ऋषि दयानन्द को अपने बाल्यकाल में सच्चे ईश्वर की खोज तथा मृत्यु पर विजय प्राप्ति के उपाय जानने की प्रेरणा हुई थी। उन्हें इस सम्बन्ध में अपने किसी पारिवारिक सदस्य व विद्वानों से समाधान प्राप्त नहीं हुआ था। इन प्रश्नों के समाधान के लिये उन्होंने अपने पितृगृह को छोड़कर एक सच्चे धर्म जिज्ञासुकी तरह देश के अनेक भागों में जाकर धार्मिक विद्वानों तथा योगियों की संगति की थी व उनकी शरण ली थी।
अपने उद्देश्य की पूर्ति तक वह एकनिष्ठ होकर ईश्वर एवं मृत्यु विषयक रहस्यों को जानने का प्रयत्न करते रहे। ऐसा करते हुए वह बालक मूलशंकर से संन्यासी स्वामी दयानन्द बने थे और अपने देशाटन, विद्वानों की संगति, अध्ययन व योग में प्रवीणता प्राप्त कर वह सच्चे योगी बने थे। योगी बनने पर मनुष्य को ईश्वर का सत्यस्वरूप प्रायः ज्ञात हो जाता है। सिद्ध योगी बनने के बाद भी उनमें विद्या प्राप्ति की इच्छा बनी रही। वह सच्चे विद्या गुरु की खोज में थे। उनकी इच्छा सन् 1860 में मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी गुरु विरजानन्द सरस्वती जी का सान्निध्य पाकर व उनसे विद्या प्राप्त कर पूर्ण हुई। अपने गुरु की प्रेरणा से ही उन्हें देश व संसार से अविद्या दूर करने का परामर्श मिला था जिसे उन्होंने सत्यनिष्ठा से स्वीकार किया था। उन्होंने अपने गुरु को गुरु की इच्छा व अपने वचन को पूर्ण करने का आश्वासन भी दिया था।
गुरु से सन् 1863 में विदा लेकर स्वामी दयानन्द जी विद्या का प्रकाश करने के लिये कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट हो चुके थे। उन्होंने आगरा में कुछ महीने रहकर विद्या का प्रचार किया और अपने भावी प्रचार की योजना तय की थी। यहां रहकर ही उन्होंने वेदों की लिखित प्रति प्राप्त करने के प्रयत्न किये थे। इसके लिये वह ग्वालियर, भरतपुर, करौली व जयपुर आदि भी गये थे। सम्भवतः राजस्थान के भरतपुर या करौली में उन्हें चार वेदों की प्रतियां प्राप्त हुई थी जिसकी उन्होंने परीक्षा की थी और उन्हें सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्राप्त सब सत्य विद्याओं से युक्त ज्ञान पाया था।
स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से उन्होंने वेदांगों का अध्ययन किया था। इनके पास आने से पूर्व भी वह प्राचीन धर्मग्रन्थों व शास्त्रों को ढूंढकर उनका अध्ययन किया करते थे। इस ज्ञान व अनुभव के आधार पर उन्होंने वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थों को जाना व समझा था। वेदों के आधार पर ही उन्होंने अपने धर्म सम्बन्धी सभी सिद्धान्तों का निश्चय किया था। उन्हें अविद्या तथा विद्या का विवेक था। इसी कारण से वह मूर्तिपूजा की निरर्थकता को समझ सके थे तथा इसके साथ ही उन्होंने अवतारवाद की मिथ्या मान्यताओं, मृतक श्राद्ध तथा फलित ज्योतिष आदि की निरर्थकता को भी जाना था और इनके खण्डन में प्रवृत्त हुए थे।
वेदों को प्राप्त कर उनका अध्ययन करने तथा अपने गुरु के सान्निध्य में प्राप्त ज्ञान के आधार पर वह अविद्या व विद्या के यथार्थस्वरूप को जानने के साथ मत-मतान्तरों के ग्रन्थों, मान्यताओं तथा सिद्धान्तों में निहित अविद्या को भी जान सके थे। मनुष्य व समाज के लिये अत्यन्त हानिकारक अविद्या को पहचान कर उन्होंने इसका खण्डन करना भी आरम्भ किया था। वह धार्मिक सिद्धान्तों पर बहस, चर्चा व मन्थन करने से भागते नहीं थे अपितु उसका स्वागत करते थे और किसी भी जिज्ञासु व मत-पन्थ के आचार्य से हर समय अपने व परकीय मत, मान्यताओं व सिद्धान्तों पर सत्यासत्य की परीक्षा व चर्चा करने के लिए तत्पर रहते थे। वह अकेले ऐसे धर्माचार्य व विद्वान हुए हैं जिन्होंने महाभारत के बाद दूसरे मतों के आचार्यों से सबसे अधिक शास्त्रार्थ व शास्त्र चर्चायें की और उन सब में उनका पक्ष सफल रहा।
उन्होंने वेदों के आधार पर जिन सिद्धान्तों को अपनाया था वह सब अकाट्य थे। आज तक भी कोई विद्वान व मताचार्य उनके किसी सिद्धान्त का वेद प्रमाण व तर्क एवं युक्तियों के आधार पर खण्डन नहीं कर पाया है। वेदों के सभी सिद्धान्त जो उन्होंने प्रचारित किये व जिसे उन्होंने अपने ग्रन्थों व वेदभाष्य आदि में प्रस्तुत किया है, वह आज भी अखण्डित एवं सत्य सिद्ध हुए हैं व हो रहे हैं। यह बात अलग है कि आज भी मत-मतान्तरों के आचार्यों ने अपनी अविद्यायुक्त मान्यताओं व परम्पराओं को छोड़ा नहीं है और वेद की सत्य मान्तयाओं को स्वीकार कर उन्हें आचरण में लाना आरम्भ नहीं किया है।
महर्षि दयानन्द अपने गुरु को देश व संसार से अविद्या दूर करने हेतु प्रयत्न करने का वचन देकर आये थे। उन्होंने मौखिक प्रचार से सत्य मान्यताओं का मण्डन और असत्य मान्यताओं का खण्डन करना आरम्भ किया था। वह जो प्रचार करते थे वह सब युक्तियों व तर्कों पर आधारित होता था। वह वेद और मनुस्मृति आदि शास्त्रों के प्रमाण देते थे और उनके तर्कसंगत होने को सिद्ध भी करते थे। मौखिक प्रचार का प्रभाव सीमित क्षेत्र पर ही होता है। इसमें वृद्धि करने के लिये अपने भक्तों की प्रेरणा से उन्होंने वेदानुकूल मान्यताओं सहित धर्म विषयक अपने सभी विचारों से युक्त सन्1874 में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को लिखवाना आरम्भ किया था। लगभग साढ़े तीन मास में ही उन्होंने विश्व के अपने इस अपूर्व ग्रन्थ को पूर्ण कर लिया था। मनुष्य के मन में ईश्वर व सृष्टि सहित अपने आचार विचार, व्यवहार तथा कर्तव्य-अकर्तव्य को लेकर जो भी शंकायें व भ्रम हो सकते हैं, उन सबका निराकरण व समाधान ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में किया है।
सत्यार्थप्रकाश का वर्तमान स्वरूप एक प्रकार से एक आदर्श धर्म शास्त्र का है जो सत्य को अपनाने और असत्य को छोड़ने की प्रेरणा करता है। सत्यार्थप्रकाश में धर्म, संस्कृति व जीवन से जुड़े प्रायः सभी विषयों की युक्ति व तर्क सहित विवेचन की पद्धति से परीक्षा की गई है और पाठकों को असत्य मान्यताओं के दोषों तथा सत्य मान्यताओं की सत्यता को बताते हुए सत्य को अपनाने की प्रेरणा दी गई है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर मनुष्य का चहुंमुखी बौद्धिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास वा उन्नति होती है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति व सृष्टि का सत्य स्वरूप विदित होता है। पाठक का आत्मा सत्य को स्वीकार करता तथा असत्य मान्यताओं व परम्पराओं से परिचित हो जाता है।
इसके बाद मनुष्य को अपने हित व अहित को देखकर उन्हें स्वीकार करना होता है। बहुत से लोग सत्य को जानने पर भी उसे स्वीकार नहीं कर पाते। ऐसे ही कारणों से सत्यार्थप्रकाश विश्व का सर्वमान्य ग्रन्थ अभी तक नहीं बन पाया है परन्तु इसमें वह शक्ति विद्यमान है जिससे यह भविष्य का सर्वमान्य धर्म विषयक ग्रन्थ होगा, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है। एक ऐसा समय भी आ सकता है कि जब संसार के सभी लोग सत्यार्थप्रकाश व ऋषि के अन्य ग्रन्थों पंचमहायज्ञविधि, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका व योगदर्शन आदि के आधार पर उपासना व देवयज्ञ अग्निहोत्र आदि किया करेंगे और अपने वर्तमान जीवन सहित भविष्य व परजन्म का भी सुधार करेंगे।
ऋषि दयानन्द ने वेदों पर आधारित सत्य मान्यताओं सहित सम्पूर्ण वेदों का प्रचार करने के लिये वेदों के भाष्य लेखन का कार्य भी किया। असंगठित रूप से कार्य करने पर उसका प्रभाव सीमित होता है तथा संगठित प्रचार से प्रभाव में गुणात्मक वृद्धि होती है। अपने अनुयायियों की प्रेरणा व मांग पर ऋषि ने वेदों के प्रचार व प्रसार के लिये एक संगठन को स्थापित करना स्वीकार किया था और चैत्र शुक्ल पंचमी विक्रमी संवत्1931 तदनुसार दिनांक10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज के नाम से धर्म प्रचार तथा समाज व देश सुधार सगठन की स्थापना की थी। ऋषि दयानन्द ने ही आर्यसमाज के दस नियम बनाये हैं जो वेदानुकूल सिद्धान्तों पर आधारित होने सहित तर्क एवं युक्ति से अकाट्य सिद्ध हैं।
यह ऐसे सिद्धान्त हैं कि जिसके समान हमें किसी धार्मिक व सामाजिक संगठन के सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होते। इन नियमों में सभी सृष्ट पदार्थों तथा विद्या का आदि मूल परमेश्वर को बताया गया है। ईश्वर का सत्यस्वरूप व उसके गुण कर्म व स्वभाव को भी आर्यसमाज के दूसरे नियम में प्रस्तुत किया गया है। आर्यसमाज का दूसरा नियम ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान कराने वाला ऐसा नियम है जिसके समान विश्व साहित्य में ईश्वर विषयक ज्ञान व नियम उपलब्ध नहीं होता। आर्यसमाज के तीसरे नियम में वेदों को सब सत्य विद्याओं का पुस्तक बताया गया है और सब मनुष्यों का उसको पढ़ना, आचरण करना तथा उसका प्रचार करना कर्तव्य व परमधर्म बताया गया है। एक नियम में अविद्या का नाश और विद्या की उन्नति की प्रेरणा भी की गई है। आर्यसमाज की व्यापक विचारधारा सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य में उपलब्ध होती है। उनको मानना व उनका प्रचार करना आर्यसमाज का उद्देश्य व कार्य है। आर्यसमाज यह कार्य अपने स्थापना दिवस से निरन्तर कर रहा है। इसका पूरे समाज, देश व विश्व पर प्रभाव भी पड़ा है।
क्रान्तिकारी वीर सावरकर जी ने कहा है कि सत्यार्थप्रकाश की उपस्थिति में कोई मत व पन्थ अपने मत की शेखी नहीं बघार सकता। देश को आजाद कराने तथा देश में शिक्षा के प्रसार सहित सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों के उन्मूलन में आर्यसमाज की महती, अग्रणीय व प्रमुख भूमिका रही है। आर्यसमाज न होता तो हम आज वैदिक सनातन नित्य धर्म की क्या स्थिति होती, इसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। आर्यसमाज ने सनातन वैदिक धर्म की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है। आर्यसमाज की स्थापना सहित सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ के लेखन व प्रचार से वेदों की रक्षा सहित प्राचीन भारतीय वैदिक धर्म एवं संस्कृति की रक्षा हुई है और देश ने अनेक क्षेत्रों में उन्नति की है।
ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में लिखे शब्दों को लिख कर हम लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं ‘जो उन्नति करना चाहो तो‘आर्यसमाज’ के साथ मिलकर उस के उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिये, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा। क्योंकि हम और आपको अति उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन, मन, धन से सब जने(देशवासी) मिलकर प्रीति से करें। इसलिए जैसा आर्यसमाज आर्यावत्र्त देश की उन्नति का कारण वैसा दूसरा नहीं हो सकता।‘ ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य