ओ३म् “जीवात्मा, ईश्वर और प्रकृति के समान अनादि, नित्य व अविनाशी सत्ता है”

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ओ३म्
“जीवात्मा, ईश्वर और प्रकृति के समान अनादि, नित्य व अविनाशी सत्ता है”
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हम दो पैर वाले प्राणी हैं जो ज्ञान प्राप्ति में सक्षम होने सहित बुद्धि से युक्त मनुष्य कहाते हैं। हमारा शरीर भौतिक शरीर है। हमारा शरीर पंचभूतो अग्नि, वायु, जल, पृथिवी व आकाश से मिलकर बना है। पंचभूतों में से किसी एक व सभी अवयवों में चेतन होने का गुण नहीं है। यह पांच महाभूत सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति की विकृतियां हैं जिनका सृष्टि बनाने के लिये परमात्मा ने उपादान कारण के रूप में उपयोग किया है।

मूल प्रकृति जड़ थी, इसी प्रकार पंचभूतों वाली इस सृष्टि में भी प्रकृति का जड़त्च का गुण आया है। जड़ व भौतिक पदार्थों में ज्ञान ग्रहण करने व उसके अनुसार कार्य करने का गुण नहीं होता। जड़ पदार्थों में सुख व दुःख का अनुभव व व्यवहार भी नहीं होता। पत्थर एक जड़ पदार्थ होता है। इसको तोड़ा जाये, इस पर हथौड़े के प्रहार किये जायें अथवा इसको मशीनों में पीस कर इसका पाउडर बना दिया जाये, तब भी इसको किसी प्रकार की दुःख व पीड़ा नहीं होती जबकि चेतन आत्मा से युक्त हमारे शरीर में एक छोटा सा कांटा भी चुभ जाये अथवा हमारी आंख में बहुत सूक्ष्म तिनका आ जाये तो हमारी आत्मा उसकी पीड़ा से दुःख का अनुभव करती है। मनुष्य या अन्य प्राणी शरीरों में विद्यमान चेतन आत्मा को दुःख व वेदना का ग्रहण व अनुभव होता है। सुख व दुःख के अनुभव का गुण चेतन आत्माओं में ही होता है, इससे इतर किसी जड़ पदार्थ में नहीं होता। इस कारण से चेतन और जड़, यह दो पदार्थ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। आत्मा की उत्पत्ति किसी जड़ पदार्थ व शून्य से नहीं हुई है। आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है जो अनादि, नित्य, शाश्वत, सनातन, अविनाशी व अमर है। जीवात्मा की न कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी इसका अन्त होगा।

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किसी भी वस्तु के दर्शन करने हों तो उसके गुणों को देखकर होते हैं। रसगुल्ले के दर्शन उसके गुणों को जिह्वा पर रखने से उत्पन्न स्वाद से होते हैं। केवल आकृति मात्र से वास्तविक दर्शन नही होते हैं। आकृति से प्रायः भ्रम हो जाता है। रस-गुल्ले वा गुलाब-जामुन की समान आकृति बनाई जा सकती है परन्तु वह गुणों में उससे भिन्न होती व हो सकती है। सिद्धान्त है कि गुणों को जानकर गुणी का ज्ञान होता है। गुणों का यह ज्ञान गुणी का प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है। गुलाब जामुन का भी आकृति व स्वाद दोनों के आधार पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसी प्रकार किसी वस्तु में लक्षण प्रमाणों के आधार उस वस्तु की सिद्धि व ज्ञान होता है। बरसाती व सूखी नदियों में जल प्रवाह को देख कर ज्ञान होता है कि उस स्थान से दूर ऊपरी व ऊंची जगहों पर कहीं भारी वर्षा हुई है। इसी प्रकार किसी दूर स्थान पर धूम्र को देखकर वहां अग्नि का ज्ञान होता है। सभी वस्तुओं के अपने लक्षण होते हैं। उनसे उस वस्तु का अनुमान व ज्ञान होता है। इसी प्रकार जीवात्मा के लक्षणों को जानकर जीवात्मा का भी ज्ञान व प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द सरस्वती ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति को तीन अनादि तथा नित्य सत्तायें मानते व बताते थे। सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में उन्होंने एक प्रश्न उपस्थित किया है। प्रश्न है जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव कैसा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि दोनों चेतनस्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी, और धार्मिकता आदि है। धार्मिकता का अर्थ है कि दोनों धार्मिक हैं अर्थात् धर्म को धारण करने तथा मानने वाले हैं। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य व अक्रोध दिये गये हैं। इन गुणों व लक्षणों को जीवात्मा ने धारण किया हुआ है। ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सब को नियम में रखना, जीवों को पाप पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उन का पालन, शिल्पविद्या आदि अच्छे बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्य-ज्ञान (वेद), आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं।

जीव के गुण वा लक्षण-

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति।। (न्याय सूत्र)
प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तर्विकाराः सुखदुःखे इच्छाद्वेषो प्रयत्नाश्चात्मनो लिंगानि।। (वैशेषिक सूत्र)

न्याय दर्शन और वैशेषिक दर्शन दोनों के उपर्युक्त सूत्रों में (इच्छा) पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल (सुख) आनन्द (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता (ज्ञान) विवेक, पहिचानना ये तुल्य हैं परन्तु वैशेषिक दर्शन में (प्राण) प्राणवायु को बाहर निकालना (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना (निमेष) आंख को मींचना (उन्मेष) आंख को खोलना (जीवन) प्राण का धारण करना (मनः) निश्चय, स्मरण और अहंकार करना, (गति) चलना (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना (अन्तर्विकार) भिन्न-भिन्न क्षुधा, तृषा, हर्ष शोकादियुक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी, क्योंकि वह स्थूल नहीं हैं।

जिस प्रकार हम वस्तु व पदार्थों के गुणों व लक्षणों को देखकर गुणी व वस्तु की सिद्धि करते हैं उसी प्रकार से ईश्वर व जीवात्माओं के गुणों व लक्षणों को देखकर भी उनकी स्वतन्त्र व जड़ पदार्थों से पृथक सत्ता का ज्ञान होता है। ईश्वर व जीवात्मा के कुछ गुण समान हैं व कुछ पृथक वा भिन्न। समान गुणों से एकता व असमान गुणों से पृथकता का बोध होता है। ईश्वर निराकार व सर्वव्यापक है तथा जीवात्मा एकदेशी व ससीम है। इससे दोनों में पृथकता का ज्ञान होता है। इन गुणों के कारण दोनों एक नहीं हो सकते। जीवात्मा चेतन है तथा ईश्वर भी चेतन है। इससे दोनों में समानता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार जो गुण परमात्मा में हैं उससे वह सगुण कहलता है और जो गुण नहीं हैं उससे वह निर्गुण कहलाता है। निराकार होने का अर्थ निर्गुण होना नहीं है। जीवात्मा में भी अनेक गुण नहीं है इसलिये जीवात्मा भी निर्गुण व सगुण दोनों है।

ऋषि दयानन्द ने एक महत्वपूर्ण बात यह भी लिखी है कि जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक आत्मा के गुण देह में प्रकाशित रहते हैं। जब जीवात्मा शरीर छोड़ कर चला जाता है तब आत्मा के इच्छा, द्वेष आदि गुण शरीर में नहीं रहते। जिन गुणों के होने से जो हों और जिनके न होने से न हों, वे गुण उसी सत्ता व गुणी पदार्थ के होते हैं। जैसे दीपक और सूर्य आदि के न होने से प्रकाशादि का न होना और होने से होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान (ज्ञान व प्रत्यक्ष) गुणों द्वारा होता है।

उपर्युक्त पंक्तियों में परमात्मा व जीवात्मा के कुछ गुणों का वर्णन किया गया है। यह गुण किसी जड़ पदार्थ में नहीं हैं। अतः परमात्मा और जीवात्मा का जड़ भौतिक पदार्थों व प्रकृति से स्वतन्त्र व पृथक अस्तित्व है। परमात्मा इस सृष्टि को प्रकृति तत्व से बनाता, पालन करता तथा प्रलय करता है। वह जीवों के कर्मानुसार उन्हें भिन्न-भिन्न प्राणी योनियों में जन्म देकर उनके कर्मों का भोग करता है। वह सब जीवों को उनके कमों का फल प्रदान कर उन सभी को व्यवस्था में रखे हुए हैं। हम ईश्वरोपासना व तपस्या इसलिये करते हैं कि जिससे हम अशुभ व पाप कर्मों को न करें और हमें इन अशुभ कमों का फल न भोगना पड़े। यह भय ही हमें व हमारे समान स्वभाव वाली अन्य जीवात्माओं को पाप से दूर रखता है। इस प्रकार से ईश्वर ने इस संसार में व्यवस्था बनाई है। जो जैसे कर्म करता है उसको वैसे ही फल मिलते जाते हैं। हम अपने जीवन में कर्म-फल सिद्धान्त के अनेक उदाहरणों का प्रतिदिन साक्षात करते रहते हैं। इसी कारण हमारे ऋषि-मुनि भोग मार्ग पर न चलकर योग व अध्यात्म के मार्ग पर चलते थे और दुःख व रोगों से मुक्त रहते थे। लम्बी आयु भोगते थे। देश व समाज का हित करते थे और अपनी आत्मा की उन्नति कर अपवर्ग वा मोक्ष को प्राप्त करते थे।

आत्मा, ईश्वर व जड़ प्राकृतिक पदार्थों से भिन्न एक स्वतन्त्र एवं पृथक सत्ता, तत्व वा पदार्थ है। इसकी सिद्धि इसके गुणों व लक्षणों से होती है। आत्मा अनादि व अपरिणामी तत्व है। अतः हमें अपने वर्तमान मनुष्य जीवन में शुभ कर्मों को करने का परमात्मा से जो अवसर मिला है उसका हमें लाभ उठाना चाहिये। हम कोई अशुभ कर्म न करें। स्वास्थ्य के नियमों का पालन करें। वेदाध्ययन, ईश्वरोपासना व अग्निहोत्र यज्ञ को करते हुए हम अपने जीवनों को मृत्यु से पार ले जाकर अमृत व मोक्ष को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। यदि हम मृत्यु के पश्चात् मोक्ष प्राप्त न कर सकें तो भी हमें वेद निर्दिष्ट पंच महायज्ञ आदि शुभ कर्मों को करके अगला पुनर्जन्म मनुष्य योनि व सुख एवं कल्याप्रद परिवेश में प्राप्त करने का प्रयत्न तो करना ही चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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