आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात् उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं। भागवत गीता के पाठ से भी पितृ दोष से मुक्ति पाई जा सकती है। गीता का वो ज्ञान जो भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में दिया था। इस गीता का 7वां अध्याय पितृ मुक्ति और मोक्ष से जुड़ा है। श्राद्ध पक्ष में गीता के सातवें अध्याय का पाठ किया जाता है। इस अध्याय का नाम है ज्ञानविज्ञान योग। इस अध्याय का पाठ श्राद्ध में जितना हो सके, उतना करने का प्रयास करें। इससे पितरों को तृप्ति मिलेगी और पितृ दोष से मुक्ति मिलेगी।
श्राद्ध के बारे में दस बातें…
पितृ शांति एक व्यापक विषय है जिसके बारे में थोड़े से पूरा समझना अत्यंत कठिन है। फिर भी कुछ मुख्य बिंदुओं का स्पष्टीकरण मानव के हित के लिए, जिसके बारे में साधारणतया भांतियां या अज्ञान की वजह से कार्य की पूर्णता तथा उसका लाभ मिल नहीं पाता है, कुछ बिंदु निम्नलिखित हैं-
(1) श्राद्ध पक्ष को 16 श्राद्ध कहा जाता है, जो भाद्रपद माह की पूर्णिमा से प्रारंभ होता है तथा पूरे 16 दिन आश्विन की अमावस तक माना जाता है। इन 16 दिन श्राद्ध-तर्पण इत्यादि कार्य किए जाते हैं
(2) पूर्णिमा को ऋषियों के निमित्त श्राद्ध, नवमी को सौभाग्यवती स्त्री के लिए, द्वादशी को यतियों, संन्यासियों के निमित्त, चतुर्दशी को शस्त्राघात से मृतकों के लिए श्राद्ध, अमावस को जिनकी तिथि नहीं मालूम हो, उनके लिए श्राद्ध किया जाता है।
(3) जिनकी मृत्यु हुई, उनकी मृत्यु के तीसरे या पांचवें वर्ष उन्हें पितृ में मिलाया जाता है। जिस तिथि को मृत्यु हुई, उसी तिथि को यह कार्य किया जाता है, भले ही मृत्यु किसी भी पक्ष में हुई हो।
(4) एकाधिक पुत्र होने पर यदि सम्मिलित रहते हों तो एक जगह और यदि अलग-अलग रहते हों तो सभी को अलग-अलग श्राद्ध करना चाहिए, न कि बड़े पुत्र या छोटे को, यह भ्रांति नहीं पालना चाहिए।
(5) पुत्र नहीं होने पर सगोत्री, यह भी नहीं होने पर बेटी का बेटा श्राद्ध करने का अधिकारी माना जाता है। वैसे कोई भी किसी के निमित्त श्राद्ध कर सकता है।
(6) लोगो की एक सोच यह है कि गयाजी में पिंडदान कर लिया है तो श्राद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसा नहीं है। गयाजी में कार्य करने से मोक्ष नहीं मिलता, यह समझने की बात है। मृत्यु के उपरांत जीव प्रेत योनि में जाता है, उसी प्रेत को पितृलोक में भेजने के कर्मकांड हम किसी तीर्थ या गयाजी में करते हैं। मोक्ष देने का अधिकार परमपिता परमेश्वर को ही है। 3 साल श्राद्ध नहीं करने पर पितृ दोबारा प्रेत बन जाते हैं। यह समझने की बात है। गयाजी में जाकर पिंडदान के उपरांत श्री बद्रीनाथ धाम में स्थित ‘ब्रह्म कपाली’ में पिंडदान किया जाता है, जो कम लोग जानते हैं। ब्रह्म कपाली में किया जाने वाला पिंडदान आखिरी माना जाता है।
(7) पितृ पक्ष में पितृ लोक के द्वार खुलते हैं तथा सभी पितृदेव अपने-अपने पुत्रादि के घर पर जाकर स्थित हो जाते हैं तथा अपने निमित्त किए गए तर्पण, भोजनादि का इंतजार करते हैं। नहीं किए जाने पर रुष्ट होकर शाप देकर वापस चले जाते हैं। उनके शाप देने के कारण ही मानव जीवन में कठिनाइयों का दौर शुरू होता है। ‘श्राद्ध’ शब्द ‘श्रद्धा’ से बना है अत: इस कार्य में श्रद्धा की नितांत आवश्यकता है।
(8) भोजन इत्यादि में उपयोग किए जाने वाले बर्तन पीतल के होने चाहिए, स्टील के बर्तन ग्राह्य नहीं हैं।
(9) भोजन में कई सब्जियों का प्रयोग नहीं किया जाता है। यहां तक कि भोजन करने वाले ब्राह्मण से पूछा तक नहीं जाता कि भोजन कैसा बना है।
(10) सबसे आवश्यक वस्तु है संकल्प। संकल्प के बगैर किया गया कार्य पूर्ण नहीं माना जाता है। यदि संस्कृत में नहीं बोल सकें, तो अपनी भाषा में ही क्रिया का उल्लेख कर जल छोड़ दें। भोजनादि के उपरांत दक्षिणा अवश्य दें। जहां भोजन की व्यवस्था नहीं हो, वहां सीधा दान (कच्चा अन्न आदि) जिसे आमान्न दान कहते हैं, दिया जाता है। वह एक परिवार के लिए एक दिन का हो, यह ध्यान रखें।।
अतः सभी सनातनी हिंदुयों से निवेदन है कि श्राद्ध कर्म जरूर करें।
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