1977 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी पूरे देश में चुनाव हारने के साथ ही पंजाब में भी चुनाव हार गई थी। इस समय भी कांग्रेस की स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसी कि 1977 में थी, अंतर केवल इतना है कि उस समय नेतृत्व स्व. इंदिरा गांधी के पास था और आज नेतृत्व श्रीमती सोनिया गांधी के पास है। इंदिरा गांधी किसी दूसरे की सरकार को बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं। इसलिए उन्होंने पंजाब में प्रकाश सिह बादल की सरकार को अस्थिर करने के लिए भिंडरावाले को खड़ा किया था।
इंदिरा गांधी ने ही जनरैल सिंह भिंडरावाले को एक संत से आतंकवादी बनाया था। यह खुलासा प्रसिद्ध लेखक स्वर्गीय कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा ‘बियॉन्ड द लाइन’ में किया था। उनकी आत्मकथा के कुछ अंश इंडिया टुडे ने प्रकाशित किये हैं। इंडिया टुडे में ‘बियॉन्ड द लाइन’ के प्रकाशित अंश के अनुसार संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने मिलकर जरनैल सिंह भिंडरावाले को पैदा किया था। जिसके पुरुस्कार स्वरूप ज्ञानी जैलसिंह को भारत का राष्ट्रपति बना दिया गया था।
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब में लिखा है कि मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी स्वीकार किया था कि अपने काम करने के लिए भिंडरावाले को कांग्रेस पैसे दिया करती थी। उन्होंने कहा था “जब हमने पहली बार भिंडरावाले का इंटरव्यू लिया था तो वह ‘साहसी टाइप’ बिल्कुल नहीं लगा था, हां, वह अक्खर लगा था और लगा था कि वह हमारे उद्देश्य पूरा करने में सही साबित होगा। हम उसे अक्सर अपने काम के लिए पैसे दिया करते थे, लेकिन हमने कभी यह नहीं सोचा था कि वह आतंकवादी बन जाएगा।”
जनरैल सिंह भिंडरवाला एक संत था जिसे इंदिरा गांधी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने एक साधु से शैतान बना दिया था। दरअसल, भिंडरवाला एक बेहद महत्वाकांक्षी व्यक्ति था जो कि भारत का सबसे शक्तिशाली इंसान बनना चाहता था और दूसरी तरफ कांग्रेस पूरे भारत पर दोबारा अपनी सत्ता स्थापित करना चाहती थी। सच तो यह है कि कांग्रेस और भिंडरवाला दोनों ही अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी करने हेतु एक-दूसरे का इस्तेमाल कर रहे थे।
13 अप्रैल 1978 को बैसाखी के दिन सिखों का एक दस्ता निरंकारियों से भिड़ गया। इस हमले में 16 सिखों की मौत हो गई थी। इसी वाकये को लेकर भिंडरावाले ने अकाली दल के खिलाफ सिखों को भड़काना शुरू कर दिया था (यह ठीक ऐसा ही है जैसे कि लखीमपुर खीरी कांड को लेकर उत्तरप्रदेश में कांग्रेस स्यापा कर रही है)
जब यह घटना घटी तब मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल मुंबई में थे। वहां से आते ही कई पुलिस वालों को निलंबित कर दिया था तथा निरंकारी के मुखिया गुरबचन सिंह को गिरफ्तार किया। इतना सब करने के बावजूद सिखों के गुस्सा को शांत नहीं कर पाए। इस घटना का खामियाजा बादल को अगले चुनाव में हारकर चुकाना पड़ा।
यहां से भिंडरावाले ने खालसा के नाम पर जो दौर शुरू किया वह खालिस्तान की मांग पर जाकर खत्म हुआ। एक अक्खड़ संत भिंडरावाला देश का सबसे ख़तरनाक़ आतंकी बन गया। हद तो तब हो गई जब भिंडरवाला ने इंदिरा सरकार को ही ललकारना शुरू कर दिया था। तब 3 जून को इंदिरा गांधी के आदेश पर भारतीय सेना द्वारा हरमिंदर साहब परिसर, अमृतसर में ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया जिसमें भिंडरावाले को उसके समर्थकों सहित मौत के घाट उतार दिया गया। भिंडरावाले की मौत के 5 माह पश्चात 31 अक्टूबर 1984 को भिंडरावाले के समर्थकों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। लेकिन लगता है कि सत्तालोलुप कांग्रेस ने अपने ही इतिहास से कोई सबक़ लेने का प्रयास नहीं किया है। और शायद वह एक बार फिर से इतिहास को दोहराने को तैयार बैठी है।
1977 में इंदिरा कांग्रेस की सत्तालोलुपता ने सम्पूर्ण भारत को भिंडरावाले के रूप में जो एक ज़ख्म दिया था, अब 44 वर्षों पश्चात 2021 में उसे सोनिया कांग्रेस फिर से कुरेदकर नासूर बनाने पर तुली है। लेकिन लगता है कि इंदिरा गांधी के नक्शेकदम पर चलने वाली प्रियंका गांधी शायद अंजाम पढ़ना भूल गई हैं।
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मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”