दक्षिण भारत में जो पंचतत्त्वलिंग माने जाते हैं, उनमें कालहस्ती वायुतत्त्वलिंग( vayutatvling kalhasti ) माना जाता है। यही कारण है कि पुजारी भी इसका कभी स्पर्श नहीं करते। मूर्ति के पास स्थित स्वर्णपट्ट पर माला आदि पूजन सामग्री चढ़ाई जाती है। इस कारण इसका दक्षिण के तीर्थ स्थानों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। कालहस्ती को कालहस्तीश्वर भी कहा जाता है। इस मूर्ति पर मकन ( श्री ) काल ( सर्प ) हस्ती ( हाथी ) के चिह्न स्पष्ट दिखते हैं। कहते हैं, इन्होंने यहां भगवान शंकर की उपासना – आराधना की, अत : उन्हीं के नाम पर तीर्थ का नाम पड़ा। श्री कालहस्ती जाने के लिए चेन्नई, तिरुपति तथा चेंगलपेट से थोड़ी – थोड़ी देर में बसें चलती हैं। विल्लुपुरम् – गुंटूर लाइन पर रेनीगुंटा से श्री कालहस्ती 25 किलोमीटर तथा तिरुपति ईस्ट से 38 किलोमीटर दूर पड़ता है। स्टेशन से श्री कालहस्ती मंदिर लगभग दो किलोमीटर दूर पड़ता है। कालहस्ती के पास कुछ धर्मशालाएं व लाज आदि स्थित हैं। यात्रीगण ठहरने के बजाय बालाजी के दर्शन के पश्चात् लौटते समय मंदिर के दर्शन करें।
वायुतत्त्वलिंग कालहस्ती की कथा
पूर्व काल की बात है कि नील और फणीश नामक दो भील युवक वन में शिकार खेलने निकले। नील ने पहाड़ी पर अर्जुन द्वारा स्थापित शिवलिंग मूर्ति देखी। नील शिवभक्त था। मूर्ति की रक्षा के लिए वह वहीं बैठ गया। उसका भाई वापस लौट गया। नील धनुष – वाण लेकर रात में मूर्ति की रक्षा करने लगा, ताकि कोई जंगली पशु मूर्ति को नुकसान न पंहुचा सके।सुबह होते ही नील आखेट के लिए चल दिया। आखेट से जब वह वापस लौटा, तो बुरी तरह थका हुआ था। उसके एक हाथ में भुना मांस तथा दूसरे में धनुष था। उसके बालों में फूल – पत्तियां उलझी हुई थीं और मुंह में पानी भरा हुआ था। उसने आते ही देखा कि शिवलिंग पर पत्ते बिखरे थे। हाथ खाली न होने से उसने शिवलिंग पर पड़े पत्ते पैरों से हटाए।
मुंह से कुल्ला कर मूर्ति को स्नान कराया और बालों को झटककर पुष्प चढ़ा दिए। उसके बाद भुने मांस का भोग लगाकर वह धनुष – बाण लेकर फिर पहरे पर बैठ गया। दूसरे दिन मंदिर का पुजारी आया। उसने शिवलिंग पर चढ़े मांस को देखा, तो दुखित हुआ। उसने मूर्ति को स्वच्छ पानी से नहलाकर ताजे पुष्प चढ़ाए, पूजा की और चला गया। पर नील ने दूसरे दिन भी अपने ढंग से ही पूजा की। यह क्रम चलता ही रहा। पुजारी परेशान था कि मंदिर को रोज कौन दूषित कर जाता है? एक दिन पुजारी ने छिपकर देखने का निश्चय में कर लिया। वह मंदिर में एक स्थान पर छिप गया।
जब नील शिकार से लौटा तो उसने देखा कि शिवलिंग पर दो आंखें उभर आई हैं और एक आंख से रक्त बह रहा है। अपने भगवान की यह दशा देखकर वह क्रोधित हो उठा। भगवान को कष्ट देने वाले को उसने इधर – उधर खोजा, पर उसे कोई न मिला। उसने जड़ी – बूटी से औषधि बनाकर भगवान की आंख पर लगाई, पर रक्त नहीं रुका। अंत में उसने भगवान की आंख की जगह अपनी आंख लगाने का निश्चय कर लिया। उसने तरकस से एक बाण खींचकर अपनी आंख में घुसाकर उसे निकाल लिया और मूर्ति की घायल आंख की जगह उसे लगा दिया। पुजारी छिपा हुआ विस्मित नेत्रों से यह अद्भुत दृश्य देख रहा था।
मूर्ति की उस आंख से तो रक्त बंद हो गया, पर अब दूसरी आंख से रक्त बहने लगा। नील ने अपना दूसरा नेत्र भी बाण की सहायता से निकालकर मूर्ति को लगाना चाहा, पर तभी स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए। उन्होंने अपने भक्त को गले से लगा लिया और वे उसे अपने साथ शिवलोक ले गए। तभी से नील का नाम कण्णप्प पड़ गया।
भगवान शिव के दर्शन कर तथा शिव के ऐसे महान् भक्त को देख पुजारी धन्य हो गया। तभी से इस मंदिर का नाम कण्णप्पेश्वर पड़ गया। कालहस्ती का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहां अर्जुन ने भगवान शंकर की उपासना की तथा उसे कृपास्वरूप पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था। यहां का शिवलिंग भी अर्जुन द्वारा स्थापित कहा जाता है। कालहस्ती का मुख्य मंदिर वायुलिंग को प्रदर्शित करता है।
वायुतत्त्वलिंगम्
मंदिर में भगवान शिव की लिंगरूप मूर्ति है, जो आकार में चौकोर है। यहां एक ज्योति जलती रहती है। इसे कांच के पात्र में रखा गया है, जिससे वायुरूप में यह विलीन न होने पाए। कांच के पात्र के अंदर भी यह ज्योति निरंतर हिलती रहती है, जैसे उसे वायु प्राप्त हो रही हो। इसी कारण यह वायुतत्त्वलिंगम् कहलाता है। शिव प्रतिमा के सामने कण्णप की भी एक मूर्ति स्थापित है, जो बड़ा शिवभक्त था।
तीनों पशुओं की मूर्तियां स्थापित
मान्यता अनुसार इस स्थान का नाम तीन पशुओं, श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प तथा हस्ती यानी हाथी के नाम पर रखा गया है। एक जनुश्रुति के अनुसार मकड़ी ने शिवलिंग पर तपस्या करते हुए जाल बनाया था व सांप ने लिंग से लिपटकर आराधना की और हाथी ने शिवलिंग को जल से स्नान करवाया था। यहां पर इन तीनों की मूर्तियां भी स्थापित हैं। श्रीकालहस्ती का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण और लिंग पुराण में भी मिलता है।
वायुतत्त्वलिंग कालहस्ती के अन्य दर्शनीय स्थल
- मणिगणियगट्टम् : चट्टान काट कर एक मंडप बनाया गया है, जिसे मणिगण्णियगट्टम् कहा जाता है।
इस नाम की एक भक्त थी, जिसके कान में स्वयं भगवान शिव ने तारक मंत्र फूंका था।
- कण्णप्पेश्वर: यहां का शिवलिंग अर्जुन द्वारा प्रतिष्ठित किया गया था, परंतु इसकी पूजा – अर्चना कण्णप्प भक्त ने की थी, अत : इसका नाम कण्णप्पेश्वर रखा गया। इसमें कण्णप्प भील की मूर्ति स्थापित है।
- पवित्र सरोवर : पहाड़ी के उतरते ही एक सरोवर स्थित है, जिसका जल कण्णप्प शिव पर चढ़ाने हेतु मुख में भर कर लाया था, अत : यह सरोवर भी पवित्र है।
- रलावली शक्तिपीठ : यह सती के 51 पीठों में से एक है और यहां दक्षिण स्कंध गिरा था। स्वर्णमुखी नदी के तट पर यह मंदिर स्थित है, परंतु रख – रखाव के अभाव में उपेक्षित पड़ा रहता है। मंदिर की देवी दुर्गा को दुर्गाम्बा या ज्ञानपुसू भी कहा जाता है। नोट-रत्नावली शक्तिपीठ का ठीक-ठीक स्थान अज्ञात है, फिर भी बताया जाता है कि पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के खानाकुल-कृष्णानगर मार्ग पर रत्नावली स्थित रत्नावली नदी स्थित रत्नावली नदी के तट पर सती माता का दाया कंधा गिरा गिरा था। इनकी शक्ति है कुमारी और भैरव शिव को कहते हैं। बंगाल पंंजिका के अनुसार, यह तमिलनाडु के मद्रास यानी चेन्नई के आसपास हैं। हालांकि बहुत से लोग इसे पश्चिम बंगाल में मानते हैं।
भगवती दुर्गा के 51 शक्तिपीठ, जो देते हैं भक्ति-मुक्ति, ऐसे पहुचें दर्शन को
https://www.sanatanjan.com/%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%af%e0%a5%81%e0%a4%a4%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%97-%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4-%e0%a4%af/