पिनाक भगवान शिव का दूसरा नाम है । भगवान शिव का पिनाकी अवतार उनकी शक्ति, पराक्रम और विनाशकारी शक्ति का प्रतीक है। यह अवतार हमें सिखाता है कि बुराई का नाश करने के लिए शक्ति का प्रयोग करना आवश्यक है। भगवान शिव के 11 रुद्रावतारों में से एक पिनाकी अवतार है। पिनाक शब्द का अर्थ है “धनुष” और इस अवतार में भगवान शिव को धनुष धारण किए हुए दिखाया जाता है। पिनाकी अवतार भगवान शिव की शक्ति और पराक्रम का प्रतीक है। इस अवतार में भगवान शिव ने देवताओं को दैत्यों से बचाया था। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि शिव के कुछ प्रचलित नाम, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय [मृत्यु पर विजयी], त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर, नीलकण्ठ, महाशिव, उमापति [पार्वती के पति], काल भैरव, भूतनाथ, त्रिलोचन [तीन नयन वाले], शशिभूषण आदि हैं।
क्षमारथसमारूढं ब्रह्मसूत्रसमन्वितम् ।
चतुर्वेदैश्च सहितं पिनाकिनमहं भजे ॥ ( शैवागम ) ‘
क्षमारूपी रथ पर आरूढ़, ब्रह्मसूत्र से समन्वित, चारों वेदों को धारण करने वाले भगवान् पिनाकी को मैं भजता हूँ। ‘ शैवागम में दूसरे रुद्र का नाम पिनाकी है। श्री ब्रह्माजी नारद से कहते हैं कि ‘ जब हमने एवं भगवान् विष्णु ने शब्दमय शरीरधारी भगवान् रुद्र को प्रणाम किया, तब हम लोगों को ॐकारजनित मन्त्र का साक्षात्कार हुआ। तत्पश्चात् ‘ ॐ तत्त्वमसि ‘ यह महावाक्य दृष्टिगोचर हुआ। फिर सम्पूर्ण धर्म और अर्थक साधक गायत्री मन्त्र का दर्शन हुआ। उसके बाद मुझ ब्रह्मा के भी अधिपति करुणानिधि भगवान् पिनाकी सहसा प्रकट हुए। चारों वेद पिनाकी रुद्र के ही स्वरूप हैं । भगवान् पिनाकी रुद्र को देखकर भगवान् विष्णु ने पुनः उनकी प्रिय वचनों द्वारा स्तुति की। भगवान् पिनाकी ने प्रसन्न होकर सर्वप्रथम भगवान् विष्णु को श्वास रूप से वेदों का उपदेश किया। उसके बाद उन्होंने श्रीहरि को अपना गुह्यज्ञान प्रदान किया। फिर उन परमात्मा पिनाकी ने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान प्राप्त करके और कृतार्थ होकर हम दोनों ने पिनाकी रुद्रको पुनः नमस्कार किया। ‘
भगवान् पिनाकी रुद्र ने नारायण – देव से कहा – ‘ मै तुम दोनों की भक्ति से परम प्रसन्न हूँ और तुम्हें मनोवाञ्छित वर देता हूँ । विष्णो ! सृष्टि, रक्षा और प्रलयरूप गुणों अथवा कार्यों के भेद से मैं ही ब्रह्मा , विष्णु और | रुद्र नाम धारण करके तीन स्वरूपों में विभक्त हुआ हूँ। वास्तव में में सदा निष्कल हूँ। त्रिदेवों में कोई भेद नहीं है। भेद मानने वाले अवश्य ही बन्धन में पड़ते हैं। मैं ही सत्य, ज्ञान और अनन्त ब्रह्म हूँ। ऐसा जानकर सदा मेरे यथार्थ स्वरूप का चिन्तन करना चाहिये। ‘ इस प्रकार अपने दूसरे स्वरूप पिनाकी रुद्र के रूप में विष्णु और ब्रह्मा को भगवान् रुद्र ने वेदों का उपदेश किया और अन्तर्धान हो गये।
आधिभौतिक रुद्र के रूप में दूसरे रुद्र पिनाकी की जलमूर्ति दक्षिण भारत के मद्रास प्रान्त के त्रिचिनापल्ली में श्रीरंगम्से एक मील की दूरी पर स्थित है । इसे जलतत्त्वलिङ्ग अथवा जम्बुकेश्वर लिङ्ग के नाम से जाना जाता है। लिङ्गमूर्ति के नीचे से बराबर जल ऊपर आता रहता है। इस मन्दिर के पीछे एक चबूतरे पर जामुन का एक प्राचीन वृक्ष है, इसी वृक्ष के कारण इस शिवलिङ्ग का नाम जम्बुकेश्वर पड़ा । यहाँ पहले जामुन के अनेक वृक्ष थे। एक ऋषि यहाँ भगवान् शिव की आराधना करते थे। जम्बूवन में तपस्या तथा निवास के कारण वे जम्बू ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हो गये थे। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें दर्शन दिया और उनकी प्रार्थना पर यहाँ दूसरे रुद्र की जलमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हो गये । कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने भी इन्हीं दूसरे पिनाकी रुद्रकी जलमूर्ति की आराधना करके ज्ञान प्राप्त किया था । ऐसी कथा है कि जब जामुन के पत्ते शिवलिङ्ग पर गिरा करते थे , तब उसे बचाने के लिये एक मकड़ी शिवलिङ्ग के ऊपर प्रतिदिन जाला बना देती करता था। भगवान्की मूर्ति पर मकड़ी का जाला देखकर हाथी को बुरा लगता था। और इधर बार – बार पानी डालकर जाला बहा देन से मकड़ी को भी बुरा लगता था। हाथी ने एक दिन मकड़ी को मार डालने के लिये सूंड बढ़ाया तो मकड़ी हाथी के सँड में चली गयी। फलतः दोनों मर गये। दोनों के भाव शुद्ध होने से भगवान् शंकर ने उन्हें मुक्ति प्रदान की।
शिवजीका शुचिष्मती के गर्भ से गृहपति रूप में अवतार
पूर्वकाल में नर्मदा नदी के रमणीय तट पर नर्मपुर नाम का एक नगर था। वहाँ विश्वानर नाम के एक मुनि निवास करते थे। वे परम पुण्यात्मा , शिवभक्त तथा जितेन्द्रिय थे। उनका गृहस्थ – जीवन परम सुखमय था। बहुत समय तक गृहस्थी का सुख भोगने के बाद एक दिन उनकी पतिव्रता भार्या शुचिष्मती ने उनसे कहा – ‘ स्वामी ! स्त्रियों के लिये आनन्द प्रद जितने भी भोग हैं, उन सबको मैंने आपकी कृपा से आपके साथ रहकर भोग लिया। मेरे मन में चिरकाल से एक अभिलाषा है। मैं आपसे भगवान् महेश्वर – सरीखा एक परम तेजस्वी पुत्र चाहती हूँ। कृपा करके आप मेरी इस इच्छा को पूर्ण करें। पत्नी की बात सुनकर क्षणभर के लिये विश्वानर समाधिस्थ हो गये। वे अपने हृदय में विचार करने लगे – ‘ अहो ! मेरी इस पत्नी ने कैसा दुर्लभ वर मांगा है। ऐसा लगता है कि पिनाकी भगवान् रुद्र ने ही इसके मुख में बैठकर वाणी रूप से यह बात कही है। वे सब कुछ करने में समर्थ हैं। ‘ ऐसा विचार कर विश्वानर अपनी पत्नी को आश्वासन देने के बाद वाराणसी गये और कठिन तपस्या के द्वारा भगवान् शंकर के वीरेशलिङ्ग की आराधना करने लगे। तेरहवें मास में वह ज्यों ही गंगा – स्नान करके वीरेश – शिवलिङ्ग के सन्निकट पहुंचे, त्यों ही उन्हें शिवलिङ्ग के मध्य में एक अष्टवर्षीय बालक दिखायी दिया। उसके मस्तक पर पीले रंग की जटा सुशोभित थी तथा मुख पर मुस्कान खेल रही थी। भस्म से विभूषित वह अलौकिक बालक श्रुति सूक्तों का पाठ कर रहा था। उसे देखकर विश्वानर मुनि कृतार्थ हो गये और उनके शरीर में रोमाञ्च हो गया। उन्होंने अभिलाषा पूर्ण करने वाले आठ पद्योंद्वारा भगवान् शिव की स्तुति की। बाल रूप भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर उनसे कहा – ‘ महामते ! अब निश्चिन्त होकर अपने घर जाओ। मैं समय आने पर तुम्हारी पत्नी की इच्छा पूर्ण करने के लिये तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट होऊँगा। मेरा नाम गृहपति होगा। मैं परम पावन तथा समस्त देवताओं का प्रिय होऊँगा। ‘ विश्वानर प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शिव को प्रणाम करके अपने घर लौट आये। समय आने पर समस्त अरिष्टों के विनाशक तथा तीनों लोकों के लिये सुखदायक भगवान् रुद्र का शुचिष्मती के गर्भ से अवतार हुआ। ब्रह्माजी ने स्वयं विश्वानर के घर जाकर उस दिव्य बालक का जातकर्म – संस्कार किया और उसका नाम गृहपति रखा। विश्वानर ने यथा समय बालक के सब संस्कार करते हुए उसे विधिपूर्वक वेदाध्ययन कराया। नवाँ वर्ष आने पर गृहपति को देखने के लिये देवर्षि नारद पधारे। स्वागतोपरान्त उन्होंने कहा – ‘ मुनि विश्वानर ! तुम्हारा यह पुत्र परम भाग्यवान् है, किन्तु मुझे आशङ्का है कि इसके बारहवें वर्ष में इस पर बिजली अथवा अग्नि का भय आयेगा।
अपने पिता को चिन्तित देखकर गृहपति ने उनकी आज्ञा से शिव आराधना के लिये काशी जाने का निश्चय किया। वे काशी पहुँचने के बाद नित्य गंगाजल से पूर्ण एक सौ आठ कलशों द्वारा भगवान् शंकर का अभिषेक तथा शिवमन्त्र का जप करने लगे। जन्म से बारहवाँ वर्ष आने पर इन्द्र प्रकट होकर बोले – ‘ विप्रवर ! अपनी इच्छानुसार वर माँगो। ‘ गृहपति ने कहा कि आप अहल्या का सतीत्व नष्ट करने वाले पर्वत शत्रु इन्द्र ही तो हैं, आप जाइये; मैं पशुपति के अतिरिक्त किसी अन्य देव से वर नहीं चाहता। ‘ | इस पर क्रोधित होकर इन्द्र अपने वज्र से उन्हें डराने लगे, जिससे गृहपति मूछित हो गये। फिर भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा – ‘ वत्स ! मेरे भक्त पर इन्द्र की कौन कहे, यम भी दृष्टि नहीं डाल सकते। आज से मैं तुम्हें अग्निपद प्रदान करता हूँ। तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिङ्ग काशी में अग्नीश्वर नाम से प्रसिद्ध होगा। ‘
भगवन शिव का शम्भु स्वरुप : लीला विस्तार को उत्पन्न किये विष्णु- ब्रह्मा
श्रीत्रयम्बकेश्वर महादेव की अराधना से मिलता है सहजता से सभी पुण्य कर्मों का फल
भगवान शंकर का पिनाकी अवतार 11 रुद्रा अवतारों में से एक है