ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बास….

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गवान शंकर और भगवान विष्णु में भेद नहीं है, भगवान शंकर के हृदय में विष्णु का और भगवान विष्णु के हृदय में शंकर का वास है। दोनों ही एक-दूसरे से अत्यधिक स्नेह करते हैं। शिव तामसमूर्ति हैं और विष्णु सत्वमूर्ति हैं, लेकिन नित्य प्रति एक-दूसरे का ध्यान करने से शिव श्वेत वर्ण के और भगवान विष्णु श्याम वर्ण के हैं या कहें, हो गए हैं। वैष्ण्ोवों का तिलक अर्थात ऊर्ध्वपुण्ड्र त्रिशूल रूप है और श्ौवों तिलक अर्थात त्रिपुण्ड्र धनुष रूप है। इसलिए शिव और विष्णु को लेकर जीव में भेद बुद्धि कदापि नहीं रखनी चाहिए।

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इस बात को समझने के लिए हम एक श्लोक का उल्लेख करते है, जो आपको हमारी व शास्त्रोक्त बात को सहजता से समझायेगा-
उभयो: प्रकृतिस्त्वेका प्रत्ययभेदेन भिन्नवद भाति।
कलयति कश्चिन्मूढा हरिहरभेदं विनाशस्त्रम्।।
भावार्थ- हरि और हर दोनों की प्रकृति यानी मूल तत्व एक ही है। लेकिन निश्चय के भेद से दोनों भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। कुछ मुर्ख हरि और हर को भिन्न-भिन्न बताते हैं, जो विनाश करने का अस्त्र है यानी विनाश- अस्त्रम् है।
भावार्थ दूसरे अर्थो में-
हरि और हर दोनों की प्रकृति एक ही है यानी दोनों एक ही हृ धातु से बने हैं, लेकिन प्रत्यक्ष इ और अ के भेद से दोनों भिन्न की तरह दिखते हैं। कुछ मुर्ख हरि और हर को भिन्न- भिन्न बताते हैं, जो कि शास्त्र के विरुद्ध है। कहने का आशय यह है कि भेद दृष्टि शास्त्र सम्मत नहीं है।

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यह बात फिर सिद्ध होती है कि दोनों को लेकर भेद दृष्टि कदापि उचित नहीं है।
शिवश्च हृदये विष्णों: विष्णोश्च हृदये शिव:।
कहीं-कहीं ऐसा ही आता है कि वैष्णव शिवलिंग को नमस्कार नहीं करें, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वैष्णव का शंकर से द्बेष है। इसका तात्पर्य यह है कि वैष्णव के मस्तक पर ऊर्ध्वपुण्ड्र का जो तिलक रहता है, उसमें विष्णु के दो चरणों के बीच में देवी लक्ष्मी का लाल रंग चिन्ह अर्थात श्री रहता है, इसलिए वैष्णवों के लिए शिवलिंग को नमस्कार का निष्ोध आया हैं।
गोस्वामी तुलसी कृत राम चरित मानस में तो यहां तक उल्लेख है कि-
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
तेर नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बास।।
भावार्थ- शंकर का प्रिय और मेरा द्रोही। शिव द्रोही और मेरा दास। ऐसे नर कल्प भर घोर नरक को प्राप्त होते हैं।
गोस्वामी जी कहते हैं-
सेवक स्वामी सख सिय पी के।
भावार्थ- भगवान शंकर राम जी के सेवक, स्वामी और सख तीनों ही हैं। रामजी की सेवा करने के लिए हनुमान रूप धारण किया। वानर का रूप उन्होंने इसलिए धारण किया, क्योंकि वे अपने स्वामी की सेवा तो करें लेकिन चाहें कुछ भी नहीं। वानर को न रोटी चाहिए, न कपड़ा और न ही मकान ही चाहिए। वह जो कुछ मिले, उसी में अपना निर्वाह कर लेता है। भगवान राम ने पहले रामेश्वर शिवलिंग का पूजन किया, फिर लंका युद्ध को आगे बढ़े, इसलिए भगवान शंकर राम चंद्र जी के स्वामी भी हुए।

इस प्रसंग में जब भगवान राम कहते है कि संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास। ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुॅँ बास।। इसलिए भगवान राम भगवान राम के सखा भी है। कहने का आशय मात्र इतना ही है कि शास्त्रों में सिद्ध है कि भगवान विष्णु और शिव में कोई भ्ोद नहीं है, दोनों में भेद करने वाला घोर नरकगामी होता है।

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