-स्वराज कुमार
स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिहाज से बेहद लाभदायक जैविक खेती के मामले में छत्तीसगढ़ भी सिक्किम की तरह देश का रोल मॉडल बन सकता है । इसकी व्यापक तैयारियां शुरू हो गयी हैं। हिमालय की तराई में बसे महज सात हजार वर्ग किलोमीटर के भौगोलिक क्षेत्रफल और सिफऱ् सवा छह लाख की आबादी वाले सिक्किम को भारत के पहले सम्पूर्ण जैविक कृषि राज्य का दर्जा मिल चुका है। उसने यह उपलब्धि करीब साढ़े चार साल पहले जनवरी 2016 में हासिल कर ली थी। वहाँ की 75 हजार हेक्टेयर टिकाऊ कृषि भूमि पर अब शत-प्रतिशत जैविक खेती हो रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन ने भी उसे इस बड़ी कामयाबी के लिए पुरस्कृत किया है। जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों के सहयोग से राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना और राष्ट्रीय बागवानी मिशन का भी संचालन किया जा रहा है। इनमें किसानों के लिए अनुदान आदि की भी व्यवस्था है।
राष्ट्रीय जैविक खेती परियोजना अक्टूबर 2004 से क्रियान्वयन हो रही है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, केरल, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में जैविक खेती के विकास की इस दिशा में काम हो रहे हैं। सिक्किम की सफलता से प्रेरणा लेकर देश के अनेक राज्य पूर्ण जैविक कृषि प्रदेश का दर्जा प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो गए हैं ,लेकिन छत्तीसगढ़ इस रेस में सबसे आगे नजऱ आ रहा है। हालांकि क्षेत्रफल, जनसंख्या और कृषि भूमि के मामले में छत्तीसगढ़ सिक्किम से कई गुना बड़ा है और दोनों राज्यों के प्राकृतिक परिवेश तथा मौसम और जलवायु में भी बहुत फ़र्क है। इसके बावजूद सिक्किम की कामयाबी अन्य राज्यों की तरह कहीं न कहीं छत्तीसगढ़ को भी प्रेरित और प्रोत्साहित कर रही है। पूरी दुनिया इस समय खेतों में रासायनिक खादों और ज़हरीले कीटनाशकों के अत्यधिक इस्तेमाल से मनुष्य और प्राणी जगत के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर हो रहे दुष्प्रभावों से चिंतित है।
वर्तमान में दुनिया में प्रचलित रासायनिक खाद दरअसल कृत्रिम खाद है,जिसे सिंथेटिक खाद भी कहा जाता है जबकि जैविक खाद को प्राकृतिक गुणों से परिपूर्ण माना जाता है। कृषि विशेषज्ञ भी अब यह मानकर चल रहे हैं कि रासायनिक उर्वरकों से देश और दुनिया में खेतों की पैदावार तो बढ़ी, लेकिन ज़मीन की प्राकृतिक उपजाऊ-शक्ति (उर्वरकता) लगातार घटती चली गयी। बड़े -बुजुर्गों की आपसी बातचीत में भी कई बार यह सुनने में आता है कि अब चावल ,दाल ,गेहूँ और हरी साग-सब्जियों में पहले जैसा स्वाद नहीं रहा। छत्तीसगढ़ में ही पहले जिन खेतों में दुबराज जैसे सुगंधित धान की खेती होती थी तो वहाँ उसकी महक बहुत दूर से ही लोगों का मन मोह लेती थी। लेकिन अब उसमें वो बात नहीं रह गयी है। पुराने लोग भी यह कहते सुने जाते हैं कि वर्तमान युग की फसलों , साग -सब्जियों और फलों में न तो पहले जैसी पौष्टिकता है ,न स्वाद और न ही सुगंध ।
ऐसे नाजुक वक़्त में पौष्टिक और नैसर्गिक गुणों से परिपूर्ण फ़सलों के लिए जैविक खेती को एक बेहतर विकल्प माना जा रहा है। कृषि विशेषज्ञों के अनुसार वैज्ञानिक प्रयोगों से यह साबित हो चुका है कि जैविक खेती के लिए जैव उर्वरकों यानी जीवाणु खाद का इस्तेमाल करने पर खेतों की मिट्टी को प्रति हेक्टेयर पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है। इससे पैदावार में 10 से 20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।
यह एक प्रकार की प्रदूषण रहित पारम्परिक खेती है ,जिसमें गोबर आदि से बनाए गए वर्मी कम्पोस्ट जैसे जैविक खाद का इस्तेमाल किया जाता है। वर्मी कम्पोस्ट में केचुओं का भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए इसे केंचुआ खाद भी कहते हैं।इसके अलावा वर्मी वॉश ,नाडेप कम्पोस्ट , गाय के गोबर से तैयार खाद और तरल जैविक खाद का भी प्रचलन है। किसान अगर चाहें तो अपने खेतों में फसल कटाई के बाद पुआल और घास-फूस को न जला कर उन्हें इक_ा करके कम्पोस्ट अथवा वर्मी कम्पोस्ट खाद बना सकते हैं दुनिया भर के बाज़ारों और महानगरों में जैविक अथवा ऑर्गेनिक खेती से मिलने वाली उपजों की मांग उनके प्राकृतिक और स्वास्थ्यवर्धक गुणों की वजह से लगातार बढ़ती जा रही है। अब खेती के प्राकृतिक और परम्परागत तौर- तरीकों के प्रति लोगों का आकर्षण धीरे -धीरे ही सही ,लेकिन बढ़ता जा रहा है।
छत्तीसगढ़ भी जैविक खेती के मामले में पीछे नहीं रहने वाला है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में राज्य सरकार ने जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए योजनाबद्ध ढंग से काम शुरू कर दिया है।
राजधानी रायपुर में 500 मीट्रिक टन दैनिक क्षमता के ठोस अपशिष्ट (कचरा) प्रसंस्करण संयंत्र का निर्माण और लोकार्पण इस दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है। मुख्यमंत्री बघेल ने हाल ही में इसका ई-लोकार्पण किया। इस परियोजना में शहरवासियों के घरों ,होटलों और दुकानों आदि से रोज निकलने वाले ठोस कचरे को इक_ा किया जाएगा और उसका इस्तेमाल संयंत्र में जैविक खाद बनाने के लिए किया जाएगा। इस संयंत्र में कचरे से 6 मेगावाट बिजली उत्पादन की भी तैयारी की जा रही है। नगर निगम का यह संयंत्र 197 करोड़ रुपए की लागत से शहर के नजदीक सकरी में बनवाया गया है। परियोजना सार्वजनिक-निजी सहभागिता अर्थात पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी)के आधार पर संचालित होगी। इसमें कचरे से छह मेगावाट बिजली बनाने का भी प्रावधान है। इस तरह का एक संयंत्र बिलासपुर में भी चल रहा है, लेकिन वह इससे छोटा है। दोनों संयंत्रों में शहरी कचरे को जैविक खाद में बदलकर किसानों को दिया जाएगा।
इसी बीच भूपेश सरकार ने एक बड़े महत्वपूर्ण कदम के रूप में गोधन न्याय योजना शुरू करने की घोषणा की है।
इस योजना के तहत पशुपालकों से पशुधन का गोबर खरीदने का निर्णय लिया है। समाज के सभी वर्गों ने इस योजना का स्वागत और समर्थन किया है। छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान राज्य है। यहाँ की ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में खेती-किसानी के साथ पशु पालन का भी बहुत बड़ा योगदान रहता है। इसे देखते हुए गोधन न्याय योजना पशु धन के संरक्षण और संवर्धन की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। मुख्यमंत्री ने कहा है कि सावन अमावस्या पर मनाए जाने वाले छत्तीसगढ़ के किसानों के प्रमुख पर्व हरेली के दिन इसकी शुरुआत होगी। गोबर की कीमत तय करने के लिए कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद की उप समिति का गठन किया गया था । उप समिति ने सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद राज्य सरकार को दिए गए अपने प्रतिवेदन में डेढ़ रुपए प्रति किलोग्राम की दर से गोबर खरीदने की सिफारिश की है।
गौ पालन के व्यवसाय को लाभदायक बनाना और गोवंश का संरक्षण गोबर का बेहतर प्रबंधन तथा उससे जैविक खाद उत्पादन इस योजना का मुख्य उद्देश्य है। एकत्रित गोबर से वर्मी कम्पोस्ट खाद बनाकर उचित मूल्य पर किसानों को दिया जाएगा। गोबर से कंडे भी बनाए जा सकेंगे। कुछ महिला स्व सहायता समूहों ने तो पिछले साल गोबर के गमले और दीये भी बनाए थे। दीपावली में उन्हें अच्छा प्रतिसाद मिला था। आजकल देखा जाता है कि कई पशु पालक अपने कुछ पशुओं को अनुपयोगी समझकर सड़कों पर खुला छोड़ देते हैं। इससे सड़क हादसों की भी आशंका बनी रहती है और कई बार हादसे हो भी जाते हैं। शहरों और राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे के गांवों में यह एक बड़ी समस्या है। मानसून के आगमन के साथ ही छत्तीसगढ़ में खेती-किसानी का मौसम भी शुरू हो गया है। बोनी अभी प्रारंभिक दौर में है। ऐसे समय में खेतों में अंकुरित पौधों को खुले में घूमते मवेशियों से बचाना भी जरूरी हो जाता है।
लावारिस भटकते इन पशुओं के गोबर से सड़कों पर गंदगी भी फैलती है, क्योंकि उसे उठाने वाला कोई नहीं होता। ऐसे में गोबर खरीदने की सरकारी योजना शुरू होने पर पशुपालकों को जहाँ गोबर का उचित मूल्य मिलेगा, वहीं उन्हें अपने पशुधन की बेहतर ढंग से देखभाल करने की भी प्रेरणा मिलेगी। पशुओं के खुले में घूमने पर भी अंकुश लगेगा और खेतों में खड़ी फसल सुरक्षित रहेगी। अपने नाम के अनुरूप गोधन न्याय योजना से प्रदेश के गोवंश को भी न्याय मिलेगा ।यानी उसे लावारिस छोड़ देने की मानवीय प्रवृत्ति खत्म होगी। मुख्यमंत्री का कहना है कि इस योजना से गाँवों और शहरों की वर्तमान स्थिति आगे चलकर पूरी तरह बदल जाएगी।
वैसे भी भूपेश सरकार ने अपनी इस नयी योजना से पहले प्रदेश की सभी ग्राम पंचायतों के लिए चरणबद्ध ढंग से गौठान निर्माण की भी शुरुआत कर दी है। वर्षों पहले गौठान हमारी ग्रामीण संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। हर गांव का अपना गौठान होता था। धीरे-धीरे सार्वजनिक भूमि पर अतिक्रमण जैसे कई कारणों से गौठान विलुप्त होने लगे। यह भी याद कीजिए कि पहले हर गाँव के हर मुहल्ले में सड़कों के किनारे किसी सार्वजनिक स्थान पर एक खातु-गड्ढा होता था। लोग उसमें मवेशियों का गोबर और अनुपयोगी पैरा तथा घरेलू कचरा डाल देते थे। इन खातु गड्ढों में डाले जाने वाले घूरे (घुरूवा )से भी खेती के लिए काफी मात्रा में जैविक खाद मिल जाता था। लेकिन अब इस प्रकार के खातु-गड्ढे लगभग विलुप्त हो गए हैं। ऐसे में किसानों को जैविक खाद उपलब्ध करवाने में छत्तीसगढ़ सरकार की गोधन न्याय योजना सहित गाँवों में बनवाए जा रहे गौठान भी बहुत मददगार साबित होंगे। बेसहारा घूमते पशुओं को वहाँ आसरा मिलेगा।
राज्य की बागडोर संभालते ही भूपेश सरकार ने सुराजी गाँव योजना की शुरुआत कर दी । इस योजना के तहत नरवा, गरुवा, घुरूवा, बाड़ी-ये ला बचाना हे संगवारी का नारा देकर बरसाती नालों सहित गोधन के संरक्षण तथा घूरे से जैविक खाद उत्पादन और बाड़ी के रूप में उद्यानिकी फसलों की खेती को बढ़ावा देने का काम शुरू कर दिया गया। गौठान निर्माण भी इसी नरवा,गरुवा, घुरूवा, बाड़ी योजना का एक हिस्सा है। (स्वराज कुमार )राज्य में लगभग ग्यारह हजार ग्राम पंचायतें हैं, जबकि उनके आश्रित गाँवों की संख्या 20 हजार के आस-पास है। अब तक बाइस सौ गौठान बन चुके हैं ,जहाँ बेसहारा पशुओं को आश्रय मिला है। चरणबद्ध तरीके से प्रदेश की शत-प्रतिशत ग्राम पंचायतों को इस योजना में कव्हर किया जाएगा। इस साल के आखिऱ तक पांच हजार गौठान बनाने का लक्ष्य है।
जिन गांवों में गौठान बन गए हैं ,उनके आस-पास की सड़कों पर मवेशियों का जमावड़ा भी काफी कम हो गया है। कारण यह है कि इन मवेशियों को गौठानों में पर्याप्त चारा और पानी मिल रहा है। गौठानों के सुचारू संचालन के लिए ग्रामीणों की भागीदारी से समितियों का भी गठन किया जा रहा है।प्रत्येक समिति को सरकार की तरफ से दस हजार रुपए की मासिक सहायता भी दी जा रही है । गौठानों में पशुओं के बेहतर रख-रखाव के लिए राज्य शासन द्वारा एक रोडमैप बनाया गया है।(स्वराज कुमार ) इसके तहत प्रत्येक गौठान में अधिकतम तीन लाख रुपए की लागत से शेड निर्माण के साथ इसी तरह दो लाख रुपए उपकरणों पर खर्च किए जा सकेंगे। इसके लिए राज्य सरकार उन्हें अनुदान भी दे रही है। प्रति गौठान चालीस हजार रुपए के मान से अनुदान की पहली किश्त जारी कर दी गयी है।
गौठानों में एकत्रित होने वाले गोबर से जैविक खाद और बायोगैस बनाने की भी योजना है। इतना ही नहीं ,बल्कि हर गौठान के आस -पास मुर्गी पालन सहित अन्य रोजगारमूलक कार्य भी होंगे। उद्देश्य यह है कि गौठानों को ग्रामीणों के लिए आजीविका केन्द्र के रूप में विकसित किया जाए।कुछ गौठानों में महिला-स्वसहायता समूहों ने जैविक खाद (वर्मी कम्पोस्ट)बनाना भी प्रारंभ कर दिया है। लगभग साल भर पहले शुरू की गई गौठान परियोजना और बीते सप्ताह घोषित गोधन न्याय योजना से छत्तीसगढ़ जैविक खेती के मामले में भी देश की अग्रिम पंक्ति के राज्यों में शामिल हो सकता है। वह अपनी गौठान योजना और गोधन न्याय योजना के जरिए किसानों को जैविक अथवा गोबर खाद उपलब्ध करवाकर उन्हें जैविक कृषि के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।जैविक खेती के विकास और विस्तार के लिए राज्य सरकार के कृषि और उद्यानिकी विभाग द्वारा प्रयास किए जा रहे हैं।
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर के अंतर्गत विभिन्न जिलों में संचालित कृषि विज्ञान केन्द्रों में भी इसके लिए काम चल रहा है। सरकार के प्रोत्साहन मूलक प्रयासों का ही नतीजा है कि धमतरी जिले का ग्राम पोटियाडीह भी जैविक (ऑर्गेनिक) खेती से सब्जी उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हो गया है। इस गाँव में महिलाओं के तीन स्वसहायता समूहों द्वारा कोरोना संकट और लॉक डाऊन के बीच 34 क्विंटल हरी साग-सब्जियां बेचकर एक लाख रुपए अतिरिक्त आमदनी हासिल की गयी है। लगभग 5 क्विंटल लौकी, 4 क्विंटल कुम्हड़ा ,चार क्विंटल चेंच भाजी सहित बड़ी मात्रा में अन्य हरी साग-सब्जियों की पैदावार इन समूहों के द्वारा ली गयी है। उन्हें मनरेगा और अन्य सरकारी योजनाओं से जोड़ा गया है। वर्ष 2019-20 में ग्राम पंचायत पोटियाडीह में मनरेगा के तहत दी गयी तीन एकड़ शासकीय भूमि पर इन महिला स्वसहायता समूहों द्वारा आम, कटहल, मुनगा, आंवला, नींबू, केला, जामुन, सीताफल, बेर आदि फलदार पौधे भी लगाए गए हैं। इस भूमि पर अंतरवर्ती फसलों के रूप में उनके द्वारा जैविक पद्धति से सब्जियों की भी खेती की जा रही है।
राज्य में जैविक खेती के लिए बन रहे सकारात्मक वातावरण से उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में छत्तीसगढ़ को इसमें शानदार कामयाबी जरूर मिलेगी और यहाँ के जैविक कृषि उपजों को राज्य के साथ-साथ देश-विदेश में अच्छा बाज़ार मिलेगा, जिससे किसानों की जि़न्दगी में ख़ूब समृध्दि और खुशहाली आएगी।