ओ३म् ‘ईश्वर-जीवात्मा का परस्पर संबंध और ईश्वर के प्रति मनुष्य के कर्तव्य’

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मनुष्य जानता है कि वह एक चेतन सत्ता है। जीवित अवस्था में चेतन सत्ता जीवात्मा शरीर में विद्यमान रहती है। मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है। जीवात्मा का शरीर में रहना जीवन और उसका शरीर से निकल जाना ही मृत्यु कहलाता है। किसी ने न तो जीवात्मा को देखा है और न परमात्मा को। इसका कारण एक ही हो सकता है कि हम बहुत सूक्ष्म व बहुत विशाल चीजों को देख नहीं पाते। जीवात्मा का दिखाई न देने का कारण इसका अत्यन्त सूक्ष्म होना ही है। ईश्वर इससे भी सूक्ष्म व सर्वव्यापक अर्थात् सर्वत्र विद्यमान होने से सबसे बड़ा है, इसलिये यह दोनों दिखाई नही देते।

आंखों से दिखने वाली वस्तुओं का ही अस्तित्व नहीं होता। संसार में ऐसे अनेक सूक्ष्म पदार्थ हैं जिनकी विद्यमानता सिद्ध होने पर भी वह दिखाई नहीं देते। हमने आक्सीजन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन आदि अनेक गैसों के नाम सुन रखे हैं। विज्ञान की दृष्टि से इनकी सत्ता सिद्ध है। हम जो श्वांस लेते हैं उसमें आक्सीजन गैस प्रमुख रूप से होती हैं। क्या हम प्राणवायु आक्सीजन जिसका चैबीस घंटे सेवन करते हैं उसे देख पाते हैं? उत्तर है कि नहीं देख पाते। अतः जीवात्मा और ईश्वर भी अति सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नहीं देते परन्तु इनका अस्तित्व सिद्ध है। कारण की शरीर की क्रियायें जीवात्मा के अस्तित्व का प्रमाण हैं। शरीर में क्रिया है तो शरीर में जीवात्मा अवश्य है। यदि शरीर में क्रियायें होना समाप्त हो जायें तो वह जीवित नहीं मृतक शरीर होता है। किसी भी जड़ पदार्थ में सोची समझी अर्थात् ज्ञानपूर्वक क्रियाये स्वतः नहीं होती।

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जहां ज्ञानपूर्वक कार्य व क्रियायें होती हैं, वहां कर्ता, कोई चेतन तत्व का होना सिद्ध होता है। मनुष्य के कार्यों और ईश्वर की जगत की उत्पत्ति, स्थिति व पालन सहित अनेक कार्यों को देखकर व जानकर जीवात्मा व ईश्वर दोनों का अस्तित्व सिद्ध होता है।

ईश्वर व जीवात्मा के संबंध पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है।’ ईश्वर का यह स्वरूप जगत वा सृष्टि में विद्यमान है जिसे विवेक बुद्धि से जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ ईश्वर सत्य, चेतन तत्व व आनन्द से युक्त सत्ता है। यह जगत ईश्वर के सत्य होने का प्रमाण है क्योंकि पांचों ज्ञानेन्द्रियों से यह अनुभूति में आता है। जगत का कर्ता वही एकमात्र ईश्वर है क्योंकि चेतन तत्व में ही ज्ञान व तदनुरूप क्रियायेंक रने की सामथ्र्य होती है। यह सृष्टि भी ज्ञान व क्रियाओं की पराकाष्ठा है इससे भी ईश्वर चेतन तत्व व सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। ईश्वर स्वभाव से आनन्द से युक्त है। हर क्षण व हर पल वह आनन्द से युक्त रहता है। यदि ऐसा न होता तो वह सृष्टि नहीं बना सकता था और न हि अन्य ईश्वरीय कार्य, सृष्टि का पालन, जीवों के जन्म-मरण व सुख-दुःख रूपी भोगों की व्यवस्था आदि कार्य कर सकता था। इसी प्रकार से ईश्वर के विषय में जो बातें कही हं। वह जानी व समझी जा सकती है। यही ईश्वर का सत्य स्वरूप है।

जीवात्मा के स्वरूप पर विचार करें तो हमें मनुष्य के शरीर व अन्य पशु, पक्षी आदि के शरीरों को अपनी दृष्टि में रखना पड़ता है। विचार करने पर पता चलता है कि जीवात्मा सत्य, चित्त वा चेतन पदार्थ, एकदेशी न कि सर्वव्यापक, अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाला, अल्प शक्तिवाला, अनादि, उत्पत्ति के कारण से रहित, नित्य, अमर व अविनाशी, अजर, शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता, अग्नि में जल कर नष्ट नहीं होता, वायु इसे सुखा नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता, जन्म व मरण धर्मा, अज्ञान अवस्था में दुःखों से युक्त व ज्ञान प्राप्त कर सुखी होने वाला आदि अनेकानेक गुणों से युक्त होता है। जीवात्मा संख्या की दृष्टि से विश्व व ब्रह्माण्ड में अनन्त हैं। इनके लिए ही ईश्वर ने संसार की रचना की व सभी जीवों को उनके प्रारब्ध व पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों के आधार पर शरीर प्रदान किये हैं। यह शरीर ईश्वर ने पुराने कर्मों को जिनका फल भोगना शेष है, भोगने के लिए दिए हैं। मनुष्य जीवन का यह विशेष गुण है कि यह उभय योनि हैं जबकि अन्य सभी भोग योनियां हैं। मनुष्य योनि में शरीरस्थ जीवात्मा प्रारब्ध के अनुसार पूर्व कर्मों को भोगता भी है और नये कर्मों को करता भी है। यह नये कर्म ही उसके पुनर्जन्म का आधार होते हैं।

मनुष्य को शुभ कर्म करने के लिए शिक्षा व ज्ञान चाहिये। यह उसे ईश्वर ने प्रदान किया हुआ है। वह ज्ञान वेद है जो सृष्टि के आदि में दिया गया था। इस ज्ञान का प्रचार व प्रसार एवं रक्षा सृष्टि की आदि से सभी ऋषि मुनि व सच्चे ब्राह्मण करते आये हैं। आज भी हमारे सभी कर्तव्याकर्तव्यों का द्योतक वा मार्गदर्शक वेद व वैदिक साहित्य ही है। मनुष्य व अन्य प्राणधारी जो भोजन आदि करते हैं वह सब भी सृष्टि में ईश्वर द्वारा प्रदान करायें गये हैं। इसी प्रकार अन्य सभी पदार्थों पर विचार कर भी निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इससे ज्ञात होता है कि सभी मनुष्य व प्राणी ईश्वर के ऋणी हैं। जीव ईश्वर का ऋण चुकाएँ, इसका ईश्वर से कोई आदेश नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक मनुष्य सच्चा मनुष्य बने। वह ईश्वर भक्त हो, देश भक्त, मातृ-पितृ भक्त हो, गुरु व आचार्य भक्त हो, ज्ञान अर्जित कर शुभ कर्म करने वाला हो, शाकाहारी हो, सभी प्राणियों से प्रेम करने वाला व उनका रक्षक हो आदि। ईश्वर सभी मनुष्यों को ऐसा ही देखना चाहते हंै। यह वेदों में मनुष्यों के लिए ईश्वर प्रदत्त शिक्षायें हैं। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करेगा तो वह उसका अशुभ कर्म होने के कारण ईश्वरीय व्यवस्था से दण्डनीय हो सकता है।

ईश्वर जीवात्माओं पर उनके पूर्वजन्म के कर्मानुसार एक न्यायाधीश की तरह न्याय करता है और उसे मनुष्यादि जन्म देता है। इस कारण वह सभी जीवों का माता व पिता दोनों है। ईश्वर ने हमें वेद ज्ञान दिया है और जब भी हम कोई अच्छा व बुरा काम करते हैं तो हमारी आत्मा में अच्छे काम करने पर तत्क्षण प्रसन्नता व बुरे काम करने पर भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करता है। यह ईश्वर ही करता है, आत्मा में प्रेरणा स्वतः नहीं हो सकती, जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है। इससे ईश्वर हमारा गुरु व आचार्य सिद्ध होता है। वेद मन्त्रों में ईश्वर को मित्र व सखा भी कहा गया है। ईश्वर दयालु व धर्मात्मा है। धर्मात्मा सबका मित्र होता है। अतः ईश्वर भी हमारा मित्र व सखा है। मित्र का गुण बुरे समय में मित्र की सहायता व सहयोग करना होता है। ईश्वर भी हर क्षण, यहां तक की पूरे जीवनकाल में व मृत्युकाल के बाद व नये जन्म से पूर्व तक भी, हमारे साथ रहता है व हमें दुःखों से दूर रखने के साथ हमें दुःखों से बचाता भी है, इसी लिए वह हमारा सच्चा व सनातन मित्र है। ईश्वर हमारा स्वामी व राजा भी है। यह भी कह सकते हैं कि वह सब स्वामियों का स्वामी, सब गुरुओं का गुरु, सब राजाओं का भी राजा, न्यायाधीशों का भी न्यायाधीश है। यह सब व ऐसे अनेक संबंध हमारे ईश्वर के साथ है। हम यदि चाहें व ईश्वर भी चाहें तो भी यह सम्बन्ध विच्छेद नहीं हो सकते, सदा सदा बने ही रहेंगे। अतः प्रश्न उठता है कि इस स्थिति में ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य क्या है?

ईश्वर के प्रति जीवात्मा का वही सम्बन्ध है जो पुत्र का माता व पिता, मित्र का मित्र के प्रति, शिष्य का गुरु व आचार्य के प्रति व भक्त का भगवान के प्रति होता है। भक्त भक्ति करने वाले को कहते हैं। भक्ति भगवान के गुणों को जानकर उसके अनुरूप स्वयं को बनाने, ढालने वा उन गुणों को धारण करने को कहते हैं। इसमें ओ३म् का जप, गायत्री मन्त्र का जप सहित ईश्वर का अधिक से अधिक समय तक ध्यान व उपासना करना होता है। ध्यान व उपासना में जीवात्मा ईश्वर के साथ जुड़ जाता है जिससे लाभ यह होता है कि ईश्वर-जीवात्मा की संगति से जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव ईश्वर जैसे बनने आरम्भ हो जाते हैं। जीवात्मा दुरितों वा असत्य को छोड़ कर भद्र वा सत्य को धारण करता है। वह ईश्वर की उपासना को अपना नित्य कर्तव्य मानता है व करता भी है। वह परोपकार, दीन- दुखियों की सेवा, दान, वेद प्रचार आदि कार्यों को करता है। यही मनुष्य के कर्तव्य हैं। वेदों का स्वाध्याय करना भी सभी मनुष्य का कर्तव्य वा परम धर्म है। वेदों के स्वाध्याय करने से सत्य कर्तव्यों के पालन करने की शिक्षा व बल मिलता है। यह सब अनुभूति के विषय हैं जिसे स्वयं करके ही जाना जा सकता है। आईये ! प्रतिदिन वेद व वैदिक साहित्य, सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों के अध्ययन व स्वाध्याय के व्रत सहित ईश्वर के ध्यान व दैनिक अग्निहोत्र का व्रत लें, अन्य दैनिक यज्ञों को भी करें और जीवन को सफल करें अर्थात् मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़े। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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