श्री नागेश्वरनाथ का अद्भुत माहात्म्य जो देता है मुक्ति

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भगवान श्री नागेश्वरनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग में से एक है। भगवान श्री नागेश्वर का स्थान गुजरात के गोमती-द्बारका से वेटद्बारका जाते समय 24 किलोमीटर पूर्वोत्तर मार्ग पर है, मतांतर में दारुकावन को महाराष्ट्र में भी माना जाता है।

 

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महाराष्ट्र में औरंगाबाद से करीब दो किलोमीटर धौरंडी स्टेशन है, जहां से करीब बीस किलोमीटर दूर स्थित अवढा नागनाथ को नागेश ज्यातिर्लिंग माना जाता है। हालांकि अधिकांश धर्मामवम्बियों का मानना है कि गुजरात का द्बारका के निकट ही नागेश्वर ज्योतिर्लिंग है।

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शिवपुराण में कहा गया है कि जो आदरपूर्वक इनकी उत्पत्ति और माहात्म्य को सुनेगा। वह सभी पापों से मुक्त होकर सभी ऐहिक सुखों को भोगता हुआ अंत में परमपद को प्राप्त होगा। इ

 

स लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में शिवपुराण की कथा है कि प्रचीनकाल में दारुका नाम की एक राक्षसी हुआ करती थी। जिसे जगतजननी माता पार्वती ने वर दिया था। जिसकी वजह से वह सदैव ही घमंड में रहती थी। अतिशक्तिवान असुर दारुक उसका पति था। उसने बहुत से राक्षसों को लेकर वहां सत्पुरुषों का संहार मचाया हुआ था। वह धर्म के पथ पर चलने वालों की हत्या और धर्मकर्म में बाधा डालने का काम करता था। वह अधर्म के कार्यों में सदैव लिप्त रहता था। यज्ञ कर्मों में बाधा डालता था। पश्चिमी समुद्र के तट पर उसका एक वन था, जो सम्पूर्ण समृद्धि और ऐश्वर्य से परिपूर्ण था। उस वन का विस्तार सब ओर से सोलह योजन था।

 

दारुका अपने विलास के लिए जहां जाती थी। वहीं भूमि, वृक्ष और अन्य सभी उपकरणों से युक्त वह वन भी चला जाता था।

देवी पार्वती ने उस वन की देखरेख का भार दारुका को सौपा था। असुर दारुक अपनी पत्नी दारुका के साथ वहां रहकर सभी को भयग्रस्त करता था। उससे पीड़ित हुई प्रजा ने महर्षि और्व की शरण में जाकर अपना दुख सुनाया।

 

और्व ने शरणागतों की रक्षा के लिए असुरों की यह श्राप दे दिया कि यह असुर अगर पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा या यज्ञों का विध्वंस करेंगे तो उसी समय अपने प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। इधर देवताओं जब यह बात सुनी और उन्हें इस सत्य का भान हुआ तो उन्होंने दुराचारी असुरों पर चढ़ाई कर दी। इससे असुर बहुत घबरा गए।

अगर युद्ध में देवताओं को मारते तो मुनि के श्राप से स्वयं भी मर जाते और नहीं मारते तो पराजित होकर भूखों मर जाते। इस अवस्था में दारुका ने कहा कि भवानी के वर से मैं इस सारे वन को जहां चाहूं, ले जा सकती हूं। यह कहकर वह समस्त वन को ज्यों का त्यों लेकर समुद्र में जा बसी। अब असुर पृथ्वी पर न रहकर जल में रहने लगे। वहां पर प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने लगे। एक बार बहुत सी नावें उधर आ निकलीं, जो कि मनुष्यों से भरी हुईं थी। असुरों ने उसमें बैठे सभी मनुष्यों को पकड़ लिया और कारागार में डाल दिया।

सभी असुर प्रतिदिन प्रताड़ित करने लगे। उस दल का प्रधान सुप्रिय नामक एक वैश्य था। वह सदाचारी, भस्म रुद्राक्षधारी व परम शिव भक्त था। सुप्रिय बिना पूजा के अन्न ग्रहण नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को शिवपूजा सिखा दी थी। सब लोग नम: शिवाय मंत्र का जप और भगवान भोलेनाथ के ध्यान में मग्न रहते थे।

 

दारुक राक्षस को जब यह बात बता चली तो उससे सुप्रिय की बहुत भर्त्सना की। उसके साथ असुर उसे मारने के लिए दौड़े। उन असुरों को आते हुए देखकर सुप्रिय भगवान भोलेनाथ शिव शंकर को पुकारने लगा।

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वह पुकार लगाने लगा कि हे महादेव मेरी रक्षा कीजिए। दुष्टहन्ता महाकाल, हमें इन दुष्ट असुरों से बचाइये। भक्तों की रक्षा करने वाले शिव शंकर, हम आपके आधीन है। आप ही मेरे सर्वस्व हो। सुप्रिय के इस तरह प्रार्थना करने पर भगवान शंकर एक विवर में से निकल पड़े। उनके सा ही चार ही चार दरवाजों का उत्तम मंदिर भी प्रकट हो गया।

 

उसके माध्यभाग में अद्भुत ज्योतिर्मय शिवलिंग प्रकाशित हो रहा था। उसके सााथ शिव परिवार के सभी लोग विद्यमान थे। सुप्रिय ने अपने साथियों के साथ मिलकर उनका दर्शन-पूजन किया। पूजित होने पर भगवान शम्भु ने प्रसन्न होकर स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रधान-प्रधान असुरों, उनके सारे उपकरणों और सेवकों को तत्काल नष्ट कर दिया।

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इस प्रकार भगवान शम्भु ने अपने भक्त सुप्रिय की रक्षा की। इधर राक्षसी दारुका ने दीनचित्त होकर देवी पार्वती की स्तुति की और अपने वंश की रक्षा की प्रार्थना की। इस पर प्रसन्न होकर माता पार्वती ने उसे अभयदान दिया। इस तरह अपने भक्तों के पालन और उनकी रक्षा के लिए भगवान शंकर और माता पार्वती स्वयं वहां स्थित हो गए।

 

ज्योतिर्लिंग स्वरूप महादेव जी वहां नागेश्वर कहलाए। देवी शिवा नागेश्वरी के नाम से विख्यात हुईं, जो भी इस मंदिर में श्रद्धापूर्वक पूजन अर्चन करता है। उस पर शिव व माता पार्वती शीघ्र प्रसन्न होती है। भक्त के संकटों को हरते हैं।

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