मुक्ति हरि की कृपा से संभव है, जो सृष्टि-हरि में भेद नहीं करता है। वह मुक्ति को प्राप्त करता है। प्रकृति और हरि में भेद नहीं करता है, वह मुक्ति को प्राप्त करता है। भूतभावन शिव और विष्णु में भेद नहीं करता है। वह मुक्ति को प्राप्त करता है। समस्त सृष्टि को एक ही परमसत्ता के स्वरूप में देखता है, वह मुक्ति को प्राप्त करता है। वैसे शुक्र रहस्य में उस व्यक्ति की मुक्ति का रहस्य बताया गया है, जो संसार में हरि और हरि में संसार को देखता है। उसकी दृष्टि में भेद नहीं होता है। भेद जहां भी होगा, वहां मुक्ति सम्भव नहीं है।
हरिरेव जगज्जगदेव हरिर्हरितो जगतो नहि भिन्नतनु:।
इति यस्य मति: परमार्थगति: स नरो भवसागरमुत्तरति।।
भावार्थ- हरि ही जगत हैं, जगत ही हरि हैं। हरि और जगत में किंचिन्मात्र भी भेद नहीं है। जिसकी ऐसी मति है, उसी की परमार्थ में गति है। वह पुरुष संसार सागर को तर जाता है।