आर्यजगत् की प्रसिद्ध वैदिक साहित्य के शोध एवं प्रकाशन की संस्था ‘आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली’ द्वारा इतिहास में प्रथमवार दिनांक 26 दिसम्बर, 1981 को प्रक्षेपों से रहित ‘‘विशुद्ध-मनुस्मृति” का भव्य प्रकाशन किया गया था। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ के व्याख्याता, समीक्षक तथा सम्पादक आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान कीर्तिशेष पं. राजवीर शास्त्री जी थे। इस ग्रन्थ में महर्षि दयानंद जी के मनुस्मृति के श्लोकों के उपलब्ध अर्थों व व्याख्याओं को प्रस्तुत करने सहित मनुस्मृति के सभी शुद्ध श्लोकों का हिन्दी भाष्य भी दिया गया था। इसके साथ ही इस ग्रन्थ में मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों को न देकर प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा भी प्रस्तुत की गई थी। ग्रन्थ के आरम्भ में ट्रस्ट के प्रधान कीर्तिशेष अनन्य ऋषिभक्त महात्मा दीपचन्द आर्य जी का 4 पृष्ठों का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रकाशकीय भी दिया गया है। इस प्रकाशकीय के बाद ग्रन्थ के व्याख्याता एवं सम्पादक पं. राजवीर शास्त्री जी का 24 पृष्ठों का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राक्कथन दिया गया है। इस प्राक्कथन में मनुस्मृति का महत्व, प्रक्षेप के कारण, प्रक्षेपों से हानि, मनुस्मृति से प्रक्षेपों को निकालने के आधार आदि सहित मनुस्मृति के प्रस्तुत किये गये संस्करण की विशेषतायें भी विस्तार से सूचित की गई हैं। इस प्रथम संस्करण के बाद इसका पुनः प्रकाशन नही हुआ है। वर्तमान में सम्भवतः नैट पर इस ग्रन्थ को पढ़ा का जा सकता है।
हम प्रस्तुत लेख में पं. राजवीर शास्त्री जी द्वारा विशुद्ध-मनुस्मृति में सम्मिलित ‘‘प्रक्षेपों से हानि” शीर्षक से दिये महत्वपूर्ण विचारों को उद्धृत कर रहे हैं जिससे पाठकों को इसका ज्ञान हो सके। हम आशा करते हैं कि इससे पाठक लाभान्वित होंगे। इस विषयक पं. राजवीर शास्त्री जी लेख उद्धृत हैः-
‘‘(1) वेदों के मिथ्या-भाष्यों के कारण वेदों के प्रति अनास्था, घृणाभाव और वेदों को गडरियों के गीत कहा जाने लगा, वैसे ही मनुस्मृति जैसे उत्कृष्ट तथा प्रामणिक ग्रन्थ के प्रति भी हीनभावना उत्पन्न होने लगी। क्योंकि मनुस्मृति का संविधान तो सार्वभौम, जाति, देश तथा काल के बन्धनों से रहित, अत्यन्त शुद्ध, पक्षपात रहित, तथा वेदानुकूल है और प्रक्षेपों में वेदविरुद्ध, पक्षपातपूर्ण, अतिशयोक्तिपूर्ण, परस्परविरुद्ध, प्रसंगविरुद्धादि अनेक प्रकार के मलीनता के भाव ओत-प्रोत हैं। जिनके कारण न केवल इस ग्रन्थ की आलोचना अथवा दोषारोपण ही हुए, प्रत्युत एक वर्गविशेष ने तो इसकी प्रतियों को अग्नि में स्वाहा करने का भी साहस कर दिया। और मनु की उदार, जनहितैषी, सत्य मान्यताओं को प्रक्षेपकों ने इतना सकीर्ण, तथा कुण्ठित बना दिया था कि जिनके कारण न केवल इस ग्रन्थ के प्रति हेय-भावना ही उत्पन्न हुई, प्रत्युत इसे एक वर्गविशेष का ही माना जाने लगा।
वर्णों की व्यवस्था का आधार गुण, कर्म तथा स्वभाव
(2) मनु के अनुसार वर्णों की व्यवस्था का आधार गुण, कर्म तथा स्वभाव हैं, परन्तु जन्मजात ब्राह्मणों की दूषित परम्परा के प्रचलित होने पर मनु के श्लोकों को भी जन्म-परक ही माना जाने लगा जिसके कारण जन्म-जात बाह्मणों की श्रेष्ठता तथा दूसरे वर्ण के लोगों के प्रति घृणाभाव फैला। धर्मानुष्ठान से लोगो को वंचित रखा गया, विद्या पढ़ने व यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार कुछ परिगणति व्यक्तियों के ही अधीन रह गया, मनु के अहिंसामूलक परमधर्म को भुलाकर सर्वोत्तम यज्ञ जैसे पवित्र कार्यों में भी हिंसा का आश्रय किया जाने लगा, सात्विक आहार के प्रशंसक मनु को राक्षस एवं तामसिक मांस-मदिरा का पोषक बना दिया, और भारतीय-संस्कृति के मूल आधाररूप जन-हितैषी सत्य-मान्यताओं को अज्ञान, मिथ्याज्ञान तथा भ्रान्तियों के अन्धकार से बिल्कुल ही ढक दिया गया। स्त्रियों के प्रति अत्यन्त सम्मान की भावना रखने वाले मनु को स्त्री-विरोधी बना दिया। ‘स्वयंवर-विवाह’ विवाह का उत्तम समय युवावस्था, एक-पत्नीव्रत, तथा आध्यात्मिक-भावों से ओत-प्रोत इस धर्म-शास्त्र का धर्मविरुद्ध दुःखमूलक बाल-विवाह, बहु-विवाहादि कुप्रथाओं के चंगुल में डाल दिया। और परवर्ती समयों के देश तथा नामों के मिश्रण से इस ग्रन्थ (मनुस्मृति) को बहुत ही नवीनतम सिद्ध कर दिया है।
मौलिक मान्यतायें इस ग्रन्थ में हैं
(3) मनु की जो मौलिक मान्यतायें इस ग्रन्थ में हैं, वे बहुत ही शिक्षाप्रद, हृद्य, सत्य एवं निर्भ्रांत हैं। मनुप्रोक्त धर्म का विधान हिंसा-रहित पक्षपात रहित व सार्वभौम है जिनके कारण आज भी इस ग्रन्थ का सम्मान अत्यधिक है और प्रक्षिप्त श्लोकों के अभाव के समय में तो इसकी प्रामाणिकता तथा साहित्यिक मूल्यांकन सर्वोच्च था, परन्तु आज इस ग्रन्थ में स्वार्थ व पक्षपातमूलक दूषित प्रवृत्ति देखकर इसके प्रति घृणाभाव के बीज अंकुरित हो गये हैं। और मनु का व्यक्तित्व तथा प्रामाणिकता अस्त-व्यस्त ही दिखायी देने लगी है जिसके कारण मानव समाज में एक धर्मनिर्णय का मापदण्ड न होने से सूर्य के अभाव में घोर अन्धेरे वाली रात्रि जैसी दशा हो गई है। लोगों के मनों में सत्यधर्म की आस्था न होने से निशाचर राक्षसीवृत्ति वाले उलूकरूप मत-मतान्तरों के पक्षधर अपना-अपना स्वार्थ-साधन करने में लगे हैं और सुखमूलक धर्म के अनुष्ठान न करने से और दुःखमूलक अधर्म के छा जाने से सर्वत्र दुःख, अशान्ति, व्याकुलता के कारण त्राहि-त्राहि की करुण-क्रन्दन की श्रृगाल तुल्य ध्वनियां सुनायी दे रही हैं। और त्रिविध दुःखें से सन्तप्त तथा पथ-भ्रष्ट मानव निराशा-नदी में ही निमग्न दिखायी दे रहा है।”
हम आशा करते हैं कि हमारे प्रिय पाठक ़पं. राजवीर शास्त्री जी के उपुर्यक्त विचारों से लाभान्वित होंगे। कुछ समय बाद हम पंडित जी द्वारा लिखित मनुस्मृति के महत्व को भी प्रस्तुत करेंगे। ओ३म् शम्।
-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य