जब भगवान हनुमान लंका माता सीता की खोज करने पहुंचे थ्ो, तब उनकी वहां भ्ोंट भगवती सीता से हुई, जो महालक्ष्मी स्वरूपा थीं। जब हनुमान जी ने उन्हें पहचान स्वरूप भगवान राम की अंगूठी भ्ोंट की थी, इस पर माता ने उन्हें चूणामणि भ्ोंट की थी और उसे भगवान को देने के लिए कहा था। भगवती सीता ने उन्हें चूणामणि ही क्यों दी, इसके पीछे भी कथा है, जो कि यह साबित करती है, श्री राम लीला में सबकुछ यह पूर्व निर्धारित था, मात्र लोक कल्याण के लिए लीलाएं की जा रही थीं। माता ने जो चूणामणि हनुमान जी को दी थी, वह समान्य नहीं थी, अपितु चूणामणि जिस राज्य में रहती थी, वह अपराजय होता था, इसलिए माता ने वह चूणामणि हनुमान जी को दी थी,ताकि भगवान श्री राम उसका वध कर धरती को पाप के भार से मुक्ति दिला सके। इस चूणामणि की कथा उल्लेख धर्म शास्त्रों में मिलता है, जिसके अनुसार एक समय की बात है कि सृष्टि के कल्याण के लिए देवताओं व असुरों ने सागर मंथन किया था, उस समय सागर से 14 रत्न निकले थ्ो और दो देवियां प्रकट हुई थीं।
एक थी रत्नाकर नंदनी और दूसरी थीं महालक्ष्मी। रत्नाकर नंदनी ने भगवान श्री हरि को देखते ही अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था। जैसे ही देवी रत्नाकर नंदनी भगवान विष्णु से मिलने के लिए आगे बढ़ने लगी, तब सागर ने अपनी पुत्री रत्नाकर नंदनी को दिव्य रत्न जड़ित चूणामणि भ्ोंट की, जो कि विश्वकर्मा ने निर्मित की थी और देवताओं द्बारा पुजित मणि बन गई। इसी दौरान महालक्ष्मी का प्रादुर्भाव हो गया तथा लक्ष्मी जी ने भी भगवान श्री हरि यानी विष्णु जी को देखा तो वह भी भगवान पर मोहित हो गईं,और मन ही मन उनका वरण कर लिया, यह देखकर कर रत्नाकर नंदनी अकुला कर रह गईं, सभी के मन का भाव जानने वाले भगवान विष्णु तब रत्नाकर नंदनी के पास पहुंचे और कहा- मैं तुम्हारे भाव से परिचित हूं,जब-जब मैं पृथ्वी पर पाप का नाश करने के लिए अवतार लूंगा, तब-तब तुम संहारिणी शक्ति के रूप में धरती पर अवतार लोगी। सम्पूर्ण रूप से तुम्हें कलियुग में अंगीकार करूंगा। अभी सतयुग चल रहा है, त्रेता और द्बापर में तुम त्रिकुट पर्वत के शिखर पर अपने अर्चकों की मनोकामनाएं पूर्ति करती हुई तपस्यारत रहो।
तपस्या के लिए विदा लेते समय देवी रत्नाकर नंदनी ने अपनी चूणामणि निशानी के तौर पर श्री हरि को दे दी। वहीं निकट देवराज इंद्र खड़े थ्ो, वे चूणामणि पाने के लिए अधीर हो गए तो भगवान विष्णु ने उन्हें भ्ोंट कर दी। तब इंद्र ने वह चूणामणि इंद्राणी को भ्ोंट की, जिसे उन्होंने अपने जूड़े में स्थापित कर लिया। कुछ काल खंड के बाद एक असुर शम्बरासुर ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी और देवताओं को पराजित कर दिया, इस घटना के कुछ समय बाद इंद्र देव दशरथ जी के पास पहुंचे और उनकी मदद मांगी, तब दशरथ जी ने कैकेयी के साथ स्वर्ग आए और शम्बरासुर का वध कर दिया। युद्ध जीतने की खुशी में देवराज इंद्र और इंदाणी ने दशरथ व कैकेयी का भव्य सत्कार किया और उपहार प्रदान किए। इंद्रदेव ने दशरथ जी को स्वर्ग गंगा मंदाकनी के दिव्य हंसों के चार पंख भ्ोंट किए। इंद्राणी ने कैकेयी को वही चूणामणि भ्ोंट की और वरदान दिया कि यह चूणामणि जिस राज्य में रहेगी, वह राज्य अपराजय रहेगा और चूणामणि धारण करने वाली स्त्री को अक्षत-अक्षय और अखंड सौभाग्य प्राप्त होगा।
कालान्तर में कैकयी ने यह चूणामणि सुमित्रा का अद्भुत प्रेम देखकर उसे प्रदान कर दी। इस चूणामणि की समानता किसी अन्य किसी आभूषण से नहीं की जा सकती है। जब श्री राम का विवाह हुआ तो तीनों माताओं ने पुत्र-पुत्रवधुओं को मुंहदिखाई के तौर पर उपहार प्रदान किए। माता कैकेयी ने माता सीता को कनक भवन प्रदान किया। माता सुमित्रा माता ने चूणामणि भ्ोंट की तो माता कौशल्या ने माता सीता के हाथ श्री राम का हाथ सौपा। सीताहरण के पश्चात यही चूणामणि माता सीता ने हनुमान जी को अपनी निशानी के तौर पर दी थी। माता अन्य कोई आभूषण भी हनुमान जी को दे सकती थी, लेकिन उन्होंने यह चूणामणि यह सोचकर हनुमान जी को सौपी थी, यह चूणामणि जिस राज्य में रहेगी, उसे जीता नहीं जा सकता है, ऐसे में रावण का वध करने के लिए चूणामणि का श्री राम के पास होना आवश्यक था।