ओंकार की ध्वनि का महत्व तो अब सारी दुनिया ने स्वीकार कर लिया है। सौर मंडल में वैज्ञानिकों को ओंकार के स्वर सुनाई दिए हैं। इसे लेकर विश्वभर में शोध भी चल रहे हैं, जबकि हमारी सनातन संस्कृति में ओंकार का महत्व सृष्टि के आदिकाल से रहा है। ओंकार शब्द के उच्चारण से जीवात्मा उस परमात्मा में विलीन होने के पथ पर अग्रसित होती है और सतत प्रयास से वह परमब्रह्म में अंतत: विलीन हो जाती है।
ओंकार के नित्य अभ्यास से साधक मन स्थिर हो जाता है। वह आत्मसाक्षात्कार के निकट पहुंच जाता है। ओंकार को उपनिषदों में धनुष मानकर आत्मा को उस धनुष पर चढ़ाया हुआ वाण माना जाता है। परमतत्व ब्रह्म को उस वाण का लक्ष्य माना जाता है।
प्रणव: धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
ओंकार का उच्चारण करने का आशय है कि आत्मा की इस ध्वनि के द्बारा अपने आप को प्रकट कर परमतत्व में लीन करने के लिए प्रयासरत हैं, जिसमें मन, बुद्धि, प्राण आदि सभी सहायक होते हैं।
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फलस्वरूप ओंकारोच्चारण से जब शरीर-स्थित आत्मा को कुछ प्रकट करने की इच्छा होती है तो वह बुद्धि द्बारा मन को अपना अभिप्राय प्रकट करने के लिए लगाता है। मन इस कार्य को करने के लिए शरीर की अग्नि को प्रदीप्त करता है।
शरीर की अग्नि इसके लिए वायु को प्रेरित करती है और वायु हृदय प्रदेश में से होती हुई स्वर को प्रकट करती है। योग के इसी सिद्धान्त को आधार मानकर ओंकार के माध्यम से परमतत्व के साथ एकाकार होने का एक व्यवहारिक मार्ग प्रदान करता है।
योगश्चित्तवृत्ति: निरोध:
भावार्थ- चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। ईश्वर का प्रमुख नाम प्रणव अर्थात ओम है।
तस्य वाचक: प्रणव:
वह ईश्वर इस प्रमुख ओम नाम जाना जाता है। यह ईश्वर का प्रमुख वाचक है। अन्य सभी नाम गौण हैं। इसलिए उसके साथ सम्बन्ध जोड़ने का सबसे सरल अर्थात उसके नाम ओम का जप और उसके अर्थ का मनसा, वाचा, कर्मणा ध्यान माना गया है।
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