भगवान शिव का यह परम पवित्र विग्रह मालवा प्रांत में नर्मदा नदी के तट पर अवस्थित है। यहीं मान्धाता पर्वत के ऊपर देवाधिदेव शिव ओंकारेश्वर रूप में विराजमान हैं। शिवपुराण में ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर या अमलेश्वर दर्शन का अत्यन्त माहात्म बखान किया गया है। द्बादश ज्योतिर्लिंग में ओंकारेश्वर तो है ही, लेकिन इसके साथ ही अमलेश्वर का भी नाम लिया जाता है। वस्तुत: नाम ही नहीं, इन दोनों का अस्तित्व भी पृथक-पृथक है। अमलेश्वर का मंदिर नर्मदा के दक्षिण किराने की बस्ती में है, पर इन दोनों ही शिव-रूपों की गणना प्राय: एक में ही की गई है। बताया जाता है कि एक बार विन्ध्य पर्वत ने पार्थिवार्चन सहित ओंकारनाथ की छह माह तक कठिन आराधना की। जिससे प्रसन्न होकर भगवान प्रकट हुए । उन्होंने विन्ध्य पर्वत को मनोवांछित वर प्रदान किया। उसी समय वहां पधारे हुए देवों और ऋषियों की प्रार्थना पर उन्होंने ऊॅँ कार नामक लिंग के दो भाग किए। इसमें से एक में वे प्रणव रुप में विराजे, जिससे उनका नाम ओंकारेश्वर पड़ा और पार्थिवलिंग से सम्भूत भगवान सदाशिव परमेश्वर, अमरेश्वर या अमलेश्वर के नाम से विख्यात हुए।
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आंेकारेश्वर और परेश्वर या अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य कथा इस प्रकार है। एक समय की बात है कि नारद मुनि गोकर्ण नामक क्ष्ोत्र में विराजमान भगवान शिव के समीप जा बड़ी भक्ति के साथ उनकी सेवा में लगे थ्ो। कुछ काल के बाद वे मुनिश्रेष्ठ वहां से गिरिराज विन्ध्य पर आए और विन्ध्य ने वहां बड़े आदरभाव के साथ उनका पूजन किया। मेरे यहां सब कुछ है, कभी किसी बात की कमी नहीं होती है। इस भाव को मन में लाकर विन्ध्याचल नारद जी के सामने आ कर खड़े हो गए। उसकी वह अभिमानभरी बात सुनकर अहंकार नाशक नारद मुनि के लम्बी सांस खींचकर चुपचाप खड़े रह गए। यह देख कर विन्ध्य पर्वत ने पूछा कि आपने मेरे यहां कौन सी कमी देखी है? आपके इस तरह लम्बी सांस खींचने का क्या कारण है?
नारद जी ने कहा कि भ्ौया, तुम्हारे यहां सबकुछ है। फिर मेरु पर्वत तुमसे बहुत ऊॅँचा है। उसके शिखरों का विभाग देवताओं के लोकों में भी पहुंचा हुआ है, लेकिन तुम्हारे शिखर का भाग वहां कभी नहीं पहुंच सका है। ऐसा कहकर नारद जी वहां से चल दिये, लेकिन इस पर विन्ध्य पर्वत सोचे कि मेरे जीवन आदि को धिक्कार है। ऐसा सोचते हुए वह मन में संतप्त हो गए। अच्छा, अब मैं विश्वनाथ भगवान शम्भु की आराधना पूर्वक तपस्या करूंगा। ऐसा हार्दिक निश्चय करके वह भगवान शंकर की शरण में गए। इसके बाद जहां साक्षात् ओंकार की स्थिति है, वहां प्रसन्नतापूर्वक जाकर उसने शिव की पार्थिव मूर्ति बनायी और छह माह तक निरंतर शम्भु की आराधना करके शिव के ध्यान में तत्पर हुए और वह अपनी तपस्या के स्थान से हिले तक नहीं। विन्ध्याचल की ऐसी तपस्या देखकर माता पार्वती पति प्रसन्न हो गए। उन्होंने विन्ध्याचल के सम्मुख अपना वह स्वरूप दिखाया, जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। वे प्रसन्न हो उस समय उससे बोले विन्ध्य, तुम मनोवांछित वर मांगों। मैं भक्तों को अभीष्ट वर देने वाला हूं और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुआ हूं।
विन्ध्य ने कहा कि देवश्वर शम्भो, आप सदा ही भक्त वत्सल हैं, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वह अभीष्ट बुद्धि प्रदान कीजिए, जो अपने कार्य को सिद्ध करने वाली हो।
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भगवान शम्भु ने उसे वह उत्तम वर दे दिया और कहा कि पर्वत विन्ध्य , तुम जैसा चाहों, वैसा करों। इसी समय देवता और निर्मल अंत:करण वाले ऋषि वहां आए और शंकर जी की पूजा करके बोले- प्रभु, आप यहां स्थिररूप से निवास करें।
देवताओं की यह बात सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गए और लोकों को सुख देने के लिए उन्होंने सहर्ष वैसा ही किया। वहां जो एक ही ओंकारेश्वर लिंग था, वह दो भागों में विभक्त हो गया। प्रणव में जो सदाशिव थ्ो, वे आंेकार नाम से विख्यात हुए और पार्थिव मूर्ति में जो शिव ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, उसकी परमेश्वर संज्ञा हुई। परमेश्वर को ही अमलेश्वर भी कहते हैं। इस तरह ओंकार और परमेश्वर- ये दोनों शिवलिंग भक्तों को अभिष्ट फल देने वाले हैं। प्रसिद्ध सूर्य वंशीय राजा मान्धता ने, जिनके पुत्र अम्बरीष और मुचुकुन्द दोनों प्रसिद्ध भगवतभक्त हो गए और जो स्वयं बड़े तपस्वी और यज्ञों के कर्ता थ्ो। इस स्थान पर घोर तपस्या करके भगवान शंकर को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत का नाम मान्धाता पर्वत पड़ गया। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व दो कोठरियों में से होकर जाना पड़ता है। भीतर अंध्ोरा रहने के कारण सदैव दीप जलता रहता है। आंेकारेश्वर लिंग गढ़ा हुआ नहीं है- यह प्राकृतिक रूप में है। इसके चारों ओर सदा जल भरा रहता है। इस लिंग की एक विश्ोषता यह भी है कि वह मंदिर के गुम्बज के नीचे नहीं है। शिखर पर ही भगवान शिव की प्रतिमा विराजमान है। पर्वत से आवृत यह मंदिर साक्षात ओंकार स्वरूप ही दृष्टिगत होता है। कार्तिक-पूर्णिमा को इस स्थान पर भव्य मेला लगता है।
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