वैद्यनाथ महादेव की पूजा-अर्चना से समस्त दुखों का शमन होता है। सुखों की प्राप्ति होती है। यह मुक्ति प्रदायक है। वैद्यनाथ धाम में दूर-दूर से जल लाकर चढ़ाने का अत्यधिक महत्व है। पटना- कोलकाता रेल मार्ग पर किउल स्टेशन से दक्षिण पूर्व पर देवघर है, इसे भी बैद्यनाथ धाम कहते हैं। यहीं पर बैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग है। अब हम आपको इसकी पावन कथा बताते हैं।
कथा के मुताबिक रावण ने अतुल्य बल सामर्थ की प्राप्ति की इच्छा से भगवान शिव की कठोर आराधना आरंभ की। वह ग्रीष्म काल में पंचाग्नि सेवन करता था। जाड़ों में पानी में रहता था और वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर तप करता था। तप करते हुए उसे बहुत समय बीत गया लेकिन भगवान शिव ने प्रत्यक्ष दर्शन नहीं दिए। तब उसने पार्थिव शिवलिग की स्थापना की और उसी के पास गड्ढा खोदकर अग्नि प्रज्जवलित की। वैदिक विधान से उस अग्नि के सामने उसने भगवान शिव की विधिवत पूजा की।
रावण अपने सिर को काट-काट कर चढ़ाने लगा। भगवान शिव जी की कृपा से उसका कटा हुआ सिर पुन: जुड़ जाता था। इस तरह उसने 9 बार सिर काटकर चढ़ाया, जब दसवीं बार वह सिर चढ़ाने को उद्यत हुआ, तब भगवान शिव प्रकट हो गए। भगवान शिव ने कहा कि मैं तुम तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं। तुम अपना अभीष्ट वर मांग लो। रावण ने उनसे अतुल्य बल सामर्थ्य के लिए प्रार्थना की। भगवान शिव ने उसे वह वर दे दिया। रावण ने उनसे लंका चलने के लिए निवेदन किया। तब भगवान शिव ने उसके हाथ में एक शिवलिग देते हुए कहा कि हे रावण अगर तुम इसे मार्ग में कहीं भी पृथ्वी पर रख दोगे तो यह वही स्थापित हो जाएगा। अत: इसे सावधानी से ले जाना। रावण शिवलिग को लेकर चलने लगा।
शिव जी की माया से मार्ग में उसे लघुशंका की इच्छा हुई। जिसे वह रोक न सका। उसने पास में खड़ हुए एक गोप कुमार को देखा और निवेदन करके वह शिवलिग उसी के हाथ में दे दिया। वह वह उस शिवलिग का भार सहन न कर सका और उसने वही पृथ्वी पर रख दिया। धरती पर वह शिवलिग अचल हो गया। इसके बाद रावण ने जब उसे उठाने का प्रयास किया तो वह शिवलिग नहीं उठ सका।
हताश होकर रावण घर लौट गया। यही शिवलिग वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से जगत में प्रसिद्ध है। इस घटना को जानकर ब्रह्मा आदि देवगण वहां उपस्थित हो गए। देवताओं ने भगवान शिव का प्रत्यक्ष दर्शन किया। देवताओं ने उनकी प्रतिष्ठा की। अंत में देवता वैद्यनाथ महादेव की स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए।