नवरात्रों में नवदुर्गा की साधना
नवरात्रों में माता भगवती की पूजा अराधना से महान पुण्यफल की प्राप्ति होती है। नवरात्र के प्रथम दिवस से लेकर नवम दिवस तक माता के नौ रूप होते हैं, उस नौ रूपों का वर्णन इस प्रकार है-
प्रथम भगवती- शैलपुत्री
भगवती दुर्गा के पहले स्वरूप को शैलपुत्री के नाम से जाना जाता है। पर्वतराज हिमालय की ये पुत्री थीं। इसलिए इनका नाम श्ौलपुत्री के रूप में विख्यात हुआ। वृषभ पर आरूढ़ होने वाली इन भगवती के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाये हाथ में कमल सुशोभित रहता है। यह नव दुर्गा का पहला स्वरूप है। पूर्व काल में यही देवी प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। उस समय यह सती के नाम से विख्यात हुई थीं। इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था।
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एक समय की बात है कि प्रजापति ने एक यज्ञ का आयोजन किया और सभी देवी-देवताओं को यज्ञभाग को ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया। सती को जब यह पता लगा कि उनके पिता यज्ञ कर रहे है, तो उन्होंने भगवान शंकर से यज्ञ में शामिल होने की इच्छा जताई, लेकिन भगवान शंकर ने सती से कहा कि उनके पिता ने उन्हें आमंत्रण नहीं भ्ोजा है, ऐसी स्थिति में वहां जाना अनुचित होगा लेकिन सती वहां चली गई, लेकिन भगवान शंकर का प्रजापति द्बारा अपमान होने पर उन्होंने वहीं योगाग्नि द्बारा स्वयं को भस्म कर दिया। इस घटना से भगवान शंकर क्रुद्ध हो गए और उन्होंने अपने गणों को भ्ोज कर दक्ष के यज्ञ को पूरी तरह से विध्वन्स कर दिया। अगले जन्म से यही सती श्ौलपुत्री के रूप में विख्यात हुईं। पार्वती व हैमवती भी इन्हीं के नाम हैं। नवरात्र के पहले दिन इन्हीं की पूजा व उपासना का विधान है। भगवती के इस स्वरूप की उपासना करके योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से योगी की योग साधना शुरू होती है।
प्रथम नवरात्रे में पूजन विधान
शैलपुत्री-नवरात्र में प्रथम दिन शैलपुत्री की उपासना की जाती है। माता की उपासना आराधना हेतु इस मंत्र का पाठ करें-
वंदे वांछित लाभाय चन्द्रार्ध शेखरम।
वृषारुढां शूलधरां शैलपुत्रीं यशश्विनीम।।
द्बितीय भगवती- ब्रह्मचारिणी
यह भगवती का दूसरा स्वरूप है। यहां ब्रह्म का आशय है तप। ब्रह्मचारिणी का आशय है कि तप का आचरण करने वाली। माना जाता है कि वेद, तत्व और तप ब्रह्म के अर्थ हैं। ब्रह्मचारिणी के ज्योतिर्मय स्वरूप में भगवती दाहिने हाथ में जप की माला और बाए हाथ में कमंडलु धारण करती हैं। ये हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब नारद जी के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकर पति रूप में हासिल करने के लिए कठिनतम तप किया था। इस दुष्कर तप के कारण ही उन्हें तपश्चारिणी यानी ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हुईं। एक हजार वर्ष तक उन्होंने फल-मूल खा कर व्यतीत किए थ्ो।
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सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्वहन किया था। कठिन उपवास रखते हुए वर्ष व धूप में कठोर तप किया। इस कठिन तप के बाद भी वे तीन हजार वर्षो तक वह केवल जमीन पर गिरे बेलपत्रों को खाकर भगवान शंकर की अराधना करती रहीं। कालांतर में उन्होंने हजारों वर्ष तक निर्जल व निराहार रहकर तप किया। पत्तों को खाना छोड़ देने की वजह से वह अपर्णा कहलाई, देवी के 1०8 नामों के जाप में अपर्णा नाम का जाप भी किया जाता है। उनकी तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया, तब परमपिता ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी कर कहा कि हे देवी, ऐसी कठोर तपस्या किसी ने नहीं की, ऐसी तपस्या तुम्हारे द्बारा ही सम्भव है। अब तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं, शीघ्र ही तुम्हें शिव जी पति रूप में प्राप्त होंगे। माता दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों व सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। कठिन से कठिन परिस्थिति में मन विचलित नहीं होता है। मां ब्रह्मचारिणी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि व विजयी प्राप्त होती है। नवरात्रि के दूसरे दिन इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक के मन में स्वाधिष्ठान चक्र स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले योगी को भगवती की कृपा व भक्ति मिलती है।
द्वितीय नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के दूसरे दिन भगवती ब्रह्मïचारिणी की पूजा अर्चना की जाती है जो निरोगता प्रदान करती हैं ब्रह्मïचारिणी देवी का रूपरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला तथा बायें हाथ में कमंडल शोभायमान है देवर्षि नारद केउपदेश से इन्होंने कठिन तप करके भगवान शिव जी को पति रूप में प्राप्त किया-
दधाना कर पद्माभ्यामक्ष माला कमण्डलू।
देवी प्रशीदतु मयि ब्रहचारिण्यनुत्तमा।।
माता की भक्ति भाव से की गयी पूजा आराधना से सम्पूर्ण परिवार नीरोग तथा सुखी होता है।
मनोकामना पूर्ति हेतु माँ की मूर्ति स्थापित करके पंचोपचार विधि से पूजन करें तथा दूध से निर्मित वैवेद्य माँ को अर्पित करें। शुद्घ घी की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहे और १०८ बार-ऊँ ब्रह्मïाचारिण्यै नम: का जाप कर पाठ की समाप्ति करें।
तृतीय भगवती- चंद्रघंटा
जगतजननी दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम चंद्रघंटा है। नवरात्रि के तीसरे दिन इन्हीं का पूजन-अर्चन किया जाता हे। भगवती का यह स्वरूप परम शांतिकारक और कल्याणकारण है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अध्र्यचंद्र है। इसी वजह से इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान ही चमकीला है। इनके दस हाथों में खड्ग व धनुष वाण आदि शस्त्र हैं। सिंह पर सवार माता चंद्रघंटा की मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली होती हैं। इनके घंटे के ध्वनि से अत्याचारी दानव, दैत्य व राक्षण प्रकम्पित होते रहते हैं।
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नवरात्रि के तीसरे दिन इनके पूजन का विश्ोष विधान है। इन दिन साधक के मन में मणिपूर चक्र प्रविष्ट होता है। मां चंद्रघंटा की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं की दर्शन होते हैं। विविध दिव्य ध्वनियां व सुगन्धियों का अनुभव करता है। ये क्षण साधक के लिए बेहद सावधान रहने के होते हैं। मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक के सभी पाप और बाधाएं नष्ट हो जाती हैं। इनकी अराधना सदा फलदायी है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए अभिमुख रहने वाली होती है, इसलिए मां भक्तों संकटों को जल्द ही हर लेती हैं। इनका उपासक निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि भक्तों की प्रेत बाधाओं से रक्षा करती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिए इस धंटे की ध्वनि निनादित हो उठती है। भगवती के इस स्वरूप के ध्यान से साधक के मुख, नेत्र और सम्पूर्ण काया में कांति गुण की वृद्धि होती है। इन भगवती के साधक के शरीर से भी दिव्य प्रकाशयुक्त परमाणुओं का अदृष्य विकिरण होता है। यह दिव्य क्रिया साधारण चक्षुओं से नहीं दिखलाई देती है, लेकिन साधक और उसके सम्पर्क में आने वालों के अनुभव में आती है। भगवती के इस स्वरूप के ध्यान से मनुष्य के दोनों लोक सुधर जाते हैं।
तृतीय नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के तीसरे दिवस माँ की तीसरी शक्ति चन्द्रघण्टा की पूजा होती है। श्री माता का यह स्वरूप परम शान्तिमय एवम सुखदायी है। इनके मस्तक में घंटे के आकार का अद्र्घचन्द्र है जिस कारण इन्हें चन्द्रघण्टा कहा जाता है। माता के घंटे की भयानक ध्वनि सुनकर असुर भयभीत होते हैं और भक्तों की प्रसन्नता बढ़ती है। अर्थात दुष्टों का दमन करने वाली देवी सदैव भक्तों का कल्याण करती हैं।
पिण्डज प्रवरारुढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते महयं चन्द्र घण्टेति विश्रुता।।
मात के चरण कमल का ध्यान करते हुए हाथ में रक्तवर्ण पुष्प लें और मत्र का पाठ करने के पश्चात पुष्प उनके चरणों में रख दें। इस प्रकार १०८ बार मंत्र का जाप करें। मंत्र जप के पूर्व माँ का यंत्र और अखण्ड दीपक ज्योति का पंचोपचार विधि से पूजन करें।
ऊँ चं चं चं चन्द्रघण्टाये हुं
देवी चन्द्रघण्टा की कृपा से साधक को गुप्त धन या आकस्मित धन की प्राप्ति होती है।्र
भगवती का चतुर्थ स्वरूप कूष्माण्डा
मां दुर्गा के चौथ्ो स्वरूप को कूष्माण्डा नाम से जाना जाता है। अपनी मंद व हलकी हंसी से इन्होंने अंड यानी ब्रह्मांड की उत्पत्ति की है। इसलिए इन्हें कूष्माण्डा नाम से जाना जाता है।जब सृष्टि का ब्रह्माण्ड में अस्तित्व ही नहीं था, हर तरह अंधकार ही अंधकार व्याप्त था, तब भगवती के इन्हीं स्वरूप ने अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी, इसलिए इन्हें सृष्टि की आदि स्वरूप देवी माना जाता है। यही आदि शक्ति हैं, इनसे पूर्व ब्रह्माण्डा का अस्तित्व नहीं था।
इनका निवास सूर्य मंडल के भीतर के लोक में है। सूर्य मंडल में निवास करने की क्षमता और शक्ति मात्र इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान दैदीप्यमान है। इनके तेज की तुलना अन्यत्र कही नहीं की जा सकती है। अन्य कोई भी देवी देवता इनके तेज व प्रभाव की समता नहीं कर सकते हैं। इन्हीं तेज से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्माण्ड में अवस्थित सभी वस्तुओं व जीवों का तेज इन्हीं की छाया है। भगवती के इस स्वरूप की आठ भुजाएं हैं। इन्हें अष्ठभुजा के नाम से जाना जाता है। इनके सात हाथों में कमंडलु, धनुष, वाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र व गदा सुशोभित रहती है, आठवें हाथ में सभी सिद्धियां व निधियां देने वाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।
संस्कृत भाषा में कूष्माण्डा यानी कुम्हड़े को कहते हैं। बलियों में कुम्हड़े की बलि इन्हें प्रिय मानी जाती है। इस कारण इन्हें कूष्माण्डा कहा जाता है। नवरात्रि के चौथ्ो दिन देवी के इन्हीं स्वरूप की पूजा की जाती है। इस दिन साधक के मन में अनाहत चक्र अवस्थित होता है, इसलिए इस दिन साधक को अत्यन्त पवित्र और अचंचल भाव से कूष्माण्डा देवी का पूजन अर्चन करना चाहिए। मां कूष्माण्डा की कृपा से रोग व शोक नष्ट हो जाते हैं। आयु, यश व आरोग्य प्रदान करती हैं। मां कूष्माण्डा अल्प सेवा व भक्ति से प्रसन्न हो जाती हैं। यदि मनुष्य सच्चे मन से भगवती के इस स्वरूप की पूजा करे तो उसे नि:संदेह परमगति प्रदान होती है। हमे चाहिए कि शास्त्रों में वर्णित विधि विधान से मां दुर्गा की उपासना व भक्ति करे। साधक भी मातृ कृपा को अनुभव जल्द ही करने लगता है। लौकिक व परालौकिक उन्नति के लिए साधक को इनकी उपासना के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
चतुर्थ नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के चौथे दिन आयु, यश, बल एवम ऐश्वर्य प्रदायिनी भगवती कुष्माण्डा की पूजा आराधना का प्रावधान है।
सुरा सम्पूर्ण कलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्त पद्माभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
माँ सृष्टिï की आदि स्वरूपा हैं, ये ही आदि शक्ति हैं। इन्होंने अपने ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी इसीलिए इन्हें कुष्माण्डा देवी कहते हैं। अष्टï भुजाओं वाली माता के हाथों में कमण्डल, धनुष, वाण, कमल, कलश, चक्र, गदा एवम जप की माला है। सिंहारुढ़ माताको कुम्हड़ें की बलि अत्यन्त प्रिय है। माता की साधना करने वाले साधक सर्वप्रथम माता भगवती की प्रतिमा स्थापित करें उसके बाद चौकी पर पीले वस्त्र पर दुर्गायंत्र स्थापित करें और मनोरथ पूर्ति के लिए नीचे लिखे मंत्र का १०८ बार जप करें-
ऊँ क्रीं कूष्माण्डायै क्रीं ऊँ।।
मंत्र का पाठ करने के उपरान्त भक्ति पूर्वक शुद्घ घी से प्रज्वलित दीपक से आरती करें और प्रार्थना करें कि-हे माता! मैं अज्ञानी! आप की पूजा आराधना करना नहीं जानता यदि मुझसे कोई त्रुटि हो तो अपना पुत्र समझकर क्षमा करें।
भगवती दुर्गा का पंचम स्वरूप स्कन्दमाता
मां भवानी के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। ये भगवान स्कन्द यानी कुमार कार्तिकेय की माता हैं। वे कार्तिकेय जिन्होंने देवासुर संग्राम में असुरों को पराजित किया था और वे देवों के सेनापति बने थ्ो। भगवान शंकर के इन पुत्र कार्तिकेय को कुमार व शक्तिधर के नाम से भी जाना जाता है। इनका वाहन मयूर है और इसलिए इन्हें मयूर वाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है। इन्हीं स्कन्द की माता होने के कारण इन्हें स्कन्द माता के नाम से जाना जाता है। भगवती के इस स्वरूप की उपासना नवरात्रि के पांचवे दिन की जाती है। इस दिन साधक के मन विशुद्ध चक्र अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कन्द बालरूप में इनकी गोद में बैठे हैं। स्कन्द माता की चार भुजाएं हैं। दाहिने तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान स्कन्द को थामे हुए हैं,जबकि दाहिने तरफ की ही नीचे वाली भुजा जो कि ऊपर की ओर उठी है, उसमें कमल पुष्प लिए हैं। बायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा वरमुद्रा है, जबकि नीचे वाली भुजा ऊपर की उठी है, जिसमें कमल पुष्प है। इनका वर्ण पूरी तरह से शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पदमासनी देवी भी कहा जाता है,वैसे इनका वाहन सिंह है।
नवरात्रि के पांचवें दिन का पुष्कल महत्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की सभी बाहरी व चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। साधक विशुद्ध चैतन्य की ओर अग्रसित हो रहा होता है। उसका मन सभी लौकिक व सांसरिक बंधनों से मुक्त होकर पदमासना देवी में निमगÝ रहता है। इस साधक को पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। उसे मन पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए। उसे अपनी सभी ध्यान वृत्तियों को एकाग्र कर साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए। स्कन्द माता साधक की सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करती है। माता की उपासना के भगवान कार्तिकेय के बाल रूप की अराधना भी स्वयं हो जाती है। मृत्युलोक में ही साधक को परम शांति का अनुभव और मोक्ष की अनुभूति होने लगती है। सूर्य मंडल की अधिष्ठात्री देवी होने की वजह से इनके उपासक को अलौकिक तेज व कांति प्राप्त होती है। घोर भवसागर से मुक्ति के लिए मां स्कन्दमाता की उपासना से उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।
पंचम नवरात्रे में पूजन विधान
स्कन्दमाता की उपासना योगी जन करते हैं। माँ दुर्गा के पाँचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के रूप में जाना जाता है। सिंह पर सवार चार भुजाओं वाली स्कन्दमाता की साधना करने वाले साधक को माँ की कृपा से मृत्युलोक में ही स्वर्ग के समान सुख एवम शान्तिका अनुभव होती है। माँ की भक्ति से कुण्ठा, जीवन कलह एवम द्वेष भाव का नाश होता है और अशान्त ह्दय में शान्ति का प्रादुर्भाव होता है।
माता की पूजा एवम साधना हेतु सर्वप्रथम माता की प्रतिमा स्थापित करें तथा लकड़ी की चौकी पर पीले वस्त्र बिछाकर कुमकुम से ऊँ लिखे फिर यंत्र की स्थापना करके हाथ में पुष्प लें और स्कन्दमाता के स्वरूप का ध्यान करते हुए उच्चारण करें-
सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रित करद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
मंत्र पूर्ण होने पर पुष्पांजलि मैया के चरणों में अर्पित करें। पंचोपचार विधि से यंत्र की पूजा करें तत्पश्चात रोली, चन्दन, वैवद्य आदि विधानानुसार अर्पित करके निम्नलिखित मंत्र का १०१ बार जप करें।
ऊँ ऐं ह्री कलीं चामुण्डायै विच्चे ऊँ स्कन्दमातेति नम:।।
भगवती दुर्गा का षष्टम स्वरूप कात्यायनी माता
भगवती का छठां स्वरूप कात्यायनी के नाम से विख्यात है। कत नाम के एक ऋषि हुआ करते थ्ो। उनके कात्य नाम के पुत्र हुए थ्ो। इन्हीं कात्य के गोत्र में महर्षि कात्यायन हुए थ्ो । महर्षि कात्य ने वर्षो तक भगवती की कठोत तपस्या की थी। वह भगवती के उनके घर में उत्पन्न होने की कामना करते थ्ो। कुछ समय पश्चात जब दानवराज महिषासुर का अत्याचार धरती पर बढ़ गया और देवता उसके भय से प्रताड़ित हो गए तो भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश के अंश से महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी प्रकट हुई तो महर्षि कात्यायन ने सर्व प्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण यह कात्यायनी देवी कहलाईं।
एक अन्य कथा भी मिलती है, जिसके अनुसार ये महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थीं। अश्विनी कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी यानी तीन दिन कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण की और दशमी के दिन इन्होंने महिषासुर का वध किया था। मां भगवती का कात्यायनी स्वरूप भक्त को अमोघ फल प्रदान करता है।
भगवान श्री कृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से व्रज की गापियों ने इन्हीं देवी की पूजा कालिन्दी यमुना तट पर की थी। ये व्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इनका स्वरूप भव्य है। इनका वर्ण स्वर्ण के समतुल्य चमकीला और भास्वर है। चार भुजाएं हैं। भगवती के दाहिने तरफ के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा है और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल सुशोभित है। इनका वाहन भी सिंह है। नवरात्रि के छठे दिन कात्यायनी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक के मन में आज्ञा चक्र स्थित होता है। योग साधना में इस आज्ञा चक्र का विश्ोष महत्व है। इस चक्र में साधक भगवती कात्यायनी को अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। पूर्ण आत्मदान करने वाले साधक को भगवती के दर्शन प्राप्त होते है। भगवती का यह स्वरूप अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष प्रदान करने वाला है। इनकी उपासना से साधक परमपद का अधिकारी हो जाता है।
षष्टम नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के छठवें दिन माता भगवती के कात्यायनी रूवरूप की आराधना की जाती है। चार भुजा धारी भगवती कात्यायनी सिंह पर सवार होकर असुरों का संहार करती है और भक्तों की रक्षा करती हैं। इनके एक हाथ में कमल पुष्प, दूसरा हाथ अभय मुद्रा में एकहाथ वर मुद्रा में तथा चौथे हाथ में खड्ग शोभायमान है। सच्चे मन और सच्ची श्रद्घा से जो प्राणी कत्यायनी देवी का स्वरूप अपने ह्दय में स्थित करके साधना करता है। माता उस प्राणी को उस साधक को अर्थ, धर्म, काम एवम मोक्ष प्रदान करती हैं। माता कात्यायनी देवीकी साधना करते हेतु लकड़ी की स्वच्छ चौकी पर माँ की मूर्ति की स्थापना करें और सर्व कल्याण यंत्र की स्थापना करें। यदि शत्रु से परेशान हैं तो शत्रु मर्दन मंत्र की स्थापना करें और लाल वस्त्र पर काली स्याही अथवा काजल से शत्रु का नाम लिखे तत्पश्चात उस पर यंत्ररखकर हाथ में पुष्प लेकर माँ के स्वरूप का ध्यान करते हुए मंत्र पढ़ें-
चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्योद्देवी दानवघातिनी।।
अब पुष्पांजलि मैया के चरणों में अर्पित करें और षोडशोपचार विधि से पूजन करें और नैवेद्य चढ़ायें। यदि शत्रु दमन हेतु यंत्र की स्थापना किये हो तो काली हकीक की माला से १०८ बार मंत्र पाठ करें-
ऊँ ऐं ह्री क्लीं चामुण्डयै विच्चे ऊँ कात्यायनी दैव्यै नम:।।
शत्रु भय एवम शत्रु विनाश के लिए नीचे लिखे मंत्र का पाठ करें-
ऊँ क्रौं क्रौं कात्यायन्यै क्रौं क्रौं फट्ट।।
मंत्र समाप्त कर माता से प्रार्थना करें तत्पश्चात आरती करके पूजन समाप्त करें।
भगवती दुर्गा का सप्तम स्वरूप कालरात्रि
भगवती का सतवां स्वरूप कालरात्रि है। उनके शरीर का रंग घनघोर अंधकार की तरह एकदम काला है। कालरात्रि माता के सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र है और ये ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं। इनमें विद्युत के समान चमकीली किरण्ों नि:सूत होती रहती हैं। नासिका की स्वास-प्रश्वास से अगिÝ की भयंकर ज्वालाएं निकलती हैं। इनका वाहन गदर्भ है। दाहिने तरफ के ऊपर उठे हाथ में वरमुद्रा धारण किए हैं, जबकि नीचे वाले हाथ में खड्ग अभय मुद्रा है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा नीचे की ओर और नीचे वाले हाथ में खड्ग यानी कटार धारण किए हैं। भगवती का यह स्वरूप बेशक देखने में भयानक है, लेकिन भगवती भक्तों का सदा ही कल्याण करती हैं। इसी कारण इनका नाम शुभंकरी भी विख्यात है।
नवरात्रि के सातवें दिन कालरात्रि की पूजा का विधान है। इस दिन साधक के मन में सहस्त्रार चक्र स्थित रहता है। उसके लिए ब्रह्मांड की सभी सिद्धियों का द्बार खुलने लगता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन पूरी तरह से भगवती कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके सभी पाप व विध्नों का नाश हो जाता है। साथ ही उसे अक्षय पुण्य लोकों की प्राप्ति होती है। मां कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। भक्त की ग्रह बाधाएं भी दूर हो जाती हैं। अपने कल्याण के लिए भक्त को एक निष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिए। यम, नियम व संयम उसे पूर्णतय पालन करना चाहिए। मन, वचन व काया की पवित्रता रखनी चाहिए। मां कालरात्रि के स्वरूप विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके भक्त कष्टों से मुक्ति पा लेता है।
सप्तम नवरात्रि में पूजन विधान
नवरात्र के सातवें दिन भगवती कालरात्रि की पूजा की जाती है। देवी दुर्गा की सातवीं शक्ति माँ कालरात्रि का स्वरूप अत्यंत भयंकर है। त्रनेत्र धारिणी माँ कालरात्रि चार भुजाओं वाली गर्दभ पर सवार होकर दुष्टों को भय प्रदान करती हैं। तथा जो प्राणी माता कास्वरूप ध्यान करते हैं उनके लिए समस्त सिद्घियों का द्वार खोल देती हैं। अर्थात साधकों के लिए शुभ फल प्रदायिनी माता कालरात्रि की कृपा से समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। माता की आराधना एवं साधना हेतु सर्वप्रथम चौकी पर देवी कालरात्रि की प्रतिमा स्थापित करें।तत्पश्चात रक्त वर्ण (लाल) वस्त्र पर यंत्र की स्थापना करके विधिवत पूजन करें। समस्त चिंताओं का हरण करने वाली माता का ध्यान करते हुए मंत्र पढ़ें-
करालरूपा कालाब्जा समानाकृति विग्रहा।
कालरात्र शुद्घ दधाढ देवी चण्डाहट्टहासिनी।
मंत्र पढऩे के पश्चात पंचोपचार विधि से पूजन करके नैवेद्य अर्पित कर मंत्र पाठ करें-
लीं क्रीं हुं
इस मंत्र के पाठ से देवी भगवती प्रसन्न होकर साधक को मनवांछित फल प्रदान करती हैं।
भगवती दुर्गा का अष्टम स्वरूप महागौरी
भगवती दुर्गा के आठवें स्वरूप को महागौरी के नाम से जाना जाता है। इनका वर्ण पूरी तरह से गौर है। उनकी गौरता को उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से की गई है। इनकी आयु आठ वर्ष मानी गई है। इनके सभी वस्त्र आभूषण आदि भी श्वेत है। इनकी चार भुजाएं हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपर के बाए हाथ में डमरू नीचे की ओर और नीचे वाले बाए हाथ में वर मुद्रा है, ये हाथ ऊपर की ओर है।
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मां भगवती का यह स्वरूप बेहद सौम्य और शांत है। पार्वती के रूप में भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए इन्होंने कठोर तपस्या की थी। इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि भगवान शम्भु यदि उनका वरन नहीं करेंगे तो वे कुआरी रहेंगी। कठोर तप से उनका शरीर एकदम काला हो गया था। इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने इनके शरीर को गंगा जी के पवित्र जल से धोया था, तब वह विद्युत प्रभा के समान गौर हो गयीं थीं। तभी इसे इनका नाम महागौरी पड़ा है। नवरात्रि के आठवें दिन महागौरी की उपासना की जाती है। इनकी शक्ति अमोघ व सद्य:फल प्रदान करने वाली हैं। इनकी उपासना से भक्तों के कल्मष धुल जाते हैं। इनका भक्त पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। इनकी कृपा से भक्त को अलौकिक सिद्धियां प्राप्त होती है। भक्त को अनन्न भाव से एकनिष्ठ होकर पादारविन्दों का ध्यान करना चाहिए। भगवती के इस स्वरूप की कृपा पाने के लिए उनके चरणों का स्मरण करते हुए हमेशा ध्यान-पूजन करना चाहिए। इनकी उपासना से असम्भव कार्य भी सम्भव बन जाते है।
अष्टम नवरात्रे में पूजन विधान
नवरात्र के आठवें दिन माता महागौरी की पूजा की जाती है। शक्ति प्रदायिनी अभय मुद्राधारी माता महागौरी के हाथ में त्रिशूल, डमरू आदि शोभायमान है। भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए आपने कठिन तपस्या की। कुंवारी कन्याओं की उपासनासे माता अतिशीघ्र प्रसन्न होकर मन पसंद जीवनसाथी प्राप्त करने का वरदान देती हैं।
श्वेते वृषे समारुढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमाददा।।
मंत्र समाप्त कर माँ के चरणों में पुष्प अर्पित करें, तदुपरान्त यंत्र का पूजन करके नैवेद्य चढ़ायें और मंत्र पाठ करें-
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
ऊँ महागौरी देव्यै नम:।।
उपरोक्त मंत्र का २१ माला जप करें फिर आरती करके प्रसाद बाँटें।
भगवती दुर्गा का नवम स्वरूप सिद्धिदात्री माता
मां दुर्गा की नवम शक्ति को सिद्धिदात्री के नाम से जाना जाता है। ये भक्तों को सिद्धियां प्रदान करती है। मारकंडेय पुराण में आठ सिद्धियां बतायी गई हैं, ये है- अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकम्य, ईशित्व व वशित्व। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में सिद्धियों की संख्या 18 बताई गई है। ये है- अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व या वशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, परकायप्रवेशन, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, सृष्टि, संहारकरणसामर्थ, अमरत्व, सर्वन्यायकत्व, भावना व सिद्धि। भगवती सिद्धिदात्री भक्तों को ये सभी सिद्धियां प्रदान करती हैं।
देवी पुराण में उल्लेख किया गया है कि भगवान शंकर ने इनकी ही कृपा से इन सिद्धियों को प्राप्त किया था। इनकी कृपा से भगवान शिव ने अर्द्धनारीश्वर रूप धारण किया था और वे अर्द्धनारीश्वर के नाम से विख्यात हुए। मां सिद्धिदात्री की चार भुजाएं है।उनका वाहन सिंह है। वे कमल के पुष्प पर आसीन होती हैं। इनके दाहिने तरफ के नीचे वाले हाथ में चक्र, ऊपर वाले हाथ में गदा, जो कि नीचे की तरफ है। बायीं तरफ के नीचे वाले हाथ मे शंख और ऊपर वाले हाथ में कमल पुष्प है, जो नीचे की तरफ है। नवरात्रि के नवें दिन विधि विधान से पूजा करने वाले साधकों को सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है। सृष्टि में उसके लिए कुछ भी अगम्य नहीं रह जाता है। ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त करने की सामथ्र्य उसमें आ जाती है। भगवती की कृपा से संसार में सुखों का भोग करते हुए जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भक्त की लौकिक व परालौकिक दोनों कामनाओं की पूर्ती भगवती की कृपा से हो जाती है।
नवम नवरात्रे में पूजन विधान
समस्त सिद्घियां प्रदान करने वाली भगवती सिद्घिदात्री की आराधना नवरात्र के अंतिम दिन होती है, जो महादुर्गा की नवीं शक्ति हैं-
सिद्घगन्धर्वयक्षाद्यैर सुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्घिदा सिद्घिदायिनी।।
अष्ठï सिद्घियों को प्रदान करने वाली देवी सिद्घिदात्री की कृपा से समस्त सुख प्राप्त होते हैं। नवमीं के दिन माँ के पूजन का विधान है। साधना हेतु सर्वप्रथम सिद्घिदात्री भगवती की प्रतिमा स्थापित करें और पुष्पाजलि माँ के चरणों में अर्पित कर हाथ जोड़ें फिर धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित कर १०८ बार नीचे लिखे मंत्र का पाठ करें।
ऊँ ऐं ह्रीं क्ली चामुण्डायै विच्चे।
ऊँ सिद्घिदात्री देव्यै नम:।।
तत्पश्चात आरती करें और भजन कीर्तन करके आराधना संपन्न करें। नवरात्र में माता भगवती के नौ रूपों की पूजा आराधना से महान पुण्यफल प्राप्त होते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। माँ अपने भक्तों पर अपनी कृपा रूपी अमृतमयी दृष्टिï से देखकर निहाल करती हैं।
बोल शेरा वाली माता आदि शक्ति की....जय हो
नवरात्र में देवी यंत्र की स्थापना करके विधि पूर्वक पूजा अर्चना करने से महान पुण्य फल प्राप्त होते हैं। ऋषि मुनि एवम विद्वानजन कहते हैं कि देवी यंत्र में स्वयं देवी भगवती मूर्तिमान होकर निवास करती हैं।
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