पावन सप्त सरिता में सिंधु: वेदो में भी उल्लेख, बहुत महिमा है

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सरिता में सिंधु:

paavan sapt sarita mein sindhu: vedo mein bhee ullekh, bahut mahima haiसंसार की प्रमुख नदियों में से एक ‘ सिंधु ‘ का उद्गम तिब्बत में मानसरोवर के पास समुद्र तल से 5180 मीटर की ऊंचाई पर बहते सिंगी खंबात झरनों से हुआ है। वैदिक संस्कृति में सिंधु नदी तथा मानसरोवर का उल्लेख अत्यंत श्रद्धा के साथ किया जाता रहा है। तिब्बत, भारत और पाकिस्तान से होकर बहने वाली इस नदी में कई अन्य नदियां आकर मिलती हैं, जिनमें काबुल, स्वात, झेलम, चिनाब, रावी और सतलुज मुख्य हैं।

सिंधु हिमालय की दुर्गम कंदराओं से गुजरती हुई, कश्मीर और गिलगिट से होती यह पाकिस्तान में प्रवेश करती है और मैदानी इलाकों में बहती हुई 1610 किलोमीटर का रास्ता तय करती हुई कराची के दक्षिण में अरब सागर से मिलती है। इसकी पूरी लंबाई 2880 किलोमीटर है। इस नदी ने पूर्व में अपना रास्ता कई बार बदला है। सन् 1245 ई . तक यह मुलतान के पश्चिमी इलाके में बहती थी। मुलतान में चिनाब के किनारे पर श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की याद में एक सूर्य मंदिर बना है। इसका वर्णन महाभारत में भी है। इस मंदिर का स्वरूप कोणार्क के सूर्यमंदिर से मिलता – जुलता है। सिंधु भारत से बहती हुई पाकिस्तान में 120 किलोमीटर लंबी सीमा बनाती हुई सुलेमान के निकट पाक – सीमा में प्रवेश करती है। भारत में भी इसके पानी से काफी सिंचाई होती है।

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सिंधु नदी की सहायक नदियां

लद्दाख में सिंधु नदी की बायीं ओर की सहायक नदी जंस्कार नदी है और मैदानी इलाकों में इसकी बाएं किनारे की सहायक नदी पंजनाद नदी है, जिसकी पांच प्रमुख सहायक नदियां हैं जिसमें चिनाब, झेलम, रावी, ब्यास और सतलुज नदियां मुख्य रूप से शामिल हैं। सिंधु नदी एशिया की सबसे लंबी नदियों में से एक है। सिंधु की पांच उपनदियां हैं। इनके नाम हैं: वितस्ता, चन्द्रभागा, ईरावती, विपासा एंव शतद्रु. इनमें शतद्रु सबसे बड़ी उपनदी है। सतलुज/शतद्रु नदी पर बने भाखड़ा-नंगल बांध से सिंचाई में काफी मदद मिली है जिससे भारत के पंजाब और हिमाचल का चेहरा ही बदल गया है।

सिंधु नदी का उद्गम स्थान

सिंधु एशिया की एक सीमा पार नदी और दक्षिण और मध्य एशिया की एक ट्रांस-हिमालयी नदी है। इस नदी का उद्गम स्थान पश्चिमी तिब्बत से होता है और ये कश्मीर के लद्दाख और गिलगित-बाल्टिस्तान क्षेत्रों के माध्यम से उत्तर-पश्चिम में बहती है। अपने उद्गम से निकलकर तिब्बती पठार की चौड़ी घाटी में से होकर, कश्मीर की सीमा को पार कर, दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तान के रेगिस्तान और सिंचित भूभाग में बहती हुई, करांची के दक्षिण में अरब सागर में गिरती है। इसकी लंबाई लगभग 2 हजार मील है। यह नदी नंगा पर्वत मासिफ के बाद बाईं ओर तेजी से झुकती है और पाकिस्तान के माध्यम से दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में बहती है अपने प्रवाह को कम करने से पहले ये नदी करांची के बंदरगाह शहर के पास अरब सागर में गिरती है। नदी का कुल जल निकासी क्षेत्र 1,165,000 किमी (450,000 वर्ग मील) से अधिक है। इसका अनुमानित वार्षिक प्रवाह लगभग 243 किमी है, जो इसे औसत वार्षिक प्रवाह के मामले में दुनिया की 50 सबसे बड़ी नदियों में से एक बनाता है।

वेद में उल्लेख

वेदों में इन्द्र की स्तुति में गाए गए मंत्रों की संख्या सबसे अधिक है । इन्द्र के बाद अग्नि , सोम , सूर्य , चंद्र , अश्विन , वायु , वरुण , उषा , पूषा आदि के नाम आते हैं । अधिकांश मंत्रों में इन्द्र एक पराक्रमी योद्धा की भांति प्रकट होते हैं और सोमपान में उनकी अधिक रुचि है । ” बादलों के कई प्रकार हैं उनमें से एक बादल का नाम भी इन्द्र है । कुछ प्रसंगों में इन्द्र को मेघों के देवता के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यह भी माना जाता है कि उनके पास एक ऐसा अस्त्र था जिसके प्रयोग के बल पर वे मेघों और बिजलियों को कहीं भी गिराने की क्षमता रखते थे । माना जाता है कि इन्द्र ने अपने काल में कई नदियों की रचना की थीं और उन्होंने सिंधु नदी की दिशा भी बदली थी ।

।।सोदञ्चं सिन्धुमरिणात् महित्वा वज्रेणान उषसः संपिपेव ।

अजवसो जविनीभिः विवृश्चन् सोमस्य ता मद इन्द्रश्चकार॥- ( ऋग्वेद द्वितीय मण्डल 15 वां सूक्त )

अर्थात् : इन्द्र ने अपनी महत्ता से सिन्धु नदी को उत्तर की ओर बहा दिया तथा उषा के रथ को अपनी प्रबल तीव्र सेना से निर्बल कर दिया । इन्द्र यह तब करते हैं , जब वह सोम मद से मत्त हो जाते हैं । उल्लेखनीय है कि सिन्धु नदी अपने उद्गम स्थान मानसरोवर से काश्मीर तक उत्तर मुंह होकर बहती है । काश्मीर के बाद दक्षिण – पश्चिम मुखी होकर बहती है । सम्भवतः इन्द्र ने पहाड़ी दुर्गम मार्ग को काटकर , सिन्धु नदी के संकीर्ण मार्ग को विस्तीर्ण कर उत्तर की ओर नदी की धारा स्वच्छन्द कर दी हो । इससे आर्यों का मार्ग बहुत सुगम हो गया होगा । इस तथ्य को निम्नलिखित ऋचा से भी समझे

।।इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री ।

अहन् अहि मन्वपस्ततर्द प्रवक्षणा अभिनत् पर्व्वतानाम् ।। ( ऋ.मं. 1/32/1 )

अर्थात् : इन्द्र के उन पुरुषार्थपूर्ण कार्यों का वर्णन करूंगा जिनको उन्होंने पहले – पहल किया । उन्होंने अहि यानी मेघ को मारा ; ( अपः ) जल को नीचे लाए और पर्वतों को जलमार्ग बनाने के निमित्त काटा ( अभिनत् ) । इसके बाद ही इसी सूक्त की आठवीं ऋचा इस प्रकार है

।।नदं न भिन्नममुया शयानं मनो रुहाणा अतियन्ति आपः ।

याः चित् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् त्रासामहिः यत्सुतः शीर्बभूव ॥ ( ऋग्वेद 1/32/8 )

अर्थात् : ठीक जिस प्रकार नदी ढहे हुए कगारों पर उमड़कर बहती है , उसी प्रकार प्रसन्न जल पड़े हुए वृत्र ( बादल ) पर बह रहा है । जिस वृत्रा ने अपनी शक्ति से जल को जीते – जी रोक रखा था , वही ( आज ) उनके पैरों तले पड़ा हुआ है ।

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