ओ३म् “हमारा यह जन्म हमारे पूर्व एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को बताता है”

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हमारा यह मनुष्य जन्म सत्य एव यथार्थ है। किसी भी मनुष्य को अपने अस्तित्व के होने में कोई सन्देह नहीं होता। हम हैं यह भाव हमारे अस्तित्व व उपस्थिति को स्वयंसिद्ध कर रहा है। हम अतीत में थेया नहीं, यह भी विचार कर माना व जाना जा सकता है। यदि हम न होते तो फिर उत्पन्न कैसे हुए? इस प्रश्न पर विचार करने पर हमें ज्ञात होता है कि हमारा अस्तित्व इस जन्म से पहले भी था।

यदि न होता तो इसे इस स्वरूप में कौन क्यों बनाता? कोई भी पदार्थ उत्पन्न होता है तो उसका उपादान एवं निमित्त कारण होना आवश्यक होता है। यदि हमारी आत्मा इस जन्म से पूर्व नहीं थी तो इसे किस चेतन सत्ता ने किस प्रयोजन से किस उपादान कारण व पदार्थ से बनाया है। इसका उत्तर इस लिये नही मिल सकता क्योंकि आत्मा इससे पहले से विद्यमान रही है। आत्मा चेतन सत्ता है जो ज्ञान एवं कर्म करने की क्षमता व सामर्थ्य से युक्त होती है। जन्म न हो तो यह किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं होती। जन्म लेने पर इसे एक शरीर प्राप्त होता है जिसमें इसके पास सत्य व असत्य को जानने के लिए बुद्धि, देखने के लिए आंख, सुनने के लिये कान, बोलने के लिए वाणी, स्पर्श के लिए त्वचा, चलने के लिए पैर तथा काम करने के लिये दो हाथ होते हैं। यदि पांच ज्ञान व पांच कर्मेन्द्रियों से युक्त पंचभौतिक शरीर न हो तो जीवात्मा ज्ञान प्राप्ति तथा उसके अनुसार कोई भी कर्म वा क्रिया नहीं कर सकता।

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जीवात्मा को यह शरीर किस सत्ता से प्राप्त होता है? इस पर विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि यह शरीर ऐसी चेतन ज्ञानवान, शरीर को जन्म देने का अनुभव रखने वाली एक अनादि सत्ता के द्वारा ही अस्तित्व में आ सकता है। उस चेतन सत्ता को ही वेदों व वैदिक साहित्य में ईश्वर व परमात्मा कहा गया है। परमात्मा के अनेक गुण, कर्म व स्वभाव हैं। जीवात्मा से भी उसके अनेक सम्बन्ध घटते हैं। इस कारण से परमात्मा के अनेक नाम हो सकते हैं। परमात्मा इस सृष्टि को बनाता है इसलिये उसे सृष्टिकर्ता कहते हैं। वह अनादि काल से विद्यमान है इसलिए उसे अनादि कहते हैं। वह कभी उत्पन्न नहीं हुआ, कभी नष्ट नहीं होगा, उसका कभी अभाव नहीं होगा, वह सदा वर्तमान रहेगा इस कारण से उसको नित्य कहते हैं। इसी प्रकार से ईश्वर में अनेक गुणों का होना पाया जाता है। विद्वान मनीषी बताते हैं कि ईश्वर में अनन्त गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं जिन सबको सभी मनुष्य जान भी नहीं सकते। ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के स्वरूप व गुणों आदि का उल्लेख किया है। उनके शब्द हैं ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। इस प्रकार की सत्ता, स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव ईश्वर के हैं।

ईश्वर के स्वरूप आदि पर विचार करने पर ऋषि दयानन्द निर्मित उपर्युक्त नियम का एक एक शब्द सृष्टिक्रम व ईश्वर में घटता हुआ अनुभव किया जा सकता है। इस कारण यह नियम पूर्णतः सत्य पर आधारित वा सत्य है। अतः परमात्मा ही वह सत्ता है जो चेतन जीवात्मा को जन्म देती है। बिना कर्ता के कोई कार्य व रचना नहीं होती। हमारे जन्म में कर्ता की मुख्य भूमिका में परमात्मा का होना सिद्ध होता है। माता, पिता सहित इस सृष्टि व प्राकृतिक वातावरण का होना भी मनुष्य जीवन में सहायक होता है। यह सब साधन एकत्रित होकर सुलभ होते हैं तब मनुष्य का जन्म होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनुष्य वा जीवात्मा का शरीर बनता है परन्तु इस शरीर में निवास करने वाली आत्मा का अपने किसी उपादान कारण से उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता। वेद ईश्वरीय ज्ञान है। वेदों में ईश्वर ने आत्मा का अनादि, नित्य, अनुत्पन्न, नाशरहित, अमर, जन्म-मरण धर्मा, कर्म के बन्धनों में बंधी हुई, एकदेशी, अल्पज्ञ, ससीम सत्ता होना बताया है। आत्मा के यह विशेषण व स्वरूप आदि जो वेद और वैदिक साहित्य में हमारे ऋषि-मुनियों ने स्वीकार किये हैं, यह सब ज्ञान व विवेक पूर्वक विचार करने पर सत्य सिद्ध होते हैं। अतः आत्मा वा जीवात्मा का ईश्वर व सृष्टि के उपादान कारण जड़ प्रकृति से भिन्न व पृथक होना सिद्ध व स्पष्ट है।

संसार में हम देखते हैं कि संसार में नया पदार्थ कोई नहीं बनता अर्थात् अभाव से भाव पदार्थ अस्तित्व को प्राप्त नहीं होते। संसार के मूल प्रकृति व पदार्थों में विकार व संयोग व वियोग की क्रियायें होती हैं। इन्हीं से पहले से उपलब्ध पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन व संयोग से नये पदार्थों का निमार्ण होते देखा जाता है। यदि जल न हो तो वाष्प व हिम वा बर्फ आदि नहीं बन सकती। इसी प्रकार से यदि गेहूं न हो तो हमें रोटी व गेहूं के आटे से बनने वाले पदार्थ उपलब्ध नहीं हो सकते। ऐसा ही नियम सर्वत्र देखा जाता है। सृष्टि में मूल जड़ तत्व प्रकृति है जो तीन गुणों सत्व, रज व तम वाली है। इसकी साम्यावस्था प्रकृति कहलाती है। परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी तथा सर्वशक्तिमान है। वह सर्वज्ञ है तथा उसे पूर्वकल्पों में सृष्टि बनाने का अनुभव है। अपने इस ज्ञान व अनुभव के आधार पर ही परमात्मा इस सृष्टि का निर्माण जीवों के जीवन, भोग एवं अपवर्ग के लिए करते हैं। यह त्रैतवाद ईश्वर, जीव व प्रकृति वेदों का सत्य सिद्धान्त है जो प्रमाण की सभी कसौटियों पर सत्य सिद्ध होता है।

परमात्मा ने इस प्रकृति में विकार उत्पन्न कर उससे ही इस सृष्टि के सभी कारण व कार्य पदार्थों को बनाया है। इसी प्रक्रिया से सृष्टि में सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह, उपग्रह, तारे, नक्षत्र, अग्नि, वायु, जल, आकाश, वनस्पतियां, ओषधियां, वन, पर्वत, मानव व अन्य जीवों के शरीर बने हैं। इस समस्त दृश्यमान एवं प्रकृति से इतर सूक्ष्म जगत का निर्माता व पालनकर्ता ईश्वर नामी एकमात्र सत्ता है। ईश्वर से ही यह सृष्टि अस्तित्व में आई है और प्रलय काल में पुनः अपने मूल स्वरूप जड़ प्रकृति कारणावस्था में मिल जाती है। इससे हम सृष्टि रचना के विषय में सत्य ज्ञान से युक्त होते हैं। यह ज्ञान हमें वेद व ऋषियों के सांख्य दर्शन आदि ग्रन्थों से प्राप्त होता है। इसी पर सब मनुष्यों को विश्वास करना चाहिये। इस प्रकार से परमात्मा सृष्टि को बनाकर सृष्टि में विद्यमान अनादि व नित्य सत्ता सूक्ष्म जीवात्माओं को मानव आदि भिन्न भिन्न शरीर प्रदान करते हैं। हमें जो शरीर व योनि मिलती है वह हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर मिलती है। योगदर्शन के अनुसार हमारा जन्म, योनि, आयु व सुख दुःखों का निर्धारण हमारे पूर्वजन्म के कर्मों के आधार पर होता है। मनुष्य जिस भी योनि में जन्म लेता है वहां वह कर्मों को भोक्ता होता है। मनुष्य योनि में विचार पूर्वक कर्म करने की स्वतन्त्रता सभी मनुष्य जीवात्माओं को प्राप्त है। इससे उसके कर्मों का खाता बदलता रहता है। पूर्व कर्मों का भोग तथा नये कर्मों को करने से मनुष्य आत्मा के शुभ व अशुभ कर्म घटते बढ़ते रहते हैं।

किसी जीवात्मा का कभी अभाव नहीं होता। इसी कारण से मनुष्य कर्मानुसार परमात्मा के द्वारा बन्धन व मोक्ष व अनेक जन्म योनियों को प्राप्त होता रहता है। जीवात्मा के जन्म व मरण की व्यवस्था मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त तक चलती रहती है। मोक्ष सद्ज्ञान, विवेक, सद्कर्मों, ईश्वरोपासना, यज्ञादि कर्म, परोपकार, दान व ईश्वर साक्षात्कार आदि कर्मों का परिणाम होता है। मोक्ष प्राप्ति तक मनुष्य के जन्म व मृत्यु का चक्र चलता रहता है। मोक्ष प्राप्त होने पर आवागमन वा जन्म मरण रूक जाता है। शास्त्रों के अनुसार 31 नील वर्षों से अधिक अवधि तक मोक्ष में जीव ईश्वर के सान्निध्य में रहकर मोक्ष का सुख भोगता है। मोक्ष प्राप्ति से पूर्व तक जीवात्मा के बार बार जन्म होते जाते हैं। इससे जीवात्मा का पूर्वजन्म व पुनर्जन्म दोनों सिद्ध होते हैं। गीता के श्लोकों में भी पाया जाता है कि जिस आत्मा का जन्म हुआ है उसका पूर्वजन्म निश्चित होता है और जिसकी मृत्यु होती है उसका पुनर्जन्म निश्चित होता है। हमें इस जन्म व मरण के रहस्यों को शास्त्रों का अध्ययन कर जानना चाहिये और वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय से मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होकर ईश्वरोपासना आदि कर्म करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये व इन्हें प्राप्त होना चाहिये। यह स्पष्ट है कि जीवात्मा का कभी अभाव नहीं होता। मोक्ष भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है। मोक्ष के बाद जीवात्मा का पुनः जन्म होता है। सथ्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़कर मनुष्य जीवन से जुड़े सभी प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। अतः सबको सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को अवश्य पढ़ना चाहिये। यह सिद्ध है कि जीवात्मा का पूर्वजन्म व पुनर्जन्म दोनो होते हैं। दोनो का होना सत्य व सिद्ध है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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