योग सिर्फ व्यायाम नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक साधना है

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योग केवल शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण जीवनशैली और मानसिक साधना भी है। योग का उद्देश्य न केवल शरीर को स्वस्थ रखना है, बल्कि मन को शांति, स्थिरता और संतुलन प्रदान करना भी है।

योग में शारीरिक आसनों (postures) के साथ-साथ प्राणायाम (श्वास नियंत्रण), ध्यान (meditation) और आध्यात्मिक अनुशासन भी शामिल होता है। यह आत्म-जागरूकता को बढ़ाने में मदद करता है और मन को तनावमुक्त, केंद्रित और स्थिर बनाता है।

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योग के नियमित अभ्यास से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं, जिससे व्यक्ति अपने जीवन को अधिक संतुलित और सकारात्मक बना सकता है।

भारतीय ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने योग की व्याख्या अत्यंत व्यापक और गहन रूप में की है। योग का उल्लेख वैदिक धर्म ग्रंथों में विभिन्न रूपों में किया गया है। योग केवल शारीरिक क्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा, मन और शरीर के समन्वय का विज्ञान है। आइए देखें कि विभिन्न ग्रंथों में योग की क्या परिभाषा दी गई है:

1. ऋग्वेद एवं अन्य वेदों में योग

  • वेदों में योग का उल्लेख “समाधि” और “ध्यान” के रूप में हुआ है।

  • ऋग्वेद (10.136) में योगियों का वर्णन मिलता है, जो आत्म-साक्षात्कार के लिए ध्यान और तपस्या करते थे।

  • अथर्ववेद में “प्राणायाम” और “ध्यान” के माध्यम से मन को संयमित करने का उल्लेख किया गया है।

2. उपनिषदों में योग

  • कठोपनिषद (2.3.10-11) में कहा गया है:
    “यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्।।”
    अर्थात जब इंद्रियां और मन स्थिर हो जाते हैं, और बुद्धि शांति प्राप्त कर लेती है, तब व्यक्ति परम स्थिति (मोक्ष) प्राप्त करता है।

  • श्वेताश्वतर उपनिषद (2.8-9) में योग को आत्म-साक्षात्कार का साधन बताया गया है।

3. भगवद गीता में योग

  • गीता (6.23) में कहा गया है:
    “तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।”
    अर्थात योग वह है जो दुखों के संयोग से मुक्ति दिलाता है।

  • श्रीकृष्ण ने योग को तीन प्रमुख रूपों में समझाया:

    1. कर्म योग – निष्काम कर्म का मार्ग

    2. भक्ति योग – ईश्वर के प्रति प्रेम

    3. ज्ञान योग – आत्मज्ञान की प्राप्ति

4. पतंजलि योगसूत्र में योग

  • महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित किया:
    “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” (योगसूत्र 1.2)
    अर्थात योग वह प्रक्रिया है, जिससे चित्त की वृत्तियों का निरोध (नियंत्रण) होता है।

  • उन्होंने “अष्टांग योग” का सिद्धांत प्रतिपादित किया:

    1. यम (नैतिक अनुशासन)

    2. नियम (आत्म-अनुशासन)

    3. आसन (शारीरिक स्थिति)

    4. प्राणायाम (श्वास नियंत्रण)

    5. प्रत्याहार (इंद्रियों का नियंत्रण)

    6. धारणा (एकाग्रता)

    7. ध्यान (ध्यान प्रक्रिया)

    8. समाधि (अंतिम अवस्था)

5. हठयोग ग्रंथों में योग

  • हठयोग प्रदीपिका में योग की व्याख्या शारीरिक और मानसिक शुद्धि के माध्यम से आध्यात्मिक उत्थान के रूप में की गई है।

  • इसे साधना के लिए आसन, प्राणायाम, मुद्रा और ध्यान का समावेश बताया गया।

निष्कर्ष

भारतीय ऋषि-मुनियों ने योग को केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग बताया है। यह आत्मा, मन और शरीर के सामंजस्य का विज्ञान है, जो वेदों, उपनिषदों, गीता, योगसूत्र और अन्य ग्रंथों में विस्तार से वर्णित है।

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