त्रेता युग में जिस अयोध्या की पावन नगरी में भगवान श्री राम अवतरित हुए अब उसी नगरी में भगवान राम का भव्य मंदिर फिर बनाया जा रहा है। जिसकी प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024 की शुभ घड़ी में होनी है। मौजूदा मोदी-योगी सरकार भी इस मंदिर के निर्माण में पथ पर फूल डालने का काम कर रही है। जिस अद्भुत उत्साह से इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा का भव्य आयोजन होने वाला है, वह निश्चित तौर पर अधर्म पर जीत ही है, क्योकि पांच सौ वर्षों तक मंदिर निर्माण रोकने की अधर्मियों की लाख कोशिशों के बाद भी राम मंदिर बन कर तैयार हो गया है और अब बस प्राण प्रतिष्ठा का इंतजार भर है। ऐसे में प्रधानमंत्री ने प्राण प्रतिष्ठा की तुलना दीपावली से करना भी तर्कसंगत प्रतीत होता है, क्योंकि पांच सौ वर्षों तक अधर्मियों ने राम मंदिर को ध्वस्त करने और निर्माण में बाधा डालने का ही तो प्रयास करते रहे। अंतत: उनके मंसूबों पर पानी फिर गया। सत्य की जीत हुई और असत्य की हार।
ध्यान देने वाली बात यह है कि पांच सौ साल पहले विदेशी आक्रातांओं ने राम मंदिर को ध्वस्त कर दिया था तो हिंदुओं की आत्मा तक त्राहिमाम-त्राहिमाम कह रही थी। पांच सौ साल पहले बाबर भारत भूमि पर आया और लूटपाट शुरू की। फिर साम्राज्य स्थापित किया। 21 मार्च, 1528 को हमलावर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने तोप से यहां पर राम मंदिर को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद से लेकर अभी तक मंदिर के लिए 76 युद्ध लड़े जा चुके हैं। सात लाख से अधिक लोगों ने श्री राम मंदिर के लिए अपने प्राणों की आहुति दी हैं। अयोध्या में सरयू तट दर्जनों बार रक्तरंजित हुए हैं। आइये जानते है कि आजादी से पूर्व भी राम मंदिर के लिए क्या हुआ है-
अयोध्या- 1527 से 1857 तक का संघर्ष
– जब बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ उस समय श्रीराम जन्मभूमि सिद्ध महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। (फैजाबाद जिला गजेटियर पृष्ठ 173 के अनुसार बाबर 29 मार्च 1527 को अयोध्या पहुंचा था।)
– ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के पास आया और उनका शिष्य बनकर सिद्धियाँ प्राप्त करने लगा। जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना।
– सर्वप्रथम जलालशाह और ख्वाजा बाबर के विश्वासपात्र बने और दोनों ने अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए जन्मभूमि के आसपास की जमीनों में बलपूर्वक मृत मुसलमानों को दफन करना शुरू किया और मीर बाँकी के माध्यम से बाबर को उकसा कर मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया।
– दु:खी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित कीं और खुद हिमालय की ओर तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर रामलला की रक्षा के लिए खड़े हो गए। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारों पुजारियों के सिर काट लिए गए।
– जिस समय मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाने की घोषणा हुई उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्री नारायण की यात्रा करने के लिए निकले थे, अयोध्या पहुंचने पर रास्ते में उन्हें ये खबर मिली तो उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित कर दी और अपनी छोटी सेना में रामभक्तों को शामिल कर 1 लाख चौहत्तर हजार लोगों के साथ बाबर की सेना के 4 लाख 50 हजार सैनिकों से लोहा लेने निकल पड़े।
– रामभक्तों ने सौगंध ले रखी थी रक्त की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे, जब तक प्राण है तब तक मंदिर नहीं गिरने देंगे। रामभक्त वीरता के साथ लड़े 17 दिनों तक जन्मभूमि की रक्षा के लिए घोर संग्राम करते हुए राजा महताब सिंह सहित लाखों वीरों ने इस धर्मयुद्ध में अपने जीवन के प्राणों की आहुति दे दी।
– इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखते हैं कि एक लाख चौहत्तर हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के पश्चात मीर बाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान में सफल हुआ।
– हैमिल्टन नाम का एक अंग्रेज बाराबंकी गजेटियर में लिखता है कि जलालशाह ने हिन्दुओं के खून का गारा बना के लखौरी ईटों की नींव मस्जिद बनवाने के लिए दी थी।
– जन्मभूमि के रक्षार्थ अगली मुहिम पंडित देवीदीन पाण्डेय द्वारा आरंभ की गई। उन्होंने सराय सिसिंडा राजेपुर आदि के सूर्यवंशीय क्षत्रियों को एकत्रित कर आहृवान किया कि आज मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि को मुसलमान आक्रान्ता कब्रों से पाट रहे हैं और खोद रहे हैं इस परिस्थिति में हमारा मूकदर्शक बन कर जीवित रहने की बजाय जन्मभूमि की रक्षार्थ युद्ध करते करते वीरगति पाना ज्यादा उत्तम होगा।
– देवीदीन पाण्डेय के आह्वान पर दो दिन के भीतर 90 हजार क्षत्रिय एकत्र हो गए। दूर-दूर के गांवों से समूहों में एकत्र होकर जन्मभूमि के लिए संघर्ष आरंभ कर दिया। शाही सेना से लगातार 5 दिनों तक युद्ध करते हुए रामभक्तों ने जन्मभूमि के रक्षार्थ बलिदान दिया।
– इसके 15 दिन बाद जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए हंसवर के महाराज रणविजय सिंह ने सिर्फ 25 हजार सैनिकों के साथ मीर बाँकी की विशाल और शस्त्रों से सज्जित सेना पर आक्रमण किया। 10 दिन तक युद्ध चला और महाराज जन्मभूमि के रक्षार्थ वीरगति को प्राप्त हो गए। जन्मभूमि में 25 हजार हिन्दुओं का रक्त फिर बहा।
– जन्मभूमि की रक्षा में महाराज के वीरगति प्राप्त करने के बाद महारानी जयराज कुमारी ने उनके संकल्प को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया और तीन हजार नारियों की सेना लेकर उन्होंने जन्मभूमि के लिए मुगल सेना पर हमला बोला। कई दिनों तक छापामार युद्ध के बाद इन वीरांगनाओं ने राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की। इसके बाद स्वामी महेश्वरानंद जी ने रामभक्त साधू-सन्यासियों और आम लोंगों को एकत्र करके मुगल सेना से संघर्ष किया।
– अगले संघर्ष का नेतृत्व स्वामी बलरामाचारी जी ने अपने हाथों में लिया। रामभक्तों की मजबूत सेना तैयार कर जन्मभूमि के उद्धारार्थ 20 बार आक्रमण किये। इन 20 हमलों में 15 बार स्वामी बलरामाचारी ने जन्मभूमि पर अपना अधिकार कर लिया मगर ये अधिकार अल्पकालिक था। पर, इससे सम्पूर्ण अयोध्या अंचल में नवीन चेतना जागृत हुई, जिससे अकबर को मस्जिद के प्रांगण में मंदिर स्वीकारना पड़ा।
– औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु रामदास महाराज जी के शिष्य बाबा वैष्णवदास जी ने जन्मभूमि के उद्धारार्थ 30 बार आक्रमण किये। इन आक्रमणों में अयोध्या के आस-पास के गांवों के सूर्यवंशीय क्षत्रियों ने पूर्ण सहयोग दिया, जिनमें सराय के ठाकुर सरदार गजराज सिंह और राजेपुर के कुँवर गोपाल सिंह तथा सिसिण्डा के ठाकुर जगदंबा सिंह प्रमुख थे।
– ये सारे वीर ये जानते हुए भी कि उनकी सेना और हथियार बादशाही सेना के सामने कुछ भी नहीं हैं अपने जीवन के आखिरी समय तक शाही सेना से लोहा लेते रहे। लम्बे समय तक चले इन युद्धों में श्रीराम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए हजारों हिन्दू वीरों ने अपना बलिदान दिया और अयोध्या की धरती पर उनका रक्त बहता रहा।
– समर्थ गुरु रामदास जी के शिष्य बाबा वैष्णवदास जी के नेतृत्व में हजारों चिमटाधारी साधुओं की सेना ने मुगल सेना को मार भगाया। प्रतिक्रिया स्वरूप औरंगजेब ने जन्मभूमि पर पड़ी झोपड़ी भी नष्ट कर दी, जहां हिन्दू पूजा करते थे।
– सन् 1680 में बाबा वैष्णवदास जी ने सिक्खों के गुरु गुरु गोविंद सिंह से युद्ध में सहयोग के लिए पत्र लिखा। संदेश पाकर गुरु गोविंद सिंह सेना समेत तत्काल अयोध्या आ गए और ब्रह्मकुंड पर अपना डेरा डाला। (ब्रह्मकुंड वही जगह है जहां आजकल गुरु गोविंद सिंह की स्मृति में सिक्खों का गुरुद्वारा बना हुआ है।)
– बाबा वैष्णवदास जी एवं गुरु गोविंद सिंह जी जन्मभूमि की रक्षा हेतु एक साथ रणभूमि में कूद पड़े। इन वीरों के सुनियोजित हमलों से मुगलों की सेना के पाँव उखड़ गये और सैय्यद हसन अली भी युद्ध में मारा गया। औरंगजेब हिंदुओं की इस प्रतिक्रिया से स्तब्ध रह गया।
– औरंगजेब ने सन् 1664 में एक बार फिर श्रीराम जन्मभूमि पर आक्रमण किया। इस भीषण हमले में शाही फौज ने लगभग 10 हजार से ज्यादा हिंदुओं की हत्या कर दी, नागरिकों तक को नहीं छोड़ा। जन्मभूमि हिन्दुओं के रक्त से लाल हो गई। जन्मभूमि के अंदर नवकोण के एक कंदर्प कूप नाम का कुआं था, सभी मारे गए हिंदुओं की लाशें मुगलों ने उसमें फेंककर चारों ओर दीवार उठा कर उसे घेर दिया। आज भी कंदर्पकूप ‘गज शहीदा’ के नाम से प्रसिद्ध है और जन्मभूमि के पूर्वी द्वार पर स्थित है।
– नवाब सहादत अली के समय 1763 ईस्वीं में जन्मभूमि के रक्षार्थ अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह और पिपरपुर के राजकुमार सिंह के नेतृत्व में बाबरी ढांचे पर पुन: पाँच आक्रमण किये गये।
– लखनऊ गजेटियर में कर्नल हंट लिखता है- लगातार हिंदुओं के हमले से ऊबकर नवाब ने हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ नमाज पढ़ने और भजन करने की इजाजत दी, पर उसने हिन्दुओं को जमीन नहीं सौंपी।
– फैजाबाद गजेटियर में कनिंघम ने लिखा है कि ‘इस संग्राम में बहुत ही भयंकर खून-खराबा हुआ। दो दिन और रात होने वाले इस भयंकर युद्ध में सैकड़ों हिन्दुओं के मारे जाने के बावजूद हिन्दुओं ने राम जन्मभूमि पर कब्जा कर लिया। क्रुद्ध हिंदुओं की भीड़ ने कब्रें तोड़फोड़ कर बर्बाद कर डालीं, मस्जिदों को मिसमार करने लगे और पूरी ताकत से मुसलमानों को मार-मार कर अयोध्या से खदेड़ना शुरू किया। मगर, हिन्दू भीड़ ने मुसलमान स्त्रियों और बच्चों को कोई हानि नहीं पहुंचाई। अयोध्या में प्रलय मचा हुआ था।
– इतिहासकार कनिंघम लिखते हैं कि ये अयोध्या का सबसे बड़ा हिन्दू-मुस्लिम बलवा था। हिंदुओं ने अपना सपना पूरा किया और औरंगजेब द्वारा विध्वंस किए गए चबूतरे को फिर वापस बनाया। चबूतरे पर तीन फीट ऊँची खस की टाट से एक छोटा सा मंदिर बनवा लिया, जिसमें पुन: रामलला की स्थापना की गई।
– सन 1857 की क्रांति में बहादुर शाह जफर के समय में बाबा रामचरणदास ने एक मौलवी अमीर अली के साथ जन्मभूमि के उद्धार का प्रयास किया पर 18 मार्च सन 1858 को कुबेर टीला स्थित एक इमली के पेड़ में दोनों को एक साथ अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया। जब अंग्रेजों ने ये देखा कि ये पेड़ भी देशभक्तों एवं रामभक्तों के लिए एक स्मारक के रूप में विकसित हो रहा है तब उन्होंने इस पेड़ को कटवा दिया।
– गोरक्षपीठ के श्री गोपालनाथ जी महराज ने आन्दोलन शुरू किया, उन्हें ब्रिटिश पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. उनके लिए जोधपुर रियासत सहित कई क्षत्रिय रियासतों द्वारा मुक्त करने के लिए दबाव बनाया गया लेकिन ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें रिहा नहीं किया तत्पश्चात नेपाल नरेश द्वारा दबाव बनाया गया और गोरखा रेजिमेंट को हटाने की धमकी डी गयी तब इन्हें रिहा किया गया .
– ब्रिटिश-महारानी विक्टोरिया ने राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद की जानकारी पाकर, बाबरी मस्जिद का नक्शा मंगवाया और प्रांगण के बीच रेखा खीचकर आदेश किया कि इस रेखा पर दीवार बनवा दी जाए। मुसलमान भीतर नमाज पढ़े और हिंदू बाहर के चबूतरे पर पूजा-पाठ करें।