इटावा, 13 अगस्त (वार्ता) दशकों तक दस्यु गिरोह की शरणस्थली रही चंबल घाटी में दुर्दांत डकैतों ने भी अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया था।
चंबल संग्रहालय के संस्थापक डॉ.शाह आलम राना ने यूनीवार्ता से बातचीत में कहा कि आजादी के आंदोलन में चंबल घाटी के कुख्यात बागियों (डाकुओं) ने खासा योगदान दिया है, इस बात का जिक्र आजादी के बाद प्रकाशित हुई विभिन्न पुस्तकों में विस्तृत उल्लेखित किया गया है।
उनका कहना है कि शौर्य,पराक्रम और स्वाभिमान की प्रतीक चंबल घाटी के डाकुओ के आंतक ने भले ही हमारे देश की कई सरकारो को हिलाया हो लेकिन यह बहुत ही कम लोग जानते है कि चंबल के डाकुओ ने अग्रेंजी हुकूमत के दौरान आजादी के दीवानो की तरह अपनी देशप्रेमी छवि से देशवासियो के दिलो मे ऐसी जगह बनाई कि हम उन्हे स्वतंत्रता दिवस के दिन याद किये बिना रह नही पाते है।
आज़ादी पूर्व चंबल में बसने वाले डाकू,जिन्हें पिंडारी कहा जाता था। डाकुओ ने देश के क्रांतिकारियों को न केवल असलहा व गोला बारूद मुहैया कराया बल्कि उनको छिपने का स्थान भी दिया। चंबल के बीहड़ों में आजादी की जंग 1909 से शुरू हुई थी। चंबल में रहने वालों ने क्रांतिकारियों का भरपूर साथ दिया। बीहड़ क्रांतिकारियों के छिपने का सुरक्षित ठिकाना हुआ करता था।
चंबल के डकैतों को बागी कहलाना ही पसंद है।आजादी के बाद बीहड़ में जुर्म होने लगे, जो उनकी मजबूरी थी। बीहड में बसे डकैतों के पूर्वजों ने आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर क्रान्तिकारियों का साथ दिया लेकिन आजादी के बाद उन्हें कुछ नहीं मिला। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में चंबल के किनारे 450 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बागी आजादी से पहले रहा करते थे। उन्हें पिंडारी कहा जाता था।
पिंडारी मुगलकालीन जमींदारों के पाले हुए वफादार सिपाही हुआ करते थे,जिनका इस्तेमाल जमींदार विवाद को निबटाने के लिए किया करते थे। मुगलकाल की समाप्ति के बाद अंग्रेजी शासन में चंबल के किनारे रहने वाले इन्हीं पिंडारियों ने जीवन यापन के वहीं डकैती डालना शुर कर दिया और बचने के लिए अपनाया चंबल की वादियों का रास्ता।
भारत छोड़ो आन्दोलन में चंबल के किनारे बसी हथकान रियासत के हथकान थाने में साल 1909 में चर्चित डकैत पंचम सिंह, पामर और मुस्कुंड के सहयोग से क्रान्तिकारी पडिण्त गेंदालाल दीक्षित ने थाने पर हमला कर 21 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया और थाना लूट लिया। इन्हीं डकैतों ने क्रान्तिकारी गेंदालाल दीक्षित, अशफाक उल्ला खान के नेतृत्व में सन 1909 में ही पिन्हार तहसील का खजाना लूटा और उन्हीं हथियारों से 9 अगस्त 1915 को हरदोई से लखनऊ जा रही ट्रेन को काकोरी रेलवे स्टेशन पर रोककर सरकारी खजाना लूटा।
कालेश्वर महापंचायत के अध्यक्ष बापू सहेल सिंह परिहार डाकुओ की देशप्रेमी छवि का जिक्र करते हुये बताते हैं कि देश के स्वतंत्रता आदोंलन के दौरान चंबल के खूंखार बागी ब्रहमचारी ने अपने सैकडो सर्मथक बागियो के साथ हिस्सेदारी की। अंग्रेजी फौज से मुकाबला करते हुये ब्रहमचारी उनके करीब 35 साथी देश की आजादी की लडाई लडते हुये अपना बलिदान दिया।
चंबल के डाकुओ मे भी आजादी हासिल करने का जुनुन पैदा हो गया था इसी परिपेक्ष्य मे ब्रहमचारी नामक डकैत ने अपने साथियो के साथ आजादी की लडाई लडी। चंबल के महत्व की चर्चा करते हुये वे बताते है कि जंगे आजादी मे चंबल घाटी का खासा योगदान माना जा सकता है क्यो कि आजादी की लडाई के दौरान कई ऐसे गांव रहे है जिनको या तो अंग्रेज अफसर खोज नही पाये या फिर उन गांव मे घुस नही पाये।
स्वतंत्रता आदोलंन के दौरान साल 1914-15 मे क्रान्तिकारी गेंदालाल दीक्षित ने चंबल घाटी मे क्रान्तिकारियो के एक संगठन मातृवेदी का गठन किया। इस संगठन मे हर उस आदमी की हिस्सेदारी का आवाहन किया गया जो देश हित मे काम करने का इच्छुक हो इसी दरम्यान सहयोगियो के तौर चंबल के कई बागियो ने अपनी इच्छा आजादी की लडाई मे सहयोग करने के लिये जताई।
ब्रहमचारी नामक चंबल के खूखांर डाकू के मन मे देश को आजाद कराने का जज्बा पैदा हो गया और उसने अपने एक सैकडा से अधिक साथियो के साथ मातृवेदी संगठन का सहयोग करना शुरू कर दिया। ब्रहमचारी डकैत के क्रान्तिकारी आंदोलन से जुडने के बाद चंबल के क्रान्तिकारी आंदोलन की शक्ति काफी बढ गई तथा ब्रिटिश शासन के दमन चक्र के विरूद्व प्रतिशोध लेने की मनोवृत्ति तेज हो चली। ब्रहमचारी अपने बागी साथियो के साथ चंबल के ग्वालियर मे डाका डालता था और चंबल यमुना मे बीहडो मे शरण लिया करता था।
ब्रहमचारी ने लूटे गये धन से मातृवेदी संगठन के लिये खासी तादात मे हथियार खरीदे।
इसी दौरान चंबल संभाग के ग्वालियर मे एक किले को लूटने की योजना ब्रहमचारी और उसके साथियो ने बनाई लेकिन योजना को अमली जामा पहनाये जाने से पहले ही अग्रेंजो को इस योजना का पता चल गया ऐसे मे अग्रेजो ने ब्रहमचारी के खेमे मे अपना एक मुखबिर घुसेड दिया और पडाव मे खाना बनाने के दौरान ही इस मुखबिर ने पूरे खाने मे जहरीला पदार्थ डाल दिया।
इस करतूत का ब्रहमचारी ने पता लगा कर मुखबिर को मारा डाला लेकिन तब तक अग्रेजो ने ब्रहमचारी के पडाव पर हमला कर दिया जिसमे दोनो ओर से काफी गोलियो का इस्तेमाल हुआ। ब्रहमचारी समेत उनके दल के करीब 35 बागी शहीद हो गये।
चकरनगर के दिवंगत ब्लॉक प्रमुख जसवंत सिंह सेंगर के बेटे हेम रूद्र सिंह सेंगर बताते है कि आजादी के दौरान कई ऐसे गांव रहे है जिन गांव मे अग्रेंज प्रवेश करने को तरसते रहे है और ऐसे भी कई गांव रहे है जहां पर अंग्रेज अफसरो को मौत के घाट तक उतार दिया है। चंबल इलाके का कांयछी एक ऐसा गांव माना गया है जँहा पर अग्रेंज अफसरो आजादी के दीवानो को खोजने के लिये गांव को ही नही खोज पाये। इस घाटी के बंसरी गांव के तो दर्जनो शहीद हुये है।
आज भले ही चंबल घाटी को कुख्यात डाकुओ की शरणस्थली के रूप मे जाना जा रहा है लेकिन इस चंबल घाटी की ऐसी भी तस्वीर है जहा के देशप्रेम को उजागर करने के लिये काफी मानी जा सकती है। देश की आजादी के बाद चंबल मे पनपे बहुतेरे डकैतो ने चंबल के बागियो की देशप्रेम की छवि को पूरी तरह से मिटा करके रखा दिया है।