ओ३म् “वेदों का महत्व एवं उनके प्रचार मे मुख्य बाधायें”

0
740
om nama shivay...........................आशुतोष भगवान शिवजी द्वारा धारण हर वस्तु के मतलब

संसार में जड़ व चेतन अथवा भौतिक एवं अभौतिक दो प्रकार के पदार्थ हैं। भौतिक पदार्थों का ज्ञान विज्ञान के अध्ययन के अन्तर्गत आता़ है। अभौतिक पदार्थों में दो चेतन सत्ताओं ईश्वर एवं जीवात्मा का अध्ययन आता है। दोनों ही सूक्ष्म पदार्थ होने से हमें आंखों से दिखाई नहीं देते। जीवात्मा के अस्तित्व का अनुभव एवं प्रमाण अनेक प्रकार के प्राणियों के शरीरों में होने वाली क्रियाओं को देखकर होता है। परमात्मा मनुष्यों की तरह शरीरधारी नहीं है, अतः निराकार एवं सूक्ष्मतम सत्ता होने के कारण इसे आंखों व सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से नहीं देखा जा सकता। हम सृष्टि को देखकर और इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल आदि विशिष्ट रचनाओं को देखकर किसी एक ईश्वरीय व दैवीय सत्ता के होने का अनुमान व प्रत्यक्ष करते हैं जिसने सृष्टि के सूर्य, चन्द्र आदि अपौरुषेय रचनाओं को अस्तित्व प्रदान किया है। संसार की रचना एवं इसका पालन करने वाली ईश्वरीय सत्ता का पूर्ण ज्ञानयुक्त एवं सर्वशक्तिमान होना भी सभी चिन्तक एवं विचारक विद्वत्समुदाय अनुभव करते हैं।

सृष्टि में सबसे पुरानी ज्ञान की पुस्तकों पर दृष्टि डालें तो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तकें निश्चित होती हैं। वेदों में जो ज्ञान है वह ईश्वर की अपनी भाषा वैदिक संस्कृत में दिया गया है। लौकिक संस्कृत भाषा एवं वेदों की संस्कृत भाषा में व्याकरण एवं अनेक बातों का अन्तर है। वैदिक ऋषि परम्परा से ज्ञात होता है कि वेद अपौरूषेय ग्रन्थ हैं। वेदों का रचयिता इस सृष्टि में निराकार स्वरूप से विद्यमान सत्ता परमात्मा है। वेद में निहित समस्त ज्ञान सत्य विद्याओं का पर्याय है। ऋषि दयानन्द एक ऋषि थे। उन्होंने ईश्वर का समाधि अवस्था में साक्षात्कार किया था। उन्होंने भी वेदों की परीक्षा कर बताया है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद एवं ऋषिकृत वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा तथा कर्म-फल सिद्धान्त का तर्क एवं युक्ति से पुष्ट यथार्थ वर्णन मिलता है। ऐसा वर्णन संसार के किसी मत-मतान्तर के ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। वेदाध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुष्य का धर्म व कर्तव्य सत्य ज्ञान की प्राप्ति करना व उसके अनुरूप आचरण करना है। अविद्या का त्याग भी ज्ञान प्राप्ति में निहित होता है। यदि हम ज्ञान प्राप्त होकर भी अज्ञान व अन्धविश्वास के कामों को करते हैं, तो हमारा ज्ञानी होना लाभप्रद व हितकारी नहीं होता। हमें व संसार के सभी लोगों को अपनी अविद्या का त्याग करना है तभी वह मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं।

Advertisment

वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य विद्वान, अविद्या से पृथक एवं विद्या से युक्त होता है। ऋषि विद्वानों की वह कोटि है जो पूर्ण योगी होते हंै, जिन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ होता है तथा जो वेदों के सभी मन्त्रों के अर्थों को यथार्थ रूप में जानते व उनका प्रचार करते हैं। ऋषियों की यह प्रमुख विशेषता होती है कि वह अपने सभी स्वार्थों का त्याग कर देते हैं और परमार्थ के लिये ही अपने जीवन को अर्पित करते हैं। ऐसे ऋषियों में ऋषि दयानन्द का अग्रणीय व प्रमुख स्थान है। ऋषि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी, सच्चे योगी, ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए, स्वार्थों से ऊपर उठे हुए तथा परमार्थ में ही जीवन व्यतीत करने वाले, वेदों के सच्चे ज्ञानी व उसके सभी मन्त्रों के अर्थों के ज्ञाता विद्वान थे। उन्होंने वेदों पर भाष्य सहित मानव जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ प्रदान किये हैं। इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन एवं आचरण कर मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत व इसकी उपेक्षा करने वाला व्यक्ति जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से भटक जाता है और कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार उसे जन्म-जन्मान्तर में अनेक कष्टों व दुःखों सहित पशु-पक्षियों आदि योनियों में जन्म लेकर दुःःख भोगने पड़ते हैं।

संसार से धार्मिक एवं सामाजिक अज्ञान व अविद्या दूर करने का प्रमुख उपाय व साधन वेदों के ज्ञान व मान्यताओं आदि का प्रचार व प्रसार है। ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार करने सहित समस्त वैदिक मान्यताओं को लेखबद्ध करने एवं वेदों के अधिकांश भाग पर भाष्य व टीका भी प्रदान की है। उनके अनुगामी विद्वानों ने वेदों के शेष भाग सहित सम्पूर्ण वेदों पर वेदार्थ रूपी भाष्य व टीकायें लिखी हैं जिससे आज हम प्रत्येक मन्त्र के प्रत्येक शब्द का हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं में अर्थ, तात्पर्य एवं भाव जानते व जान सकते हैं। वेदों में जो ज्ञान है वह संसार में किसी मत व सम्प्रदाय के ग्रन्थों सहित इतर किसी विद्वान के ग्रन्थों से सुलभ नहीं होता। ऋषि दयानन्द ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी व सृष्टि संम्वत् के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति से 1.96 अरब वर्ष बाद संसार में आये थे। उनके समय में लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के कारण समस्त संसार में अविद्या फैली थी। किसी मनुष्य को ईश्वर के सत्यस्वरूप का निश्चयात्मक वा निर्दोष ज्ञान नहीं था। कोई मूर्तिपूजा करता था तो कोई ईश्वर को आसमान में मानता था। किसी विद्वान ने यह प्रश्न नहीं किया कि मूर्ति व आसमान में निवास करने वाला ईश्वर संसार को बनाता व चलाता कैसे है? ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सभी प्रश्नों के सत्य-सत्य उत्तर दिये। ईश्वर व आत्मा सहित सृष्टि के उपादान कारण, निमित्त कारण, साधारण कारण एवं सृष्टि उत्पत्ति में मूल प्रकृति से महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, पंचमहाभूत, सूक्ष्म शरीर आदि की उत्पत्ति पर ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला है।

दर्शन ग्रन्थों में सृष्टि रचना का जो वर्णन किया गया है वह पूर्णतः ज्ञान, विज्ञान, तर्क एवं युक्ति के अनुरूप तथा अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों से सर्वथा रहित है। मनुष्य के जीवन में किस अवस्था में क्या कर्तव्य होते हैं, इन पर भी ऋषि दयानन्द ने विस्तार से प्रकाश डाला है और संस्कारविधि नाम का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी हमें दिया है। ईश्वर की प्रार्थना, उपासना सहित वायु व जल आदि की शुद्धि का पुस्तक पंचमहायज्ञविधि एवं संस्कारविधि का अग्निहोत्र प्रकरण भी उन्होंने तर्क एवं युक्ति के आधार पर प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द द्वारा प्रचारित व प्रस्तुत वेद सम्बन्धी ज्ञान को हमारे सभी मतों के आचार्यों को स्वीकार करना था परन्तु अविद्या के प्रसार के चार कारणों यथा अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि दोषों के कारण वेद एवं वैदिक साहित्य की सत्य मान्यताओं को अधिकांश मताचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। विज्ञान एवं धर्म-मत-सम्प्रदायों में यही मुख्य भेद है। विज्ञान के विषय में संसार के सभी आचार्य एवं विद्यार्थी विज्ञान के सत्य सिद्धान्तों व नियमों को सहर्ष सोत्साह स्वीकार करते हैं वहीं दूसरी ओर मत-मतानतरों के आचार्य एवं उनके अनुयायी अपनी अविद्यायुक्त बातों का भी त्याग नहीं करते अपितु वह दूसरे मतों के लोगों को लोभ, छल एवं बल के आधार पर अपने मत में सम्मिलित करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। इसी प्रकार देश में अनेक समुदायों ने अपनी-अपनी जनसंख्या में वृद्धि की है और यह क्रम अब भी जारी है। वर्तमान एवं पुरानी सरकारें भी इस प्रक्रिया को रोकने में असफल सिद्ध हुई हैं। मत-मतान्तरों के लोग विधि-विधान को भी तोड़ते मरोड़ते रहते हैं। इन सब कारणों एवं परिस्थितियों में वैदिक सत्य मत संसार में स्थान नहीं पा सका है। मनुष्यों के सत्य मार्ग पर न चलने और असत्य व अविद्यायुक्त मतों व मान्यताओं को मानने व आचरण करने के कारण यदा-कदा अतिवृष्टि, सूखा, भूकम्प, आपदा, बादल फटने जैसी घटनायें भी घटती रहती हैं। आज स्थिति यह है कि कोई व्यक्ति जिस किसी मत में उत्पन्न होता है वह उससे बाहर की सत्य एवं उपयोगी बातों को स्वीकार कर उनका आचरण नहीं कर सकता। उस तक सत्य ज्ञान का प्रकाश पहुंचना ही कठिन व असम्भव प्रायः होता है। विश्व में सभी मत-मतान्तरों का तुलनात्मक अध्ययन करने कराने की व्यवस्था भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अविद्या को दूर करना एक कठिन व असम्भव सा कार्य है तथापि ऋषि दयानन्द व उनके कुछ अनुयायियों ने वेद प्रचार के कार्य को तन-मन-धन से किया था व अब भी कर रहे हैं।

आज का युग भौतिकवाद का युग है। आज हमारे आध्यात्मिक केन्द्रों में वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ने व जानने वाले लोग भी आधुनिक व भौतिकवादी जीवन को जीने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। बातें वह अवश्य वेदों व शास्त्रों की करेंगे परन्तु उनके जीवन में वैदिक सिद्धान्त पूर्ण रूप से क्रियान्वित होते दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसी विषम स्थिति में आर्यसमाज के विद्वानों एवं नेताओं को मिलकर इस विषय में चिन्तन कर वेद प्रचार की कोई ठोस योजना तैयार करनी चाहिये। यदि ऐसा नहीं हुआ तो संसार में अविद्या का विस्तार होता रहेगा जिसका परिणाम संसार के सभी लोगों में ‘दुर्भिक्ष, मरणं व भयं’ आदि का आतंक रहेगा। वैदिक धर्म के सिद्धान्त वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, द्यौ शान्तिः, पृथिवी शान्तिः, आपः शान्तिः सहित जियो और जीने दो पर आधारित हैं। केवल इसी से विश्व के सभी लोगों का कल्याण हो सकता है। यह भी एक तथ्य है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक तथा उसके कई सौ वर्षों बाद तक संसार में एक वैदिक धर्म ही विद्यमान था। इस कारण वर्तमान के सभी मतों के अनुयायियों व आचार्यों के पूर्वज वैदिक धर्मी ही सिद्ध होते हैं। इस तथ्य को भी मानने के लिये अनेक मतों के आचार्य तैयार नहीं होंगे? अतः वैदिक धर्म के प्रचारक संगठन आर्यसमाज को वेद प्रचार के कार्य को तीव्र गति देनी चाहिये। पूर्ण सत्य पर आधारित ईश्वर से प्राप्त वैदिक धर्म को विश्वधर्म बनने में कुछ शताब्दियों का समय लग सकता है। वेदों का पुनर्जन्म एवं कर्मफल सिद्धान्त सहित ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप एवं जीवन के लक्ष्य मोक्ष व उसकी प्राप्ति के उपायों को जानकर संसार के लोग भविष्य में वैदिक धर्म को ही स्वीकार करेंगे और सुखपूर्वक मनुष्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने परजन्म वा अगले जन्म भी सुधारेंगे। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here