साधना में होने वाली अनुभूतियां, ईश्वरीय बीज को जगाने में न घबराये साधक 

1
9754
श्वर की प्राप्ति के लिए साधना सहज माध्यम है। इससे मनुष्य की आत्म चेतना जागृत होती है। जैसे-जैसे साधना अपने चरम पर पहुंचती है, वैसे-वैसे जीव को नित नई-नई अनुभूतियां होने लगती हैं। यह अनुभूतियां पूर्व के जीवन में हुई अनुभूतियों से बिल्कुल भिन्न होती हैं। जहां शरीरिक रूप से इसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, वहीं मानसिक प्रभाव भी होता है। साधना के पथ पर जो जीव एकभाव होकर लगा रहा है, उसे ईश्वरीय बीज यानी ईश्वरत्व की प्राप्ति हो जाती है। साधनारत जीव को नए-नए भावों की अनुभूति होती है। साधना किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करना ही श्रेयस्कर होता है। जरूरी यह भी है वह सद्गुरु साधक हो, भ्रमित करने वाला न हो, वह उसके प्रभावों से भलीभांति परिचित हो। साधना से मनुष्य की कुंडलियां जाग्रत होती है, जो मनुष्य को उस ब्रह्म से जोड़ती है। साधना में होने वाली अनुभूतियां अब हम आपको बताते हैं, जिसकी ईश्वरीय बीज को जगाने में अहं भूमिका होती है।
साधना के शुरुआती चरण में ही साधक के शरीर के विभिन्न हिस्सों में दर्द की अनुभूति होने लगती है। उदाहरण के तौर पर गर्दन, कंध्ो, पीठ, जंघाओं और पैरों के हिस्सों में। इससे साधक को घबराने की जरूरत नहीं है। वह साधना पथ चलता रहे, यह दर्द स्वत: साधना के आगे बढ़ने पर ठीक हो जाएंगे। साधना से वास्तव में आपके शरीर में कुछ परिवर्तन होते हैं, जिससे ईश्वरीय तत्व जाग्रत होते है। इसे ईश्वरीय बीज भी कहा जा सकता है। जो साधना के माध्यम से अंकुरित होकर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, जीव यानी साधक को ईश्वर रूपी फल की प्राप्ति सम्भव हो जाती है।
जब साधक साधना में लीन होना शुरू होता है, उसे कई बार बिना किसी वजह के आंतरिक गहरी उदासी महसूस होने लगती है। वह अतीत या जीवनकाल से जुड़ी दुखद घटनाओं से मुक्त होने लगता है। यह उसकी अनुभूति में प्राय: आने लगता है। साधक को उस समय प्रतीत होने लगता है, जैसे कई वर्षों बाद अपने पुराने घर में जाने पर मनुष्य को लगता है। उसे उस घर से जुड़ी तमाम बातों, यादों व अनुभवों की अनुभूतियां होने लगती है। या दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वह दुखी होने लगता है लेकिन साधक को इससे घबराना नहीं चाहिए, बल्कि साधना को जारी रखना चाहिए। साधना से यह समस्या स्वत: दूर हो जाएगी।
साधना के पथ में चलते साधक के भाव भी प्रतिपल अकारण बदलते है, उदाहरण के तौर पर बिना किसी वजह से भावाकुल होकर नेत्रों से आंसू बहने लगना। दुख की अनुभूति करना। यह शरीर व मन दोनों के लिए साधक के लिए उत्तम होता है। इसका आशय यह है कि साधक अपने साधना पथ पर धीरे- धीरे आगे बढ़ रहा है। यह वास्तव में साधक की पुरानी उर्जा को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया का अंग है। जब आप साधना करते जाएगे तो यह विकार भी स्वत: दूर हो जाएंगे।

 

Advertisment

यह भी पढ़ें – जानिए, क्या है माता वैष्णवी की तीन पिण्डियों का स्वरूप

यदि वर्तमान समय की बात करें तो लोग एकाकी और स्वार्थ की भावना सेे अधिक ओतप्रोत होते जा रहे है। इस जीवन को ही सत्य मान बैठे है। ऐसे में जीवन में एकाकीपन भी आ रहा है। चूंकि साधक भी आजकल के दौर में ही रह रहे हैं, तो स्वभाविक है कि वे कहीं न कहीं इससे प्रभावित ही है, क्योंकि इसी समाज में रह रहे है। हम पारिवारिक व सांसारिक रिश्तों में अपने पुराने कर्मो यानी प्रारब्ध या लेन-देने से जुड़े हुए है। जब साधना के बल पर आप कर्मी चक्र से निकलते है तो पुराने रिश्तों के बंधनों से मुक्त होने लगते है। आपको अनुभव होने लगेगा कि अपने परिवार व प्रियजनों से दूर होते जा रहे हैं। यदि आप साधना में संलग्न रहेंगे तो यह दौर भी स्वत: बीत जाएगा। बस एकाग्रता व संजीदगी से साधना को जारी रख्ों। साधना के क्रम के कुछ समय के बाद यदि आप उपयुक्त हैं तो आप उनके साथ एक नया रिश्ता विकसित कर लेंगे। हालांकि फिर इन रिश्तों को एक नई ऊर्जा के आधार पर निभाया जाएगा। इसमें कार्मिक संलग्नकता नहीं होगी। यानी निष्काम भाव से कर्म पथ पर साधक अग्रसर होवेगा। बिना किसी कार्मिक संलग्नकता के वह आगे बढ़ेगा।
साधना पथ पर जब साधक आगे बढ़ता है तो अकारण ही वह नींद से जाग जाता है। मध्यरात्रि को उसकी नींद खुल जाती है। अक्सर रात्रि दो से चार बजे के मध्य साधक जाग जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि साधक के अंत:करण में बहुत कुछ गतिविधियां चल रहा है। यहीं अक्सर साधक को गहरी श्वास लेने के लिए जागने का कारण बनता है। इससे साधक को घबराने की जरूरत नहीं है। फिर भी साधक यदि नींद भंग होने के बाद दोबारा सोने के लिए नहीं जा सकता हो, तो वह धार्मिक पुस्तक पढ़े या संकीर्तन करे। जब साधक धार्मिक पुस्तक पढ़ेगा या संकीर्तिन करेगा तो स्वत: उसके मन में पावन विचार प्रस्फुटित होने लगेंगे। साधक साधना पथ पर लगा रहेगा तो यह दौर भी गुजर जाएगा।

यह भी पढ़ें –भगवती दुर्गा के 1०8 नामों का क्या आप जानते हैं अर्थ

इस अवधि में साधक को डरावने सपने आने शुरू हो सकते है, जो उसे निंद्रा से जगाते है। वह भयाक्रांत सा उस समय स्वयं को महसूस करता है। उदाहरण के तौर युद्ध या राक्षस के सपने आना। जैसे राक्षस उसका पीछा कर रहा हो। इसका अर्थ यह हुआ कि पुरानी आंतरिक उर्जा को बाहर निकाल रहे है, और उस स्थान पर साधना के माध्यम से नयी उर्जा प्रवेश करेगी। अतीत की उर्जा को अक्सर युद्ध के रूप में ही दर्शाया जाता है। साधक सक्रिय रहा तो यह दौर भी साधक पार कर जाता है।

साधना के दौर में भौतिक असंतोष का संताप भी साधक को सताने लगता है। वह घोर निराशा की अनुभूति करने लगता है। उसे लगता है कि वह संसार में अब कुछ नहीं कर सकता है। वह ऐसी दो दुनियाओं के बीच चल रहा है, जो बिल्कुल भिन्न है। जिनके रंग-ढंग भिन्न हैं। घबराये नहीं, ऐसा आप तब महसूस करेंगे, जब साधक की चेतना में परिवर्तन होने लगता है। पुरानी उर्जा नयी उर्जा में परिवर्तित होने लगती है। प्रकृति के मध्य रहने से नयी उर्जा के निर्माण में मदद मिलती है, इसलिए ही ऋषि-मुनि दुर्गम स्थलों में रहकर साधना पथ पर चलते थ्ो। साधना जारी रखी तो साधक इस दौर से भी गुजर जाएगा। एक और अनुभूति प्रमुखता से साधक को इस अवधि में होने लगती है, वह स्वयं में लीन होने लगता है, यानी स्वयं से बातचीत करने लगता है, या फिर ऐसा महसूस करने लगता है। साधक को लगने लगता है कि वह काफी देर से चिल्ला रहा है। यह साधक के अस्तित्व में होने वाला नया स्तर विकसित होने का द्योतक है। कई बार हिमश्ौल की नोक पर स्वयं से बात करते है साधक या फिर ऐसे निर्जन स्थान पर जहां उसके व उसके अराध्य के सिवा कोई नहीं है। साधना के अगले क्रम में साधक की अपने आप से बातचीत बढ़ेगी और वे अधिक द्रव, अधिक सुसंगत और अधिक व्यावहारिक बन जाएंगे । साधक तब लगने लगेगा कि वह पागल होते जा रहे हैं, पर वास्तव में वह इस चेतना का विकास हैं, साधक नई ऊर्जा में आगे बढ़ने की प्रक्रिया में हैं।
साधना पथ पर जब साधक आगे बढ़ता है तो उसे अकेलेपन की भावना सताने लगती है। भले ही वह बहुतेरे या सैकड़ों लोगों के बीच ही क्यों न हो। उस भीड़ में उनका मन नहीं स्थिर होता है और वहां से पलायन का विचार करने लगते है या यूं कहें कि वे वहां से पलायन करना चाहते हैं। ऐसा साधक के साथ इसलिए होता है, क्योंकि वह निरंतर साधना के पथ पर संलग्न रहता है। ऐसे में वह पूर्णतया पवित्र भावना मन में रखना चाहता है। अकेलेपन की भावना के चलते साधक को ऐसे में चिंता भी बहुत होती है, ऐसे में दूसरों से बातचीत करना या नये सम्बन्ध में बनाना साधक के लिए बहुत दुष्कर होता है।
अकेलेपन की भावना इस भाव से भी जुड़ी होती है कि साधक की मार्गदर्शिकाएं समाप्त हो चुकी है, जब कि उस साधक के अपने सभी जीवन कालों में अपनी यात्रा कर रहे है, दूसरे शब्दों में यूं कहें कि वे आपके सभी जीवन कालों में आपके सभी यात्रा पर रहे हैं। यह उनके लिए दूर करने का समय था, ताकि आप अपनी जगह अपने देवत्व को भर सके। धीरे-धीरे साधना पथ पर यह दौर भी बीत जाएगा। तब भीतर का शून्य अपने ही सत्य, ईश्वर प्रेम और नवीन उर्जा से स्वत: भर जाएगा। साधना के अगले चरण में साधक अनुभव करने लगता है कि वह कुछ करने की इच्छा नहीं रखता है। साधक स्वयं को लेकर भी असहमति महसूस करने लगते हंै। साधक को इससे घबराने की जरूरत नहीं है, इसके लिए स्वयं में साधक ज्यादा न उलझे तो बेहतर रहेगा, क्योंकि यह भी साधना का हिस्सा है। साधना को सफल होने के लिए यह भाव आने स्वभाविक है। इसके लिए खुद से संघर्ष न करे साधक तो बेहतर है। वास्तव में यह वह समय होता है, जब साधक कुछ समय के लिए इस अचेतन की स्थिति में आ जाता है और तब इसके पश्चात उसके अंत:करण में नयी दिव्य उर्जायें सुरक्षित होंगी। यह अवस्था दिव्य उर्जाओं के अवस्थित होने के लिए आती है।
साधना जैसे अगले चरण में पहुंचती है तो नयी अनुभूति भी साधक को होने लगती है। इस अवस्था तक पहंुचते-पहुंचते साधक एक शांत उर्जा बन जाता है और वह घर वापसी गहन इच्छा रखने लगता है। यह अनुभव किसी भी कठिन परिस्थिति में साधक के लिए सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण रहता है। गृह छोड़ने और अपने वास्तविक गृह में वापस जाने की इच्छा का साधक अनुभव करता है। इसे आत्मघाती अनुभव तो कतई नहीं कहा जाना चाहिए, क्योंकि यह अनुभव किसी क्रोध या निराशा पर आधारित नहीं रहता है। चूंकि साधक तब शांत उर्जा के रूप में परिणित हो चुका होता है, इसलिए वह मूल गृह में जाने का लालायित है। इसका आशय यह है साधक ने कर्मक चक्र पूरा कर लिया है और जीवनकाल के लिए अनुबंध पूरा कर लिया है। यानी इसी भौतिक शरीर में नया जीवनकाल शुरू करने के लिए तैयार हो गया है। इस संक्रमण दौर प्रक्रिया के दौरान साधक को एहसास हो जाता है कि वह कभी भी अकेला नहीं था। शरीर में नयी उर्जा की प्राप्ति के पश्चात साधक दूसरों को साधना पथ पर अग्रसित करें, ताकि दूसरों का भी आत्म कल्याण हो सके।
सनातन धर्म, जिसका न कोई आदि है और न ही अंत है, ऐसे मे वैदिक ज्ञान के अतुल्य भंडार को जन-जन पहुंचाने के लिए धन बल व जन बल की आवश्यकता होती है, चूंकि हम किसी प्रकार के कॉरपोरेट व सरकार के दबाव या सहयोग से मुक्त हैं, ऐसे में आवश्यक है कि आप सब के छोटे-छोटे सहयोग के जरिये हम इस साहसी व पुनीत कार्य को मूर्त रूप दे सकें। सनातन जन डॉट कॉम में आर्थिक सहयोग करके सनातन धर्म के प्रसार में सहयोग करें।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here