ओ३म् “हमें जन्मना-जाति के स्थान पर ज्ञानयुक्त वेदोक्त व्यवहार करने चाहियें”

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रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि जी ने लाखों वर्ष पूर्व रामचन्द्र जी के जीवन काल में की थी

वैदिक धर्म के आधार ग्रन्थ वेदों में प्राचीन व सृष्टि के आरम्भ काल से जन्मना जाति का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हमारी आर्य हिन्दूजाति के पास बाल्मीकि रामायण एवं महाभारत नाम के दो विशाल इतिहास ग्रन्थ हैं। रामायण की रचना महर्षि बाल्मीकि जी ने लाखों वर्ष पूर्व रामचन्द्र जी के जीवन काल में की थी। महाभारत की रचना भी पांच हजार पूर्व ऋषि वेद व्यास जी ने की है। इन दोनों इतिहास ग्रन्थों में समाज में जन्मना जाति के प्रचलन का उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

वेद, उपनिषद, दर्शन, विशुद्ध मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में जन्मना जातिवाद का उल्लेख उपलब्ध नहीं मिलता। इससे यह निश्चित होता है कि वर्तमान में प्रचलित जन्मना जाति व्यवस्था महाभारत युद्ध के सैकड़ो व हजारों वर्ष बाद आरम्भ हुई है। प्राचीन वैदिक काल में गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर ‘वर्ण व्यवस्था’ प्रचलित थी। यह वर्ण व्यवस्था मनुष्य को शूद्र, वैश्य व क्षत्रिय से ब्राह्मण बनाने तथा गुणहीन ब्राह्मणों, क्षत्रिय व वैश्यों को उनके कर्मानुसार क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बनाने का कार्य करती थी। इस व्यवस्था में किसी मनुष्य के साथ किसी प्रकार का किंचित भेदभाव नहीं होता था। सभी अपने कर्तव्य कर्मों को करते हुए परस्पर प्रेम से मिलकर रहते थे। ऋषि दयानन्द ने अपने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वर्णव्यवस्था का शुद्धस्वरूप प्रस्तुत किया है। जिस प्रकार वर्तमान व्यवस्था में एक डाक्टर का पुत्र बिना चिकित्सा विज्ञान पढ़े और रोगोपचार का कार्य किये डाक्टर व चिकित्सक नहीं बनता है इसी प्रकार से वैदिक वर्णव्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य अपने अपने वर्ण का ज्ञान प्राप्त करने तथा कार्य करने से ही बनते थे। यदि कोई पुत्र अपने पिता के वर्ण का कार्य नहीं करता था तो वह अपनी शैक्षित योग्यता, ज्ञान तथा कर्मों में प्रवृत्ति व व्यवसाय आदि के आधार पर उसी वर्ण का हुआ करता था। वर्तमान में जन्मना जाति व्यवस्था में मनुष्य को जन्म से ही अनेकानेक जातिगत आधार प्राप्त हो जाते हैं।

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यह नहीं देखा जाता कि जिसे जो अधिकार प्राप्त हैं वह उसका अधिकारी है भी अथवा नहीं। अनधिकारी व्यक्तियों को यदि कोई अधिकार दिया जाता है तो समाज में व्यवस्था में दोष उत्पन्न होते हैं जिससे योग्य लोगों के अधिकारों का हनन भी होता है। अतः धर्म एवं समाज विषयक विद्वानों वा धर्माचार्यों को इस विषय में ध्यान देना चाहिये और अपनी सभी व्यवस्थाओं व परम्पराओं को ज्ञान के अनुरूप बनाना चाहिये जिसमें किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन न होता हो और सब परस्पर मिलकर एक दूसरे के सहयोग से अपने ज्ञान व बल की उन्नति करते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके। ऐसा करके ही हम समाज को सुदृण और आज की आवश्यकताओं के अनुरूप बना सकते हैं। यदि यह कार्य नहीं किया जायेगा तो समाज के लिए इसके दुष्परिणाम होंगे जिसके लिए दोष वर्तमान के समाज व उसके शीर्ष पुरुषों पर आयेगा।

वेदों के आधार पर चिन्तन

जन्मना जाति में बच्चों को अपने पिता की जाति से सम्बोधित किया जाता है। कुछ जातियां उच्च जातियां मान ली गई हैं जिससे उस समुदाय में उत्पन्न बच्चों व लोगों को उसके अनुरूप सामाजिक अधिकार बिना किसी योग्यता को प्राप्त किये ही मिल जाते हैं। जो बच्चे किसी ऐसी जाति में उत्पन्न होते हैं जो दलित या पिछड़ी होती व कहलाती है तो उन लोगों व उस समुदाय के बच्चों के साथ शिक्षा, सामाजिक विवाह आदि व्यवहारों में भेदभाव किया जाता है। अतीत में इन अन्धविश्वासों के चलते स्त्री व शूद्रों को वेद व विद्या के अधिकार से ही वंचित कर दिया गया था जिससे हमारी सभी मातायें, बहिने व शूद्र कुल में उत्पन्न होने वाले बन्धु शिक्षा व वेद ज्ञान की प्राप्ति से वंचित कर दिये जाते थे। विवाह की भी ऐसी व्यवस्था की गई थी कि सब अपनी अपनी जाति में ही विवाह कर सकते थे। इससे मनुष्य समाज में सिकुड़न पैदा हुई और ऐसा देखा गया कि समाज में युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह के स्थान बाल विवाह व बेमेल विवाह भी होने लगे। कुछ लोग बहु विवाह भी करते थे। इनका विरोध करने वाला समाज में कोई नहीं था।

देश व समाज में बाल विधवाओं की भी दुर्दशा होती थी। देश में सती प्रथा की कुप्रथा भी प्रचलित रही है जो राजा राममोहन राय एवं आर्यसमाज के प्रचार से दूर हुई है। समाज के अधिकार सम्पन्न लोगों ने विवाह में विसंगतयों व समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जिससे नारी जाति व विधवाओं को अनेक प्रकार के अनावश्यक दुःख व उत्पीड़नों से गुजरना पड़ता था। यदि हमारे तत्कालीन धर्माचार्य वेदों के आधार पर चिन्तन करते हुए इन समस्याओं पर निर्णय लेते तो यह सामाजिक समस्यायें सुधर सकती थी। वर्तमान समय में भी यह समस्यायें अपने दूसरे रूपों में विद्यमान हैं।

ऋषि दयानन्द (1825-1883) और आर्यसमाज के अन्धविश्वास निवारण एवं समाज सुधार कार्यों के कारण समाज की स्थिति में कुछ सुधार अवश्य हुआ परन्तु वर्तमान व्यवस्था में अभी और अधिक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की जाती है। ऐसा करना समय की आवश्यकता है अन्यथा समाज में इसके घातक प्रभाव होंगे। जन्मना जातिवाद के कारण हिन्दू समाज व वृहद आर्य मनुष्य जाति संगठित नहीं हो पा रही है। इसकी शक्ति बिखरी हुई है। इस कारण से कुछ समुदाय व संगठन इसका अनुचित लाभ उठा रहे हैं। अतः वैदिक सनातन धर्म के सभी धर्माचार्यों एवं विद्वानों को इस जन्मना जातिवाद की समस्या पर विचार करना चाहिये और इसे वेदों की मान्यताओं के अनुकूल बनाने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करना समय की आवश्यकता है। यह कार्य जितना शीघ्र सम्पन्न कर लिया जाये उतना ही वैदिक सनानन धर्म एवं देश के हित में है। यदि इसमें देर की जायेगी तो इससे देश व समाज की भारी क्षति होगी, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

जन्मना जातिवाद के प्रचलन व व्यवहार में जाने अनजाने में लोग एक दूसरे के साथ यदा-कदा भेदभाव आदि करते हुए देखे जाते हैं। सभी व अधिकांश माता-पिता अपनी सन्तानों के विवाह अपने ही समुदाय व जाति में करते हैं। कुछ युवा जो इस नियम के विपरीत व्यवहार करना चाहते हैं उनको परिवार व समाज के कुछ लोगों द्वारा हतोत्साहित भी किया जाता है। जन्मना जातिवाद और एक ही जाति व समुदाय में विवाह होने से अनेक युवाओं व युवतियों को अपने अपने गुण, कर्म तथा स्वभाव के अनुसार इच्छित व उपयुक्त वर नहीं मिल पाते हैं। जो विवाह होते हैं वह कुछ मजबूरी व विवशता में करने पड़ते हैं। इससे युवाओं व युवतियों का जीवन उस प्रसन्नता व सुख का अनुभव करने से वंचित रह जाता है जो उन्हें वैदिक सनातन धर्म के अन्दर ही अपने दूसरे परिवारों व जातियों में करने की अनुमति देने पर हो सकता था। वेद और शास्त्र तो जन्मना जातिवाद के दायरे से बाहर स्वयंवर विवाह की आज्ञा देते हैं परन्तु सामाजिक व्यवहार ऐसा बन गया है कि युवा पीढ़ी को इसकी अनुमति नहीं मिल रही है।

हमने अनेक परिवारों में ऐसी कन्याओं को भी देखा है कि जिनके विवाह ही नहीं हो पा रहे हैं व जातिवाद की बेड़ियों के कारण विवाह के इन्तजार में उनकी विवाह की आयु ही निकल गई। माता पिता वर की तलाश करते रह जाते हैं परन्तु उन्हें उनकी इच्छा व आवश्यकता के अनुसार योग्य वर नहीं मिलते। इस काम में जन्म-पत्री का मिलान करना भी बाधक होता है। बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो जन्म-पत्री को विवाह करने में प्रमुख व आवश्यक साधन मानते हैं। वहां भी इच्छित कन्या व युवक का विवाह नहीं हो पाता।

वेदों में फलित ज्योतिष का विधान आज तक किसी ने सिद्ध नहीं किया है। वेदों के मर्मज्ञ ऋषि दयानन्द फलित ज्योतिष को अव्यवहारिक मानते थे और इतिहास में भारत की अनेक युद्धों में पराजय का कारण भी फलित ज्योतिष व इसकी मान्यतायें व अन्धविश्वास आदि ही रहे हैं। अतः जन्मना जाति को विवाह में बाधक नही बनने देना चाहिये और विवाह कन्या व युवक के गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर बिना जन्म पत्र को मिलाये किये जाने चाहिये। ऐसा करते हुए जन्मना जाति व क्षेत्रवाद की उपेक्षा भी की जानी चाहिये जिससे हमारा धर्म, समाज, देश व संस्कृति सुदृण हो सके। ऐसा करके हम आने वाले समय में गुलामी से बच सकेंगे और हमारा धर्म व संस्कृति सुरक्षित रह सकेगी। हम समझते हैं कि आज के ज्ञान व विज्ञान के युग में जन्मना जाति को समाप्त कर मनुष्यो ंको अपने गोत्र को महत्व देना चाहिये। सगोत्र विवाह को नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करना हमारे प्राचीन ऋषियों की उचित आज्ञाओं के विपरीत होगा। हमें हिन्दू व आर्य समाज में धार्मिक क्रियाकलापों व कर्मकाण्डों सहित पूजा व उपासना पद्धति में भी एकरूपता स्थापित करनी चाहिये। ऐसा करके ही हम अपने सामाजिक सम्बन्धों को सुदृण कर सकते हैं और ऐसा करके ही हिन्दू व वैदिक विचारधारा के परिवारों में सबके साथ भेदभाव दूर होकर न्याय हो सकता है। ऐसा करके ही हम ईश्वर व वेद की आज्ञाओं के पालक बनेंगे। हमारा समाज, मनुष्य जाति तथा धर्म एवं संस्कृति संगठित एवं सुदृण हो सकेंगे।

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में वेद प्रचार का कार्य किया

ऋषि दयानन्द ने अपने जीवनकाल में वेद प्रचार का कार्य किया था। उन्होंने गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित वेदविहित वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया था। वैदिक वर्ण व्यवस्था में सबको अपने ज्ञान व गुणों को विकसित करने का अवसर मिलता है। किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। सब अपनी अधिकतम उन्नति कर सकते हैं। वेदों में किसी अन्धविश्वास व सामाजिक कुरीति का उल्लेख नहीं है। वेद सत्य पर आधारित समाज व देश हित के सभी कार्यों को करने का समर्थन करते हैं। ऋषि दयानन्द द्वारा स्थापित और वेदों के अनुसार देश व समाज का निर्माण करने में अग्रणीय आर्यसमाज जन्मना-जातिवाद को इसकी भावना एवं व्यवहार के अनुरूप स्वीकार नहीं करता। इस आर्यसमाज में सभी जन्मजातियों व समुदायों के लोग आश्रय व सुख पाते हैं और परस्पर मिलकर वेदों के अनुसार उपासना व यज्ञादि कर्मकाण्ड करते हैं। जन्मना-जातिगत भेदभावों को भुलाकर परस्पर विवाह आदि सम्बन्ध भी करते हैं।

आर्यसमाज ने ही विवाहों में अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन किया है। आर्यसमाज कन्या व युवक की प्रसन्नता से गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार विवाह करने का समर्थन करता है। आर्यसमाज समाज से सभी प्रकार के भेदभावों को दूर करता है और न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का पोषक व समर्थक है। इस कार्य को हमारी समस्त हिन्दू जाति को पूर्णतया अपनाने से देश व हिन्दू जाति को लाभ होगा। इस लिये हमने इस विषय को आज यहां प्रस्तुत किया है। देश से जन्मना-जातिवाद की सभी बुराईयां दूर हों, सभी प्रकार के परस्पर के भेदभाव दूर हों, सब परस्पर मिलकर एक परिवार की भांति जीवन यापन करें, वेदों की मान्यताओं व सिद्धान्तों को अपनायें, इस भावना से यह लेख लिखा है। सब वेद पढ़े, ईश्वर को जाने, ईश्वर की उपासना व यज्ञ करें, देश व धर्म के विषय में चिन्तन करें व इनकी रक्षा के उपाय करें, सभी भेदभावों को समाप्त करें, यही आर्यसमाज, वेद, ईश्वर व हमारी अपेक्षा है। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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