित नहींं किया गया। ‘
योगीस प्रदाय विश्कृति, ‘नवनाथ चरित्र तथा ‘चिन्तामणि विजय मेंं आदिनाथ को नवनाथों मेंं समिमलित नहींं किया गया। केवल मत्स्येन्द्रनाथ का नाम सभी ग्रन्थों मेंं समान रूप से नवनाथों मेंं शामिल है, जो कहीं पर मीननाथ और कहीं पर मत्स्येन्द्रनाथ नाम से उलिलखित है। गहनीनाथ व गैनीनाथ और जालन्धर व ज्वालेन्द्रनाथ, नागार्जुन व नागनाथ, रेवानाथ व रेवणनाथ, करणिपानाथ व कानिपानाथ को हमने एक ही मान लिया है।
नाथ स प्रदाय के अनुयायियों मेंं प्रचलित मौखिक परम्पराओं पर दृषिटपात करें तो उनमेंं भी नवनाथों के नामों पर मतैक्य नहींं मिलता। मौखिक पर परा के सन्दर्भ मेंं ‘नवनाथ जाप नाम से एक स्तुति मेंं आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, संतोषनाथ, कंथडऩाथ, अचम्भेनाथ, चौरंगीनाथ, मछन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ के नाम हैं, किन्तु इससे मिलती जुलती संज्ञा वाले नवनाथ रक्षा जाप मंत्र मेंं बालगुन्दाई (स भवत: गुसार्इं), धूंधलीमल और एक अन्य मौखिक पर परा मेंं खरमचलनाथ ऐसे नाम हैं जो न तो किसी ग्रन्थ मेंं बताये गये और न ही नाथ स प्रदाय के सन्तों द्वारा अनुमोदित हैं।
अलग-अलग स्थानों पर भाषा के उच्चारण और पर परा के कारण इन नवनाथों के नामों की वर्तनी मेंं किंचित भेद को स्वाभाविक और सामान्य बात मानकर छोड़़ दें तो इतना तो माना जा सकता है कि, उदयनाथ को उदेनाथ, सत्यनाथ को सतनाथ, अचल अच भनाथ को आंचोली अंचेपानाथ, मत्स्येन्द्र को मछन्दर और गजबेली गजकन्थडऩाथ को घोडाचोली कन्थड़ीनाथ उच्चरित किया गया है।
नाथ स प्रदाय से इतर विद्वतजनों और मौखिक पर पराओं के अतिरिक्त नाथ स प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं भी नवनाथों की सूची का अनुमान मिलता है। इस क्रम मेंं विट्ठल योगीश्वर मठ कर्णाटक के महन्त राजा पीर योगी चन्द्रनाथ ने पीर द्वारकानाथ वाणी तथा जोगमाया जाप संगृह नामक ग्रन्थों मेंं नवनाथ मंत्र जाप और नवनाथ भजन लिखा है।
मृगस्थली काठमाण्डू के पीठाधीष्वर व नेपाल के राजगुरू विद्वान योगी प्रवर नरहरिनाथ ने नाथ नित्यकर्म, नवनाथ स्वरूप वर्णन तथा नवनाथ चरित्र मेंं नवनाथों के नाम उल्लिखित किये हैं जिनकी अवधूत योगी महासभा दलीचा भेक (भेष) बारह पंथ हरिद्वार द्वारा पुष्टि की गयी है।
इसी प्रकार नवनाथों के नामक्रम मेंं सभी संश्यों का विच्छेदन करते हुए नाथ स प्रदाय की प्रमुख पीठ ‘गोरक्ष टिल्ला काशी वाराणसी से प्रकाशित ‘नवनाथ कथा नामक ग्रन्थ मेंं भी नवनाथों के वे ही नाम हैं जो उक्त दोनों महानुभावों द्वारा अपने ग्रन्थों मेंं बताये गये हैंंं। यहां उल्लेखनीय है कि, नाथ स प्रदाय के सन्तों द्वारा नवनाथों की नामावली उनके द्वारा की जाने वाली नवनाथों की वन्दनास्तुति पर आधारित होने से अधिक विश्वसनीय होने का प्रबल आधार है।
नाथ सम्प्रदाय के सन्तों द्वारा रचित ग्रन्थों मेंं नवनाथ नामावली को साररूप मेंं प्रस्तुत किया जाए तो वन्दना क्रम से जो समान नाम प्रकट होते हैंं वे इस प्रकार है। आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचल अच भनाथ, कन्थडऩाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ।
नवनाथों की नामवली की चर्चा अधूरी होगी यदि हम श्रीलंका की नाथ परंपरा में नवनाथों की चर्चा नहीं करें। श्रीलंका की परंपरा के अनुसार श्रीलंका में अवलोकितश्वर से संबद्ध नवनाथों की परंपरा का अस्तित्व है जो नाथ नाम से जानी जाती है। श्रीलंका में 9वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य लिखी गयी की संस्कृत कृति सरीपुत्र में नाथ को वर्णित किया गया है जिसके आधार पर श्रीलंका के चितेरों ने 15वीं शताब्दी में अवलोकितेश्वर को चित्रित किया है। (स्पष्ट कर दें कि सरिपुत्र नामक एक ब्राहमण महात्मा बुद्ध का एक प्रमुख शिष्य भी था जिसका नालन्दा में स्तूप है।
प्रस्तुत पंकितयां केलानिया युनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट ऑफ एस्थेटिक स्टडीज के निदेशक डॉ. आर.एम. शरत चन्द्रजीवा और इनिदरागांधी नेशनल सेंटर फार दी आर्टस की शोधकर्ता डॉ. राधा बनर्जी के शोध पत्रों पर आधारित है)। नवनाथों की अन्य समस्त सूचियों की भांति ही सरिपुत्र में भी नवनाथों की सूचि उनके स्वरूप वर्णन से युक्त है हम यहां केवल उनके नाम का उल्लेख कर रहे हैं। तदनुसार शिवनाथ, ब्रहमनाथ, विष्णुनाथ, गौरीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भद्रनाथ, बुद्धनाथ और गणनाथ हैं।
ज्ञातव्य है कि सरिपुत्र की इस सूचि में केवल आठ ही नाम हैं और गोरक्षनाथ का नाम नहीं है। सूचि में उक्त आठ नामों के तुरन्त बाद अवलोकितेश्वर के स्वरूप का वर्णन करते हुए श्रीलंका में उसकी प्रतिमाओं और चित्रों का विवेचन किया गया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि अवलोकितेश्वर को नवनाथों में सम्मिलित करते हुए उसको बौद्ध और नाथ के मध्य सन्तुलित कर दिया है। अपने शोधपत्र में एक स्थान पर अवलोकितेश्वर के साथ नाथ पद का प्रयोग करते हुए स्पष्ट कहते हैं कि श्रीलंका में विभिन्न दूरस्थ स्थानों पर अवलोकितेश्वरनाथ की प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।
अब अवलोकितेश्वर का 84 की सं यां के साथ विलक्षण संगम देखिये कि अवलोकितेश्वर के भ्रूमध्य से 84 किरणें निकल रही है और प्रत्येक किरण बुद्ध और बोधिसत्वों की इस विषाल सं या का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। अवलोकितेश्वर की प्रत्येक अंगुली के पोरों में 84000 (चौरासी हजार) तस्वीरें हैं और तस्वीर से निकलने वाली किरण जगत के सभी तत्वों को प्रकाशित कर रही हैं।
यह सुनिश्चित है कि श्रीलंका में ‘नाथ परंपरा को दक्षिण भारत की ‘अगम नामक शैव परंपरा ने स्थापित किया है। श्रीलंका की परंपरा अनुसार नवनाथ सूचि की पहली और रुचिकर विशेषता यह है कि नवनाथों के संबंध में यह प्राचीनतम अभिलेख है जो समय के साथ आज हम तक पहुंची है। दूसरे, इस सूची का परीक्षण किये जाने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जाता है कि यह भारतीय नाथ परंपरा से संबद्ध है ना कि बौद्ध संप्रदाय के वि यात एवं प्रतिष्ठित समूह जिससे कि अवलोकितेश्वर के रूप में मत्स्येन्द्रनाथ को जोडा जाता है।
विस्मय यहां समाप्त नहीं होता वरन श्रीलंका की नाथ परंपरा अनुसार अवलोकितेश्वर को महायोगी गोरक्षनाथ से संबद्ध होना बताया गया है जो कि नेपाल की नाथ परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ को अवलोकितेश्वर बताया जाता है।
श्रीलंका की केलानिया यूनिवर्सिटी के इन्स्टीटयूट आफ ऐस्थेटिक स्टडीज के निदेशक डॉ. आर.एम. सरथ चन्द्रजीवा के अनुसार अवलोकितेष्वर नाम प्रारंभिक बौद्ध ग्रन्थों यथा प्रथम शताब्दी के उत्तर भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक अश्वघोष (80-150 ई0) जो बाद में बौद्ध भिक्षु बना के ग्रंथ ललित विस्तार, दिव्य वन्दना और जातक माला आदि में प्रकट नहीं होता।
द्वितीय शताब्दी में संस्कृत से चीनी और जापानी तथा आधुनिक काल में विद्वान मेक्स मुलर द्वारा अनुवादित सुखवतीव्यूह ग्रंथ में बोधिसत्व अवलोकितेश्वर को बुद्ध का पुत्र होना बताया गया है और चौथी से सातवीं शताब्दी के मध्य लिखित गुण-करन्दव्यूह सूत्र, अमितयुध्र्यन सूत्र तथा सधर्म पुण्डरीक सूत्र में अवलोकितेश्वर को अदभुत शक्तियों का स्वामी बताया जाकर गुणगान किया गया है। श्रीलंका मेें अवलोकितेश्वर का प्राकट्य 8वीं शताब्दी के शिलालेख में होता है जो अवलोकितेश्वर के संबंध में आरंभिक और प्राचीन है। शिलालेख में अवलोकितेश्वर, बुद्ध और मंजूश्री को त्रिमूर्ति कहा गया है।
नवनाथों की इतनी संक्षिप्त सूची के संबन्ध मेंं इतने मत मतान्तर क्यों हैं?
उत्तर इतना सहज नहींं है किन्तु इस ग्रन्थ की प्रस्तावना मेंं उल्लिखित प्रथत वाक्यांश (विश्व मेंं मानव समाज अपनी इकाइयों के प्रत्येक स्तर पर अपने दर्शन, संस्कृति साहित्य और इतिहास को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयास मेंं लगा रहता है) के प्रकाश मेंं विचार करें तो-
1.सर्वप्रथम यह अवधारणा सत्य ही सिद्ध होती है कि, समय समय पर अलग-अलग स्थानों पर उत्साहित और समर्पित शिष्यों ने अपनी सुविधा अनुसार नवनाथों मेंं से किसी एक के नाम के स्थान पर अपने गुरू का नाम प्रतिस्थापित कर दिया।
2. यह एक सुस्थापित तथ्य है कि, इस सम्प्रदाय मेंं यधपि सभी वर्ण एवं वर्गों के लोग अनुयायी हुए, किन्तु इनमेंं क्षत्रिय कही जाने वाली जातियों और राजा महाराजाओं का प्रतिशत सर्वाधिक है। यहां यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि अन्य स प्रदायों से इतर नाथ सम्प्रदाय ही एक ऐसा स प्रदाय है, जो राज्याश्रय के कारण पल्लवित और पोषित नहींं हुआ वरन राजा महाराजाओं ने इस स प्रदाय का आश्रय लिया। जहां कहीं राजा, महाराजा व स पन्न व्यक्तियों ने नाथ सम्प्रदाय की दीक्षा ली उन्होंने अथवा उनके समीपस्थ सहायकों ने स्थान विशेष की पर परानुसार नवनाथों के नामों का चित्रण, मुद्रण एवं ग्रन्थ रचनायें करवा दीं, जो आज नवनाथों के नामों के संबन्ध मेंं मतभिन्नता का कारण बनी हुयी हैं।
3.तीसरा अनुमान यह है कि, नाथ सम्प्रदाय की मान्यता अनुसार स्वयं योगी गोरक्षनाथ ने शास्त्रों के पठन-पाठन को महत्त्वहीन मानते हुए कहा है मैंं कहता हूं कि यदि वे मेरा उपदेश मानें तो सभी ग्रन्थों को कुएं मेंं फेंक देें क्योंकि आधुनिक समय मेंं जो स्वयं ही मुक्त नहींं हैं, वे दूसरों को मोक्ष का उपदेश देने मेंं किस तरह समर्थ हो सकते हैं? ये निपुणता प्रदर्शन, अभिमान, जीविकोपार्जन, व्यसन अथवा किसी भी अभिलाषा की पूर्ति के लियेे शास्त्र रचना करते हैंंं, वह रचनायें पारमार्थिक पुरुषों के समक्ष क्या महत्व रखती है? ग्रन्थों की ग्रन्थी को काटने के लिये इस प्रकार का उद्योग करने और उपदेश देने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकले शब्दों को महायोगी गोरक्षनाथ के शब्दों के पासंग में रखकर देखें तो श्रीकृष्ण भी यही तो कह रहे हैं।
यामिमां पुषिपतां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चित। वेदवादरता पार्थ नान्यदस्तीति वादिन।।
कामात्मन स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम। क्रियाविशेषबहुलां भोगैष्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैष्वर्यप्रसक्तानां तयापहतचेतसाम। व्यवसायातिमका बुद्धि समार्धा न विधीयते।।
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निन्द्र्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान।।
यावानर्थ उदपाने सर्वत संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राहमणस्य विजानत:।।
अर्थात अल्पबुद्धि मनुष्य वेदों के उन आलंकरिक वचनों में बहुत आसक्त रहते हैं जिनमें स्वर्ग, उच्चकुल, ऐष्वर्य और भोगों को देने वाले सकामकर्मों का विधान है। भोग और ऐश्वर्य की अभिलाषा के कारण ही वे ऐसा कहते है कि इनसे (वेद, ग्रन्थ आदि) श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। जो मनुष्य विषयभोग और लोकिक ऐश्वर्य में प्रगाढ़ आशक्ति के कारण इस प्रकार स मोहित हो रहे हैं उनके चित्त में मन की एकाग्रता का दृढ़ निश्चय नहीं होता। वेद तो मु यत:(केवल) प्रकृति के तीन गुणों का विषय (वर्णन) करने वाले हैं। हे अर्जुन, तू इन गुणों का उल्लंघन कर के इनसे अतीत हो जा और स पूर्ण द्वन्द्वों तथा प्रापित व सरंक्षण के विचार से मुक्त होकर अपने आप में स्थित हो जा।
इसी आधार पर अधिकांश गुरुओं ने भी शास्त्रों को महत्व नहीं दिया और केवल गुरू के सान्निध्य मेंं रहकर मौखिक ज्ञान की शिष्य पर परा से ही योग साधना पल्लवित होती रही है। स्मृतियों और श्रुतियों के सन्दर्भ मेंं यह कोई नयी बात भी नहींं है। देश, काल और परिस्थितियों के कारण जो परिणाम स्मृतियों और श्रुतियों का हुआ, वही परिणाम नवनाथ नामावली मेंं भी अनपेक्षित नहींं है।
4.एक अन्य अनुमान के अनुसार जैसा कि विदित है कि, नाथ स प्रदाय मेंं बारह और अटठारह पंथों मेंं से योगी गोरक्षनाथ द्वारा बारह पंथों का पुनर्गठन किया गया, किन्तु उनके पश्चात इन बारह पंथों के अनेक उपपंथ और उपपंथों की अनेक शाखा-उपषाखाएं विकसित होती रहीं। गुरू को सर्वोच्च स मान देने की मानसिकता के कारण अनुयायियों द्वारा अपने पंथ के प्रवर्तक का नाम नवनाथों की नामावली मेंं रखकर उनकी वन्दना करने की प्रबल स भावना इस अनुमान को और भी पुष्टि कर देती है। समय व्यतीत होने के साथ-साथ यह एक पर परा बन गयी और इस प्रकार विभिन्न नवनाथ नामावलियों का असितत्त्व कोई आष्चर्य की बात नहींं है।
सारांष यह है कि, एक अन्तहीन बहस और सभी तर्क वितर्कों को विराम देने के लियेे हमेंं एक सर्वमान्य मापदण्ड का आश्रय लेना होगा। नाथ सम्प्रदाय के बाह्य और लिखित पर पराओं तक सीमित रहने वाले इतिहासज्ञों और साहित्यकारों द्वारा किया गया शोध एवं समीक्षा यधपि बहुत महत्त्वपूर्ण है किन्तु उन्हें मान्यता नहींं दिये जाने के कारणों का उल्लेख हम प्रस्तावना मेंं कर चुके हैं। इन महानुभावों के मत को नाथ स प्रदाय के बाहर तो कमोबेष मान्यता मिल सकती है किन्तु इतनी कुशलतापूर्वक किये गये प्रदर्शन को भी नाथ स प्रदाय के सन्त व अनुयायियों द्वारा स्वीकार नहींं किया गया।
अत: आवश्यक है कि, जिस स प्रदाय के प्रथम प्रवर्तकों का अनुमान लगाना चाह रहे हैं, उस स प्रदाय के मनीषियों से अनुमोदित सर्वत्र व सर्वाधिक प्रचलित मान्यताओं व प्रमाणों को महत्त्व देना होगा। केवल अपने गं्रथ को पूरा करने की ललक मेंं बाहरी और सतही सामग्री को आधार बनाया जायेगा, तो साहित्यकारों, दार्शनिकों व इतिहासकारों द्वारा शोध का प्रपंच चलता रहेगा और वे कभी भी एकमत नहींं हो पायेंगे।
हमने देखा कि ‘योगीस प्रदायाविष्कृति और आचार्य द्विवेदीजी द्वारा ‘नाथस प्रदाय पुस्तक मेंं दी गयी नवनाथ सूचीयां, नवनाथ स्वरूप मंत्र मेंं उल्लेख किये गये नवनाथों से भिन्न तो हैं ही, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन नवनाथों मेंं से केवल मत्स्येन्द्रनाथ का नाम ही तीनों सूचीयों मेंं समान रूप से है। जहां विचारकों मेंं किसी विषय को लेकर मतभेद हों वहां पर परा के आधार पर संषय का निवारण तथा मत को स्थापित किया जाना चाहिये, क्योंकि पर परा किसी कालखण्ड से चले आ रहे किसी व्यवहार की निरन्तरता को प्रमाणित करती है।
इस प्रकार हैं ऐसी मान्यता है। इस प्रकार नाथ स प्रदाय मेंं प्रचलित नवनाथ ध्यान, वन्दना व स्तुति मंत्रों मेंं चहुंदिष जिन नामों का प्रचलन है और इस स प्रदाय के सन्तों द्वारा जिन नामों का अपने योग ग्रन्थों मेंं वर्णन किया है वे नवनाथ क्रमश: आदिनाथ, उदयनाथ, सत्यनाथ, सन्तोषनाथ, अचल अच भनाथ, कन्थडऩाथ, चौरंगीनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ ही हैं। नाथयोगियों द्वारा सन्ध्या उपासना मेंं उच्चरित की जाने वाली नवनाथ स्तुति इस प्रकार है।
आदिनाथ –
ओम गुरुजी। ओमकारो आदिनाथ ओमकार स्वरूप बोलियेे। उदयनाथ माता पार्वती धरती स्वरूप बोलियेे। सत्यनाथ ब्रहमाजी जल स्वरूप बोलियेे। सन्तोषनाथ विष्णुजी खड्गखाण्डा तेज स्वरूप बोलियेे। अचल अच भनाथ आकाश स्वरूप बोलियेे। गजबलि गजकंथडानाथ गणेषजी गज हसित स्वरूप बोलियेे। ज्ञानपारखी सिद्ध चौरंगीनाथ अठारह हजार वनस्पति स्वरूप बोलियेे। मायारूपी मत्स्येन्द्रनाथ मायारूपी बोलियेे। घट पिण्ड नवनिरन्तरे रक्षा करन्ते श भुयति गोरक्षनाथ बाल स्वरूप बोलियेे। इतना नवनाथ स्वरूप मंत्र स पूर्ण भया, अनन्त कोटि सिद्धों मेंं नाथजी ने कथ पढ़ सुनाया। नाथजी गुरुजी को आदेश! आदेश!!
योग में षट चक्रों के वर्णनानुसार जीवधारी के गले में विशुद्ध चक्र का स्थान है जो शुद्ध अन्तरिक्ष के आकाश रूप से संबद्ध है। विशुद्ध चक्र रूद्र ग्रंथी के नि न केन्द्र के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह सहस्त्रारब्रहमरन्ध्रदषम द्वार के साथ मस्तिष्क में भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा चक्र को स्थापित करता है। यह विशुद्ध चक्र मानव शरीर के आकाश तत्व का आधार है जो राग, द्वेष, भय, लज्जा और मोह को उत्पन्न करने का उत्तरदायी है। योगी (मानव) के लिये विशुद्ध चक्र को पार करना केवल ओंमकार में लय (सूर्य और चन्द्रमा (ह-सूर्य, ठ-चन्द्रमा अर्थात हठ योग) के योग) अर्थात नितान्त शुद्ध स्थिति द्वारा ही संभव है। इसीलिये इसे विशुुद्ध कहा जाता है। आदिनाथ को ज्योति स्वरूप भी कहा जाता है।
उदयनाथ
क्रम सोपान के अन्तर से उदयनाथ द्वितीय स्थान पर हैं और यह नाम शिव की भार्या पार्वती को दिया गया है और स पूर्ण पृथ्वी उनका स्वरूप है। यह समझना आवश्यक है कि, यहां पृथ्वी से तात्पर्य केवल हमारे सौरमण्डल के इस पृथ्वी ग्रह से नहींं है वरन अन्तरिक्ष मेंं जितने भी ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, उनका भू-मण्डल षिव भार्या पार्वती का स्वरूप है। पर्वत की पुत्री होने के कारण इन्हें पार्वती और जीव को सर्वप्रथम अपने अपनी निजा शकित से उत्पन्न, पल्लवित और पोषित करने के कारण इन्हें दिव्य शक्ति, महा शक्ति, धरती रूपा, माही रूपा, पृथ्वी रूपा, प्राण नाथ, प्रजा नाथ, उदयनाथ, भूमण्डल आदि कहा गया। पृथ्वी तत्व मूलाधार चक्र से संबंद्ध है जो गुदा के मध्य सिथत एक वलय है जो अन्य सभी का आधार है। भौतिक जगत के सृजन से पूर्व आदि शक्ति ने अदृश्य वलयों का निर्माण किया जो चक्र कहे जाते हैं।
यह शिव की निजा शक्ति (व्यक्तिगत सामथ्र्य) जो उनसे भिन्न नहीं होकर समस्त सृष्टि को प्रकार चलायमान रखती है कि ये महान दिव्य युगल समस्त दृष्टमान एवं बोधग य तत्वों का उत्पादन और भरण करता है। जहां शिव समस्त चराचर जगत में आत्मतत्व है तो यह शक्ति उस चराचर जगत का रूप है। शिव समस्त सृषिट में बीज है तो यह शक्ति उस बीज को अपने कलेवर में ढांपती और उसका सरंक्षण करती है। जिस प्रकार एक चेहरा दर्पण में प्रतिबि िबत होकर दो अथवा अनेक बि बों में दिखाई देकर भी एक ही होता है, उसी प्रकार सृजन के समय माया रचित अनेक कारणों से बाहय अद्वैत बृहम शिव और उनकी निजा शक्ति द्वीआयामी और बहुआयामी हो जाती है।
सत्यनाथ (ब्रहमा)
तृतीय स्थान पर सत्यनाथ नाम से ब्रहमा पदस्थापित है, जिनको जलस्वरूप कहा गया है। कहने की आवश्यकता नहींं है कि, सृष्टि के समस्त जीवों, चल व अचल पदार्थों के निर्माण मेंं जल एक प्रमुख तत्त्व है। इन्हें प्रजा (सृष्टी पति) पति भी कहा जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्मा की उत्पति विष्णु के नाभि कमल से होना सर्वविदित है। जलतत्व स्वाधिष्ठान चक्र से संबंधित है जो जननेन्द्रियों के तल में स्थित है और मानव शरीर के स्व का आसन है। ज्ञान गूदड़ी नामक गं्रथ के अनुसार ब्रह्मा भी सृष्टि करने की इच्छा के कारण इस जगत प्रपंच में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं। आदि पुरुष इच्छा उपजाई, इच्छा साखत निरंजन मामही।। इच्छा ब्रहमा, विष्णु, महेषा। इच्छा शारदा, गौरी, गणेषा।। इच्छा से उपजा संसारा। पंच तत्व गुण तीन पसारा।। (ज्ञान गूदड़ी)
सन्तोषनाथ (विष्णु)
चतुर्थ स्थान पर सन्तोषनाथ नामान्तर्गत विष्णु विराजित है, जो तेजस्विता लियेे हुए हैं। आज विज्ञान जगत सहित समस्त संसार यह मान चुका है कि, हमारे शरीर मेंं एक ज्योतिपुंज है जिसे हम योगा यास के माध्यम से अपने ही शरीर मेंं देख सकते हैं। शरीर मेंं इस ज्योतिपुंज की उपस्थिति ही जीवन के अस्तित्व को सिद्ध करती है। सूर्य के साथ ज्योति अग्नि तत्व मणिपुर चक्र से संबंधित है जो नाभि क्षेत्र में स्थित है। मणिपूर चक्र मानव देह का विशुद्ध केन्द्र बिन्दु है और इस देह रूपी सौरमण्डल के सूर्य के समान है। विष्णु सन्तुष्टि का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है, इस सृष्टि का संचालक, सन्तुलनकर्ता होते हुए भी निर्लिप्त व संतुष्टि भाव से अपने कर्तव्य का पालन करता है।
अचल अचभनाथ (विष्णु, शेषनाग अथवा अन्तरिक्ष)
पांचवें स्थान पर अच भनाथ नाम से आकाश तत्व का उल्लेख है और इसकी प्रकृति अचल बतायी गयी है। गीता के दूसरे अध्याय के चौबीसवें श्लोक-
अच्छेधोक यमदाषोक यमक्लेधोक षोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणूर्चलोक यं सनातन:।।
के सन्दर्भ मेंं यह तत्त्व स्थायित्व लियेे सर्वत्र व्याप्त आत्मा का द्योतक है। स्थायी होने के कारण अमरत्व के समस्त गुण अर्थात अकाट्य, अभेध, अशोष्य, अदाहय आदि इसमेंं समाहित हैं। इन दोनों तत्वों पर आगे विचार किया जावे तो ये सभी तत्वगुण एक ही परमसत्ता आत्मा की ओर संकेत करते हैंंं जो, स पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। पृथ्वी को अपने फन पर स्थिर और अचल भाव से धारण करने के कारण शेषनाग को भी अचलनाथ कहा जाता है किन्तु यहां सूर्य और चन्द्र नाडी में लय के द्वारा वायु को स्थिरअच िभत अर्थात अचल कर देने की क्रिया भी संकेतित हो सकती है।
गजबेली कन्थड नाथ (गणेष)
छठे स्थान पर हाथी को कन्थडऩाथ नाम दिया है। इस स बन्ध मेंं कोई बहुत तार्किक तथा सटीक अनुमान उद्वेलित नहींं होता। हाथी को ही क्यों कन्थडऩाथ का स्वरूप अथवा प्रतीक बताया गया? इस विषय पर विचार करते हैंंं तो दो अनुमान प्रकट होते हैं। पहला यह कि आदिनाथ षिव ने हाथी की खाल को अपना कन्थाकन्थड़ी (अधोवस्त्र) बनाया। बेली का अर्थ साथी तथा गज का अर्थ मर्यादा भी होता है। संक्षेप मेंं तात्पर्य यह कि नाथ स प्रदाय के मनीषियों द्वारा अपने प्रथम आराध्य शिव द्वारा हाथी के चर्म को यह स मान देने के कारण इसे नवनाथों मेंं स िमलित किया गया होगा। इस अनुमान को स्वीकार करने का यह तर्क अत्यन्त कमजोर है। इस आधार पर तो षिव द्वारा अपने शरीर पर धारण की गयी समस्त विचित्रताओं को नाथान्त नाम से इस सूची मेंं लेना होगा।
दूसरा अधिक सटीक किन्तु फिर भी विवाद योग्य अनुमान यह है कि, हाथी सृष्टि निर्माण मेंं प्रयोग किये गये स्थूल तत्वों का प्रतीक है। यधपि स्थूलता के दृषिटकोण से देखा जावे तो किसी अन्य जीव को प्रतीक बताया जा सकता था। किन्तु इस क्रम में गज अथवा हाथी के सर्वाधिक सम्मानित व प्रचलित नाम गणेश पर विचार किया जावे तो बहुत विलक्षण तथ्य प्रकाश में आते हैं। शास्त्रों के अनुसार महादेव द्वारा शीष विच्छेद के बाद गणेश को इन्द्र के ऐरावत हाथी का शीष काटकर लगाया गया जो सामूहिक रूप से इन्द्रियों की अविभक्त शक्ति व संपतियों का प्रतीक है।
मत्स्येन्द्रनाथ (मायारूप)
नवनाथों मेंं सबसे अधिक चर्चित नाम मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरक्षनाथ है। मत्स्येन्द्रनाथ को माया स्वरूप कहा गया है। संस्कृत मेंं मा का अर्थ नहींं है तथा या का अर्थ है जो। अर्थात जो नहींं है किन्तु फिर भी है और इसके उलटक्रम से जो है किन्तु फिर भी नहींं है, वह माया है। मत्स्येन्द्रनाथ को दादागुरू कहा जाता है और जिस प्रकार परिवार में पितामह को अपने प्रपौत्रों से स्नेह व अनुराग होता है मत्स्येन्द्रनाथ को भी अपने पुत्र (शिष्य) महायोगी गोरक्षनाथ के पुत्रों (शिष्यों) से अनुराग है और परिवार में पितामह का अपने प्रपौत्रों की त्रुटियों को क्षमा करने की स्वाभाविक प्रवृति वाला होने से मत्स्येन्द्रनाथ को कृपालु भी कहा जाता है।
निस्सन्देह सीखने की किसी भी पद्धति और प्रक्रिया में शिक्षार्थी से त्रुटी होना संभव है, नाथ स प्रदाय के दादा गुरू मत्स्येन्द्रनाथ कृपापूर्वक उन त्रुटियों को क्षमा कर देते हैं। नाथयोगियों की मान्यता अनुसार जीवन शिव और उसकी निजाशक्ति का खेल है और स पूर्ण चराचर जगत का प्रपंच शिव द्वारा स्थापित विधि के अनुरूप ही होता है।
गोरक्षनाथ (बाल रूप)
महायोगी गोरक्षनाथ को शिव का अवतार मानते हैं और शिवस्वरूप मानने के कारण ही शिवगोरक्ष की संज्ञा से उच्चारित करते हैं। यधपि आदिनाथ सृष्टि के प्रथम देव हैं किन्तु गोरक्षनाथ ने योगा यास द्वारा स्वयं को उससे एकात्म कर लिया और इस प्रकार गोरक्षनाथ व आदिनाथ भिन्न नहीं है। गोरक्षनाथ नवनाथों में सर्वोपरि है और पवित्रता में आदिनाथ से अभिन्न होते हुए सृष्टि संचालन के लिये विभिन्न काल एवं भूखण्डों में प्रकट होते हैं। महायोगी गोरक्षनाथ का विशद वर्णन (हमारे ज्ञान की सीमा के अनुसार) तो पृथक से अगले अध्याय में करने का प्रयास किया है। प्रस्तुत प्रसंग में नवनाथों के स्वरूप को समझने के प्रयत्न में उनके बालरूप से मिलने वाला संकेत हमारा लक्ष्य है।
गोरक्षनाथ को एक बालक की भांति निष्कपट, निष्पाप और निर्मल होने से पार्वती का ऐसा पुत्र भी कहा जाता है जो सृष्टी के नियमों से परे अद्वैत है और सभी देव, दानव, नर, किन्नर, यक्ष, गन्धर्व, नाग, वानर, जलन्द, परन्द, चर, अचर, उभयचर आदि जीवों के नैसर्गिक गुण मैथुन से नितान्त नि:षेष होने के कारण जती (यती अर्थात जगत प्रपंच से अनासक्त) है। यती एक बालक की वो अवस्था है जहां उसे अपनी नग्नता का कोई आभास भी नहीं है। महायोगी गोरक्षनाथ अयोनिज (जिसकी उत्पति मैथुन जनित परिणाम न हो) है किन्तु सूर्य और चन्द्रमा की युति का माध्यम होकर भी वह उससे अप्रभावित ही रहता है। षिव ही कि तरह महायोगी गोरक्षनाथ के भी तीन नेत्र हैं। बायां नेत्र चन्द्रमा, दाहीना नेत्र सूर्य और भ्रूमध्य में ज्ञानचक्षु है जिसे षिव नेत्र भी कहा जाता है।
प्रथम देव आदिनाथ के सदृश्य होने से महायोगी गोरक्षनाथ को स्वयं ज्योतिस्वरूप (जो स्वयं की ज्योती से प्रकाशित है) भी कहा जाता है। षिव से एकात्म हो चुका योगी जब स्वयं में, सर्वत्र और समस्त तत्वों में षिव का ही प्रतिबि ब देखता है तो अद्वैत हो चुके योगी के लिये कुछ भी धृणित और भयकारक नहीं रह जाता क्योंकि उसे सब में स्वयं का ही आभास होने लगता है। श्रीमदभगदगीता में श्रीकृष्ण ने छठे अध्याय के 30वें श्लोक में यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणष्यामि स च मे न प्रणश्यति।। कह कर इस अद्वैत दर्शन को समझाया है तो नाथयोगियों द्वारा घट-घट वासी, गोरक्ष अविनाशी, टले काल मिटे चौरासी।। कह कर गोरक्ष (शिव) के सर्वत्र व सभी में व्याप्त होने की अवधारणा की जाती है।
लेखक
महेंद्र इरुल
वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ