विंध्याचल देवी सहज पूरी करतीं है भक्तों की अभिलाषा

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विंध्याचल देवी का पवित्र धाम वाराणसी और इलाहाबाद के बीच मिर्जापुर जिले में है।  मिर्जापुर शहर से 8 किलोमीटर दूर पश्चिम की ओर मां विंध्यवासिनी देवी का प्रसिद्ध मंदिर है।  मान्यता है कि स्वयं भवानी इस स्थान पर विराजती हैं।  हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं और मैया के चरणों में शीश झुकाते हैं। 

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अपनी अभिलाषाएं पूर्ण करने के लिए नारियल, चुनरी, मौली आदि मां के चरणों में अर्पित करते हैं।  इससे देवी प्रसन्न होती हैं। 

भगवती विंध्यवासिनी की पौराणिक कथा

एक समय देवर्षि नारद जी भ्रमण करते हुए विंध्याचल के निकट आए।  विंध्याचल ने उनका उचित ढंग से सत्कार किया और पूछा कि हे बाल ब्रहमचारी! इस समय आप कहां से आ रहे हैं, तब उन्होंने बताया कि मैं सुमेर पर्वत की ओर से आ रहा हूं। जिसकी प्रदक्षिणा भगवान सूर्य देव करते हैं तथा इंद्र वरुण यम कुबेर आदि देवगढ़ वहां दरबार लगाते हैं। ऋषि नारद के मुख से सुमेरु पर्वत का बखान सुनकर विंध्यांचल के मन में ईर्ष्या हुई, तब उन्होंने कठोर शक्ति साधना करके अपने श्रंगो चोटियों को आकाश की ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया, जिससे जगत को प्रकाशित करने वाले भगवान सूर्य देव का मार्ग अवरुद्ध रुक हो गया और सर्वत्र अंधकार छा गया।  तब ऋषि-मुनियों और देवताओं ने भगवान विष्णु के पास जाकर प्रार्थना की। ऋषियों की बात सुनकर श्रीहरि ने कहा हे ऋषिजन एवं देवगढ़! देवी भगवती केपरम उपासक, काशी में निवास कर रहे अगस्तय ऋषि से जाकर प्रार्थना करो । एकमात्र अगस्त ऋषि ही विंध्याचल के उत्कर्ष को रोक सकते हैं। ऋषियों ने जाकर अगस्त ऋषि से विंध्याचल पर्वत के उत्कर्ष के विषय में बतलाते हुए सृष्टि की रक्षा हेतु निवेदन किया, तब अपनी स्त्री लोप मुद्रा के साथ काशी से चल पड़े। जब विंध्य पर्वत के निकट पहुंचे तो गिरीराज ने नतमस्तक होकर ऋषि अगस्तय को प्रणाम किया।  ऋषि ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह सदैव इसी तरह नतमस्तक रहे।  पर्वतराज विंध्याचल ने अपने बढ़ रहे श्रृंगो को अपनी सच्ची साधना का उदाहरण प्रस्तुत किया, जिससे भगवती दुर्गा अति प्रसन्न हुई और प्रकट होकर विंध्याचल में स्थान ग्रहण किया। वही देवी विंध्यवासिनी के नाम से विख्यात हुई। 

जानिए, विंध्यवासिनी देवी का पूजन विधान

स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें, उसके बाद हाथ में पुष्पांजलि लेकर मां की मूर्ति के समक्ष रख कर हाथ जोड़े और एकाग्र मन से माता के स्वरूप का ध्यान करते हुए कहें-

सौवर्णाम्बुज-मध्यगां त्रि-नयनां सौदमिनी-सन्निभाम। 
शंख-चक्र-वराभयानि दधतीमिन्दौ: कलां विभ्रतीम। । 
ग्रैवेयांगद-हार-कुण्डल धरामाखण्डल: द्यै: स्तुताम। 
ध्याये विंध्य-निवासिनी, शशि-मुखी पाश्र्वस्थ पंचाननाम। । 
अर्थ- स्वर्ण समान रंग वाले कमलो के मध्य आसन पर विराजमान, तीन नेत्रों वाली बिजली के समान कांति वाली शंख चक्र वर अभय मुद्रा धारण किए पूर्णिमा के चंद्रमा के समान आनंद प्रदायिनी।  गले में ग्रैवेय, बाजुओं में बाजूबंद, वक्ष स्थल पर वैजयंती माला, कानों में कुंडलधारण करने वाली भगवती जिनकी देवगढ़ स्तुति कर रहे हैं, उन चंद्रमा के समान देदीप्यमान मुखारविंद वाली श्री विंध्यवासिनी देवी का मैं ध्यान करता हूं। 

तत्पश्चात इस प्रकार कहे-

ऊँ दुर्गे महामाये विन्ध्याचल निवासिनी। 
त्वं काली कमला ब्रह्मïी त्वं जया विजया शिखा। 
त्वं लक्ष्मी विष्णु लोके च, कैलासे पार्वती तथा। 
वाराही नार सिंही च, कौमारी वैष्णवी तथा। 
त्वमाप: सर्व-लोकेषु, ज्योर्तिज्योति: स्वरूपिणी
योगमाया त्वमेवासि, वासुरुपा नम: स्थिता:। । 
सर्व गंध वहा पृथ्वी, नाना रूप सनातनी। 
विश्वरूपे च विश्वेशे, विश्व शक्ति समन्चिते। । 
प्रसीद विन्ध्यवासिनी, दुर्गे देवि। नमोस्तुते। 
मम प्रणामं विश्वेशि, गृहाण प्रदक्षिणां च। । 

और फिर माता भगवती के चरणों में शीश झुकाने तथा “रक्षयितुम मम-रक्षायितुम मम” कहते हुए पूजन समाप्त कर प्रसाद वितरण करें। मां की कृपा से भक्तों की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होंगी। 

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