संत दया का सागर होते हैं। वे सुहृद होते हैं। सभी से प्रेम का भाव रखने वाले होते हैं, विद्बेश लेशमात्र भी उनमें नहीं छलकता है। संतों के स्वभाव में क्षमा, प्रेम, संतोष, कल्याण, करुणा और सदाचार छलकता है। वे सदा ही संतापहीन, आनंदमय और शांति का भंडार होते हैं। वे अपने स्वभाविक आचरण से जगत के प्राणियों संताप हरने वाले और उन्हें क्षमा, प्रेम, संतोष, कल्याण, करुणा, सदाचार, आनंद और शांति प्रदान करने वाले होते है। वे दूसरों में भी धर्म परायणता का भाव भरने वाले होते हैं।
वैसे तो संतों के लिए कुछ भी कर्तव्य या विधि-निषेध नहीं होती है, पर वे बड़े कर्तव्य परायण और विधि का अनुसरण करने वाले होते हैं। उनमें बसी हुई लोक कल्याणकारी वृत्ति उनके द्बारा निरंतर ऐसे कायों में प्रवृत्त करती है, जिसमें जगत कल्याण का भाव रहता है। वे सावधान होकर शुभ आचरण करने वाले होते हैं। ग्रहण-त्याग की परिधि से परे और होते हुए भी शुभ ग्रहण और अशुभ का त्याग करने वाले होते हैं। संतों का प्रमुख लक्षण यह भी है कि वे स्वयं को नहीं, बल्कि ईश्वर को ही सर्वस्व मानते हैं।
स्वयं को पूजित कराने से वे परहेज करते हैं। वे अपने भक्तों व अनुयायियों को भी धर्म संगत सनातन मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करने वाले होते हैं। वे जीवात्मा व परमात्मा का भेद अनुयायियों का बताते हैं। उल्लेखनीय है कि आज के दौर में ऐसे तथाकथित संतों की भरमार है, जो तमाम आडम्बर रच कर स्वयं को पूजित कराते हैं या फिर यूं कहें कि उनके तथाकथित भक्त उनको पूजते हैं और दूसरों को पूजित करने के लिए प्रेरित करते है। दोनों ही स्थितियां विनाशकारी है, आत्मकल्याण या जगतकल्याण के लिए हितकर नहीं।