प्रयागराज की माँ कल्याणी ललिता देवी शक्तिपीठ की महिमा, मिलाता है अतुल्य पुण्य

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1987

लिता देवी की महिमा का गान पुराणों में किया गया है। इनके दर्शन मात्र से जीव को अतुल्य पुण्य की प्राप्ति होती है। भगवती का यह स्वरूप अनुपम है और जीव का कल्याण करने वाला है। प्रयागराज शक्तिपीठ का बहुत महात्म्य है। पुराणों में इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ‘प्रयागमाहात्म्य’ के मुताबिक ललिता और कल्याणी एक ही हैं। ललिता कल्याणीदेवी के रूप में ही प्रतिष्ठित हुई हैं। पुराणों के मुताबिक प्रयाग में भगवती ललिता का स्थान अक्षयवट के पवित्र प्राङ्गण से वायव्यकोण में अर्थात उत्तर-पश्चिम के कोने में यमुनातट के पास बताया गया है। यहां ललितादेवी के साथ भव-भैरव विराजमान हैं। मत्स्यपुराण के तेरहवें अध्याय में 108 पीठों का वर्णन है। जिसमें कल्याणी ललिता का नाम आयो है- ‘प्रयागे ललिता देवी कामाक्षी गन्धमादने।’ महर्षि भरद्वाज की ये ही अधिष्ठïात्री हैं।

माता कल्याणी का प्रतिमा मण्डल
अपने अञ्जल में सिद्घपीठ की शक्ति को अनुस्यूत किये भगवती कल्याणी का प्रतिमा-मंडल दिव्य आभा और आकर्षण का केन्द्र है। प्रतिमा-मंडल के मध्यभाग में माँ कल्याणी (भगवती ललिताजी) चतुर्भुजरूप में सिंह पर आसीम है। मूर्ति के शीर्षभाग में एक आभाचक्र है, मस्तक पर योनि, लिङ्गï एवं फणीन्द्र शोभायमान हैं। मध्य मूर्ति के वामपाश्र्व में दस महाविद्याओं में से एक भगवती छिन्नमस्ता की अनुपम प्रतिमा विराजमान है। दक्षिणभाग में देवाधिदेव महादेव और माता पार्वती की मनोरम प्रतिमा है। मुख्य प्रतिमा के ऊपर दायें भाग में विघ्रविनाशक गजानन की सुंदर प्रतिमा है। मध्यमूर्ति के ऊपर बायीं और अतुलित बालधाम रुद्रावतार पवनसुत श्रीहनुमानजी की मूर्ति सुशोभित है। इसी मध्यमूर्ति के ऊपर की ओर भगवान श्रीदत्तात्रेयजी की आकर्षक प्रतिमा है। माता कल्याणाीजी की मनोरम प्रतिमा के निम्र भाग में भगवती की सेविकाओं के रूप में दो-दो योगिनियां हैं। इस प्रकार आद्याशक्ति कल्याणकारिणी भगवती के साथ नयनभिराम देवमण्डल विद्यमान हैं।

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आरती का समय-
मंदिर में नित्यप्रति प्रात: 5.30 बजे व शाम 7.30 बजे भव्य आरती होती है। सोमवार तथा शुक्रवार को विशेष अर्चना की जाती है। नित्यप्रति प्रात: और सांयकाल ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ का पाठ होता है।
चैत्र नवरात्र तथा अश्विन नवरात्र में विशेष पूजन-अर्चन, शतचण्डीपाठ, यज्ञ, हवन तथा  आषाढ़ कृष्ण अष्टïमी, होली के बाद की चैत्र कृष्ण अष्टïमी, शरत्पूर्णिमा के पूर्व की चतुर्दशी (ढ़ेढिय़ां) के अवसर पर भी विशेष श्रृंगार होता है। चैत्र कृष्ण अष्टमी को अति प्राचीन त्रिदिवसीय मेला लगता है। यह मेला सप्तमी से प्रारम्भ होकर नवमी तक चलताहै।

माँ की महिमा जानिए-

या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेश्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां ह्दयेषु बुद्घि:।
श्रद्घा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम॥
(श्रीदुर्गासप्तशती 4-5)
अर्थात जो पुण्यत्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहां दरिद्रतारूप से, शुद्घ अन्त: करण वाले पुरुषों के ह्दय में बुद्घि रूप से, सत्यपुरुषों में श्रद्घारूप से तथा कुलीन मनुष्यों में लज्जारूप में निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमन करते हैं। देवि! सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।
भगवती की गौरवमयी विशिष्ट आध्यात्मिक परम्परा में ‘शक्ति-उपासना’ का विशिष्टï स्थान रहा है। शक्ति-उपासना की विशेष महत्ता के कारण ही उत्तर से दक्षिण तक तथा पूर्व से पश्चिम तक सारे भारत में शक्ति के अनेकानेक उपासना और अर्चना-स्थल स्थापित हैं। इन उपासना स्थलों में शक्ति के 51 महापीठों का अपना विशेष महत्व है। तीर्थराज प्रयाग में सती के हाथ की अङ्गली गिरी थी। अत: यह स्थान भी 51 शक्तिपीठों से एक है। यही कारण है कि प्रयोगराज को तीर्थराज के साथ ही ‘पीठराज’ भी कहा जाता है। प्रयाग में भगवती ललिता कल्याणी देवी के रूप में विश्रुत हुईं।

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