वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग भक्तों को अनन्त फल प्रदान करने वाला है। इसकी महिमा अनन्त है। यह ज्योतिर्लिंग ग्यारह अंगुल ऊंचा है। इसके ऊपर अंगूठे आकार गढ़ा हुआ है। माना जाता है कि यह वही निशान है, जिसे रावण ने बनाया था। यहां दूर-दूर के तीर्थो का जल चढ़ाने का विधान है। इसका विश्ोष महत्व माना जाता है। रोगमुक्ति के लिए इस ज्योतिर्लिंग की विश्ोष महिमा मानी जाती है।
पुराणों में कहा गया है कि जो मनुष्य इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है, उसे अपने समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों से उसे मुक्ति मिल जाती है। उस पर सदैव भगवान शंकर की कृपा बनी रहती है। भगवान भूतभावन की कृपा से भक्त सभी बाधाओं, रोगों व शोकों से मुक्ति पा लेता है। उसे शिवलोक की प्राप्ति भी सुलभ होती है। उसके सारे कृत्य भगवान शिव को समर्पित किए जाते हैं। उसे ऐसी विरली भक्ति प्राप्त होती है, उसे सर्वत्र भगवान शिव के दर्शन ही प्राप्त होते हैं। सभी प्राणियों के प्रति उसमें ममता व दया का भाव रहता है। सभी भ्ोदों में उसकी अभ्ोद दृष्टि हो जाती है। किसी भी प्राणी के प्रति उसमें ईष्याã, वैर, द्बेष, घृणा व क्रोध का भाव नहीं रहता है। भगवान भोलेनाथ का समर्पित जगत कल्याण में लगा रहता है। भगवान की भक्ति का यह अमोघ फल हमें प्राप्त करना ही चाहिए।
झारखंड के देवघर में श्रीवैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। यह ज्योतिर्लिंगों में नौवें स्थान पर है। शास्त्रों में इसकी महिमा का बखान विस्तार से किया गया है। कथा के अनुसार एक समय में भगवान भूतभावन के परम भक्त रावण ने हिमालय में भगवान शंकर की घोर तपस्या की। उसने एक-एक करके सभी सिर भगवान शंकर को चढ़ाने शुरू कर दिए। इस तरह से उसने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपने नौ सिर चढ़ा दिए। जब वह अपना अंतिम व दसवां सिर काट कर चढ़ाने ही वाला था, तभी भगवान शिव उसके समक्ष प्रकट हुए और उसका हाथ पकड़ कर ऐसा करने से रोका। उसके नवों सिर पूर्ववत जोड़ दिए और रावण से वर मांगने को भगवान शिव ने कहा। रावण ने वर के रूप में भगवान शिव के लिंग रूप को अपनी राजधानी लंका ले जाने की आज्ञा मांगी। भगवान शिव ने उसे वरदान तो दे दिया लेकिन एक शर्त रखी कि इसे तुम ले तो जाओंगे लेकिन रास्ते में इसे जहां रख दोंगे, यह वहां अचल हो जाएगा, तुम इसे फिर उठा नहीं सकोगे।
रावण ने भगवान की शर्त मान ली और शिवलिंग लेकर लंका की ओर चल दिया। रास्ते में उसे एक स्थान पर लघुशंका महसूस हुई तो वह शिवलिंग एक अहिर के हाथ में थमा कर लघुशंका से निवृत्त होने के लिए चल दिया। उस शिवलिंग के भार को अहिर सम्भाल नहीं सका और विवश होकर उसने शिवलिंग को उसी स्थान पर भूमि पर रख दिया। रावण जब वापस आया तो वह शिवलिंग को किसी भी प्रकार से उठा नहीं सका। अंत में वह हार कर शिवलिंग पर अपने अंगूठे का निशान बनाकर उसे वही छोड़कर चला गया। इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु व अन्य देवताओं ने वहां आकर शिवलिंग का पूजन-अर्चन किया। इस तरह वे शिवलिंग की वहां प्रतिष्ठा कर अपने-अपने धाम को लौट गए। इसी पावन ज्योतिर्लिंग को वैद्यनाथ के नाम से जाना जाता है। पुराणों व धर्म शास्त्रों में इसकी महिमा का गान मिलता है।
भगवान विष्णु नहीं चाहते थ्ो कि ज्योतिर्लिंग लंका पहुंचे
जगत के पालनहार भगवान विष्णु नहीं चाहते थ्ो कि रावण ज्योतिर्लिंग लेकर लंका पहुंच सके, इसलिए उन्होंने गंगा से रावण के पेट में समाने का अनुरोध किया था। पेट में गंगा जी के समाने के बाद ही रावण को लघुशंका महसूस हुई थी।