paavan sapt sarita mein sarasvatee: sarasvatee ko hee adhik mahimaamayee evan mahatvashaalinee maana gayaवेद पुराणों में गंगा और सिंधु से ज्यादा महत्त्व सरस्वती नदी को दिया गया है। इसका उद्गम बाला जिला के सीमावर्ती क्षेत्र सिरपुर की शिवालिक पहाड़ियों में माना जाता है। वहां से बहती हुई यह जलधारा पटियाला में ‘ विनशन ‘ नामक स्थान में बालू में लुप्त हो जाती है। ‘ सरस ‘ यानी जिसमें जल हो तथा ‘ वती ‘ यानी ‘ वाली ‘ अर्थात् ‘ जलवाली ‘, इस अर्थ में इसका नामकरण हुआ है। इसका अंत अप्रकट होने के कारण इसे अंत : सलिला की संज्ञा दी गई है। मैदानी क्षेत्र में इसका प्रवेश आद्यबदरी के पास होता है। भवानीपुर और बलछापर से गुजरती हुई यह बालू में लुप्त हो जाती है, फिर थोड़ी दूर पर करनाल से बहती है। घाघरा नदी जिसका उद्गम भी इसी क्षेत्र से है, 175 किलोमीटर की दूरी पर जाकर रसूला के निकट इससे मिल जाती है। यह बीकानेर के पहले हनुमानगढ़ के पास बालुकामय राशि में लुप्त हो जाती है। अब भी बीकानेर से करीब दस किलोमीटर दूर रेतीले इलाके को सरस्वती कहकर पुकारते हैं।
वेद और पुराणों में सरस्वती का वर्णन नदी के रूप में नहीं, बल्कि वाणी तथा विद्या की देवी के रूप में हुआ है। ‘ स्कंदपुराण ‘ तथा ‘ महाभारत ‘ में इसका विवरण बड़ी श्रद्धा – भक्ति से किया गया है। इनके अनुसार सरस्वती नदी हिमालय से निकलकर कुरुक्षेत्र, विराट, पुष्कर, सिद्धपुर, प्रभास आदि इलाकों से होती हुई गुजरात के कच्छ के रास्ते से सागर में मिलती थी। प्रयाग में गंगा और यमुना से सरस्वती का संगम हुआ।
सरस्वती का पौराणिक इतिहास
सरस्वती का पहला जिक्र ऋग्वेद में मिलता है. ऋग्वेद के नदी सूक्त के एक मंत्र (10.75) में सरस्वती नदी को ‘यमुना के पूर्व’ और ‘सतलुज के पश्चिम’ में बहती हुई बताया गया है। इसमें लिखा है……
‘इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया’
इसके अलावा ऋग्वेद के अन्य छंदों 6.61, 8.81, 7.96 और 10.17 में भी सरस्वती नदी की महानता का जिक्र किया गया है। इन छंदों में सरस्वती नदी को ‘दूध और घी’ से भरा हुआ बताया गया है।
महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती जैसे कई नाम मिलते हैं। बताया जाता है कि बलराम ने द्वारका से मथुरा तक की यात्रा सरस्वती नदी से की थी और लड़ाई के बाद यादवों के पार्थिव अवशेषों को इसमें बहाया गया था। वाल्मीकि रामायण में भरत के कैकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है। जिसमें लिखा गया है,
‘सरस्वतीं च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्’
वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे ‘परम पवित्र’ नदी माना जाता था. वहीं कहा जाता है कि सरस्वती नदी का जल पीने के बाद ही ऋषियों ने पुराण, शास्त्र और ग्रंथों की रचना की थी। गुजरात का सिद्धपुर सरस्वती नदी के तट पर बसा हुआ माना जाता है। इसके पास में बिंदुसर नाम का तालाब है, जिसे महाभारतकाल में ‘विनशन’ कहा जाता था। माना जाता है कि महाभारत काल में ही सरस्वती लुप्त हो गई थी।
लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि
लुप्त सरस्वती कभी पँजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी था। स्पेस एप्लीकेशनसेंटर और फिजिकल लेबोरेट्री द्वारा प्रस्तुत लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि होती है।
विद्वानों का विचार
विद्वानों का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में सिन्धु और सरस्वती दो नदियाँ थीं। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर दोनों नदियों का साथ-साथ वर्णन तो उल्लेख है ही विशालता में भी दोनों एक सी कही गईं हैं। फिर भी सिन्धु के अपेक्षतया सरस्वती को ही अधिक महिमामयी एवं महत्वशालिनी माना गया है।ऋग्वेद के अनुसार सरस्वती की अवस्थिति यमुना और शतुद्रि (सतलज) के मध्य (यमुने सरस्वति शतुद्रि) थी। ऋग्वेद में सरस्वती के लिये प्रयुक्त विशेषण सप्तनदीरूपिणी, सप्तभगिनीसेविता, सप्तस्वसा, सप्तधातु आदि हैं।सरस्वती से सम्बद्ध ऋग्वेद में उल्लिखित स्थान अथवा व्यक्ति सभी भारतीय हैं। ऋग्वेद 7/95/2 में सरस्वति का पर्वत से उद्भूत हो समुद्रपर्यन्त प्रवाहित होने का उल्लेख मिलता है।भूमि सर्वेक्षण के कई प्रतिवेदनों अर्थात रिपोर्टों से प्रमाणित होता है कि लुप्त सरस्वती कभी पँजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान से प्रवाहित होने वाली विशाल नदी था। स्पेस एप्लीकेशनसेंटर और फिजिकल लेबोरेट्री द्वारा प्रस्तुत लैंड सैटेलाईट इमेजरी एरियल फोटोग्राफ्स से भी सरस्वती की ऋग्वैदिक स्थिति की पुष्टि होती है।
ऋग्वेद में सरस्वती के उल्लेखों वाले मन्त्रों को दृष्टिगोचर करने से इस सत्य का सत्यापन होता है कि ऋग्वैदिक सभ्यता का उद्भव एवं विकास सरस्वती के काँठे में ही हुआ था,वह सारस्वत प्रदेश की सभ्यता थी। बाद में यह सभ्यता क्षेत्र विस्तार के क्रम में मुख्यतः पश्चिमाभिमुख होकर एवं कुछ दूर तक पूर्व की ओर बढती है। सभ्यता का केन्द्र सरस्वती तट से सिन्धु एवं उसके सहायिकाओं के तट पर पहुँचता है और इस सिलसिले में इसकी व्यापारिक गतिविधियों का व्यापक विस्तार होता है। कहा जाता है कि सारस्वत प्रदेश के अग्रजन्माओं की आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति का श्रेय सरस्वती नदी को ही था। पशुपालक व कृषिजीवी जहाँ सरस्वती के तटीय वनों और उपजाऊ भूमि से आधिभौतिक उन्नति कर रहे थे,वहीँ ऋषि-मुनिगण इसके तट पर सामगायन कर याजिकीय अनुष्ठानों द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष कर रहे थे।
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