ओ३म्
“मनुष्य जीवन की उन्नति के सरल वैदिक साधन”
संसार में अनेक प्रकार के प्राणी हैं जिनमें से एक मनुष्य है। मनुष्य उसे कहते हैं जिसमें मनन करने का गुण व सामथ्र्य है। मनन करना सत्य व असत्य के विवेक वा निर्णय करने के लिए होता है। मनुष्य के पास अन्य प्राणियों की तुलना में उनसे कहीं अधिक विकसित बुद्धि तत्व व बोलने के लिए वाणी होती है। दो हाथ परमात्मा ने मनुष्य शरीर के साथ दिये हैं जिससे यह आत्मा, मन, मस्तिष्क व बुद्धि से निर्णीत विचारों को फलीभूत व सफल कर सकता है। हम जानते हैं कि मनुष्य का जन्म वा उत्पत्ति माता पिता के द्वारा होती है। जन्म के समय सन्तान एक शिशु के रूप में होती है जो रो तो सकती है परन्तु अपने कार्य स्वयं नहीं कर सकती। उसे अपने माता-पिता व संबंधियों पर निर्भर होना पड़ता है। आरम्भ में माता के दूध व कुछ समय बाद दुग्ध, फल व अन्न के द्वारा उसके शरीर का विकास होता है। समय बीतने के साथ वह उठना बैठना व चलना आरम्भ करता है। माता-पिता की जो भाषा वह सुनता रहता है, उसी को धीरे धीरे बोलना आरम्भ करता है और कुछ काल बाद उसे अच्छी तरह से बोलना भी आरम्भ कर देता है। उसकी बुद्धि भी अब कई विवेकपूर्ण बातें करने लगती है। कई बार तो वह ऐसे उत्तर देते हैं कि जिसका अनुमान बड़े भी नहीं कर सकते। इस मन व बुद्धि को ज्ञान से आलोकित करने के लिए उसे शिक्षित करने की आवश्यकता होती है। माता अपनी सन्तानों की पहली गुरु होती है। जब वह तीन वर्ष से अधिक आयु का हो जाता है तो माता-पिता उसे स्कूल या पाठशाला भेजना आरम्भ कर देते हैं जिससे वह कुछ अच्छे संस्कार प्राप्त करने के साथ अक्षर ज्ञान प्राप्त कर सके। यह उसके अध्ययन का आरम्भ काल कहा जा सकता है जो अध्ययन करते हुए प्रायः कक्षा दस, बारह, चैदह-पन्द्रह अथवा एम.ए. सहित पी.एच-डी. वा डाक्टर, इंजीनियर, प्रबन्धन, शोध आदि उपाधियों से अलंकृत होता है। बाल्यकाल में बच्चा धारा प्रवाह मातृ भाषा बोलता तो है, इसके साथ ही वह अपने हित व अहित को कुछ कुछ समझने लगता है। शिक्षा पूरी कर वह अपनी आजीविका अर्जित करने की योग्यता भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा होने पर भी अभी तक उसे न तो ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान होता है, न उपासना की विधि और न यज्ञ आदि करना ही आता है। माता-पिता के प्रति कर्तव्यों का भी यथोचित ज्ञान अधिकांश युवाओं को नहीं होता। इसके लिए उन्हें अन्य ग्रन्थों व विद्वानों की शरण में जाना होता है जहां इन विषयों से संबंधित सत्य ज्ञान प्राप्त हो सके।
मनुष्य जो घरेलु व स्कूली शिक्षा प्राप्त करता है उससे अपने जीवन के उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान व अभ्यास उसे नहीं होता। अधिकांश मनुष्यों का सारा जीवन व्यतीत हो जाता है और वह जीवन के उद्देश्य को जानने व अपना इहलोक व परलोक संवारने वाले कर्तव्यो से वंचित ही रहते हैं जिसका हानिकारक परिणाम उनके परजन्म पर पड़ना निश्चित होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि माता-पिता अपनी सन्तानों को बचपन से ही जीवन के वास्तविक उद्देश्य सहित उसे श्रेष्ठ मनुष्यों वा आर्यों के धार्मिक ग्रन्थ वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति सहित सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, उपदेशमंजरी आदि का परिचय दें। यदि इन सबका सार भी बच्चों को बता दिया जाये तो उससे उनकी अविद्या कम हो सकती है। इसके लिए हमें यह उपयुक्त लगता है कि सभी घरों में माता-पिता व परिवार के सभी सदस्य मिलकर नियमित रूप से सन्ध्या व अग्निहोत्र किया करें। प्रत्येक रविवार को सम्भव हो तो आर्यसमाज के सत्संग में अवश्य जाया करें। आर्यसमाज के मंत्री जी से वह निवेदन करें कि प्रत्येक सप्ताह अच्छे विद्वानों को बुलाकर उनका प्रवचन करायें। इससे उन्हें पर्याप्त लाभ होगा और आर्यसमाज के सत्संगों में जाने में उनमें उत्साह उत्पन्न हुआ करेगा। यह सब करने पर भी स्वाध्याय से जो लाभ होता है उसकी पूर्ति इन सभी साधनों से नहीं होती। इसके लिए हमें यह उचित प्रतीत होता है कि सभी आर्य व इतर परिवारों में प्रति दिवस सायंकाल व रात्रि निर्धारित समय पर सत्यार्थप्रकाश का पाठ हुआ करे। इसे यदि नित्यकर्म में सम्मिलित कर लिया जाये और इसे भोजन की भांति अनिवार्य परम्परा बना दें तो यह जीवन उन्नति का एक बहुत बड़ा साधन बन सकता है। परिवार का यदि कोई सदस्य किसी कारणवश नगर व ग्राम से बाहर जाये तो वह सत्यार्थप्रकाश अपने साथ ले जाये और जब उसे सुविधा हो उस समय वह सत्यार्थप्रकाश का पाठ अवश्य करे। इससे उसके सत्यार्थप्रकाश के पाठ में अनभ्यास के कारण किसी प्रकार की भी रुकावट नहीं आयेगी। यदि बच्चे व युवा घर में सन्ध्योपासन, अग्निहोत्र व सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय तक ही सीमित रहें तो हमें लगता है कि इस नियम का पालन करने से मनुष्य के जीवन का बहुविध उन्नति व कल्याण हो सकता है। इससे उस मनुष्य के भावी जीवन के प्रारब्ध में गुणात्मक वृद्धि होने से परजन्म में इसका लाभ होगा। यह कोई कठिन कार्य नही है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि जब मनुष्य सन्ध्योपासना, यज्ञ व सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय करेगा तो उन्हें इतर कर्तव्यों का बोध भी साथ साथ होता जायेगा जिसके विषय में उसे कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। अन्य सभी कर्तव्यों को भी वह स्वयं यथासमय करता रहेगा जिससे कि उसे इस जन्म व परजन्म की जीवन की उन्नति का लाभ होगा। हमने यह जो लिखा है वह कार्य स्कूली शिक्षा व अध्ययन को जारी रखते हुए अतिरिक्त रूप से करना है। स्कूली शिक्षा से इसका विरोध नहीं है अपितु ऐसा करने से उसे अपने स्कूली अध्ययन में भी लाभ प्राप्त होगा।
मनुष्य जीवन में संगतिकरण का भी महत्व है। अच्छे लोगों की संगति का अच्छा परिणाम होता है और बुरे लोगों की संगति से मनुष्य का जीवन व भविष्य पतन को प्राप्त हो जाता है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर जब हम सन्ध्योपासना व स्वाध्याय करते हैं तो हमारी संगति अध्यययन किये जा रहे विषय सहित ईश्वर के साथ होती है। ईश्वर संसार के सब गुणों के अधिपति व स्वामी होने सहित सभी अवगुणों से सर्वथा मुक्त है। संगति से ध्येय के गुण व अवगुणों का संचार मनुष्य के जीवन व आत्मा आदि अन्तःकरण चतुष्टय में होता है। अतः ईश्वरोपासना, यज्ञ एवं सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से ईश्वर व ऋषि दयानन्द जी की संगति का लाभ भी मिलता है। अब यदि हमारा ऐसा जीवन होगा तो वह उन्नत व प्रतिष्ठित जीवन ही होगा। यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन का व्रत लेता है तो वह तीन महीनों में सत्यार्थप्रकाश का एक बार अध्ययन पूर्ण कर सकता है। कोई व्यक्ति एक माह व कोई इससे कुछ अधिक समय में भी कर सकता है। इस प्रकार एक वर्ष में न्यूनतम चार बार व उससे भी अधिक बार सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन हो जायेगा। इससे मनुष्य की जो आत्मिक, बौद्धिक व मानसिक स्थिति बनेगी उसका चिन्तन कर हम कह सकते हैं कि वह सत्यार्थप्रकाश का अधिकारी विद्वान हो सकता है। उसकी तुलना में किसी मत-मतान्तर का कोई विद्वान ठहर नहीं सकता। हमें स्मरण है कि हमने एक दिन में 10 घंटों से भी अधिक अध्ययन करने का अभ्यास किया। यदि इस गति से कोई सत्यार्थप्रकाश पढ़ेगा तो एक वर्ष में वह बहुत अधिक नहीं तो सामान्य व कुछ अधिक अधिकार प्राप्त कर ही सकता है। अतः मनुष्य जीवन को अग्रणीय व श्रेष्ठ बनाने के लिए मनुष्य तीन व्रत सन्ध्या करना, यज्ञ-अग्निहोत्र करना व सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना तो कम से कम ले ही सकते हैं। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य की प्रेरणा मिलती है व ऐसा करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। हमें यह भी अनुभव होता है कि ऐसा करने से मनुष्य की भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति दोनों होंगी और वह समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति बन सकता है। यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी है। यदि मनुष्य अधिक समय निकाल सके तो अतिरिक्त समय में समस्त वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से वह अच्छा विद्वान, लेखक व उपदेशक बन कर अपना व समाज का अनेक प्रकार से कल्याण कर सकता है। हमें सन्ध्या, अग्निहोत्र और सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय, यह तीन कार्य जीवन को उन्नत व श्रेष्ठ मनुष्य बनाने के सरल उपाय लगते हैं जिन्हें अल्प व अशिक्षित व्यक्ति भी अल्प प्रयास कर सिद्ध कर सकते हैं। हम आशा करते हैं पाठक इस पर विचार करेंगे और इन व्रतों को जीवन में धारण करेंगे जिससे वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग के पथिक बन कर अधोगति को प्राप्त न होकर उत्तम जीवन उन्नति व परमगति मोक्ष की निकटता को प्राप्त होंगे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य