इस कहानी के पहले भाग का लिंक नीचे है-
अब आगे……………इसी तरह से पांच वर्ष का समय बीत गया। चतुर्वेदी जी की इस आदत से उनकी पत्नी व बच्चे तंग आ चुके थे और एक दिन दोनों लड़के व पत्नी ने मिलकर इस समस्या का हल ढूंढने की सोची। रात खाने की मेज पर बच्चों ने बात शुरू की और कहा कि पापा जी जूतों से आपका इतना लगाव ठीक नहीं। इसे सुनते ही वह भड़क गए और डाट कर चुप करा दिया।
इस घटना के बाद बच्चे व उनकी पत्नी खिचे-खिचे रहने लगे और चतुर्वेदी जी का जो समय कार्यालय में बीतता उसे छोड़कर जितनी देर घर पर रहते, जूते को ही देखते रहते। उन्हें खाने तक भी होश नहीं रहता था। जिससे उनकी सेहत दिन प्रति दिन खराब रहने लगी। उन्हें हर समय यह डर लगा रहता कहीं कोई जूतों को चुरा न ले।
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नवम्बर 1955 को दोपहर खाना खाने वह बंगले पर आए और हाथ धोने के बाद वह जूतों के पास गए और नौकर को आवाज दी कि जूतों वाले केस को खाने की मेज के पास रख दे। उसने वैसा ही किया और फिर खाना लगाने लगा। उसके जाते ही वह कुर्सी खींचकर खाने की मेज पर बैठ गए।
बच्चे व उनकी पत्नी भी खाने की मेज पर बैठकर बातें करते जा रहे थे। नौकर खाना लगा रहा था, तभी चतुर्वेदी जी बातें करते हुए एकदम अपनी कुर्सी से लुढ़क कर पास रखे जूते के केस पर गिर पड़े। इसे देखकर सब चींख पड़े और दौड़कर उन्हें उठाने लगे। उन्हें उठाकर पलंग पर लेटा दिया। डॉक्टर को फोन कर बुलाया गया।
डॉक्टर ने आकर जांच की और कहा कि अब कुछ नहीं हो सकता। सुनते ही चारों तरफ कोहराम मच गया। चतुर्वेदी जी का हार्टफेल हो गया था। दूसरे दिन उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनके जूतों को उनकी याद में संभाल कर रख दिया गया। लेखन अश्विनी कुमार नागर ने अपनी इस कहानी के माध्यम से यह संदेश भी देने का भी प्रयास किया है कि इस नश्वर संसार में किसी भौतिक वस्तु से इतना प्रेम मत करो कि अपने जीवन के मूल लक्ष्य से ही भटक जाओ, जैसा कि चतुर्वेदी जी के साथ हुआ।